वैसे तो सालभर रहती है लेकिन महंगाई की टीस दीवाली के दिनों में कुछ ज्यादा ही सालती है क्योंकि हर कोई अपना बजट बना रहा होता है. इसी वक्त एहसास होता है कि बहुत सी चीजें हाथ से फिसल रही हैं. त्योहार खासतौर से दीवाली के मजे पर महंगाई की मार कोई नई बात नहीं है लेकिन इस साल बात वाकई जुदा है क्योंकि महंगाई बेकाबू हो कर बढ़ी है.
आटादाल से ले कर सोनाचांदी, पैट्रोल-डीजल और न जाने क्याक्या महंगा हो गया है. अर्थशास्त्र की भाषा में भले ही महंगाई की अपनी न समझ आने वाली शब्दावली और परिभाषाएं हों पर सटीक यही बैठती है कि महंगाई एक ऐसा टैक्स है जो दिखता नहीं.
लेकिन आंकड़ों के आईने में बहुतकुछ दिखता है. मसलन, यही कि ज्यादा नहीं बल्कि एक साल में खाद्य पदार्थों के दाम 50 फीसदी तक बढ़े हैं. जो आटा पिछली दीवाली 25 रुपए प्रति किलो था वह अब 38-40 रुपए प्रति किलो है. 75-80 रुपए किलो मिलने वाली दाल तो 150 रुपए से भी ज्यादा कीमत की हो गई है.
खाने का तेल चाहे सरसों का हो सोयाबीन का या फिर मूंगफली का 50-60 रुपए प्रति लिटर तक बढ़ कर 150 रुपए पार कर चुका है. दूध के दाम 15 रुपए प्रति लिटर तक बढ़े हैं. मावा 200 से 300 रुपए प्रति किलो और ड्राई फ्रूट्स तिगुने दामों पर मिल रहे हैं. हाल यह है कि फल, सब्जी महंगे, सफर महंगा, पढ़ाई महंगी और इलाज भी महंगा.
दीवाली पर अब लोग भले ही रोजमर्रा के आइटमों के बढ़ते दामों पर ज्यादा चिंतित न होते हों लेकिन एक गृहिणी ही बेहतर बता सकती है कि हजार रुपए का गैस सिलैंडर रसोई में जब मुंह चिढ़ाता है तो कोफ्त क्यों होती है. महंगाई है और अनापशनाप है तो वह दीवाली पर महसूस क्यों नहीं होती? लाख टके के इस सवाल के कई जवाब हैं, जिन में से पहला यह है कि महंगाई से लड़ने की हिम्मत कोई नहीं जुटा सकता, इसलिए इस से सम?ाता कर लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं. दूसरे, त्योहारी खुशी और उत्साह कायम रखने के लिए लोग हर चीज में कटौती करने के आदी होते जा रहे हैं.
मिठाई 2 किलो की जगह आधा किलो ले लेंगे और खुद को तसल्ली यह कहते देंगे कि ज्यादा शकर नुकसान करती है और डाइबिटीज के मरीज दिनोंदिन बढ़ रहे हैं. बच्चों की अतिशबाजी से चूंकि प्रदूषण फैलता है, इसलिए हजारपांच सौ रुपए के पटाखे बहुत हैं रोशनी की रस्म अदा करने के लिए. वैसे भी, यह फुजूलखर्ची नहीं तो और क्या है जिस में आग से जलने का डर बना ही रहता है. कपड़े पहले से ही बहुत हैं, फिर भी सभी के लिए एकएक जोड़ी सर्दी के हिसाब से खरीद लेंगे.
धनतेरस पर नया कुछ खरीदने के नाम पर छोटामोटा बरतन ले लेंगे ताकि रिवाज कायम रहे. इन दिनों बाजारों में इतनी भीड़ उमड़ती है कि पांव रखने की जगह भी नहीं मिलती. दिल बहलाने के लिए ऐसे कई खयाल मौजूद हैं.
कटौती और समझोतों के आदी हो चले लोग, जिसे बेबसी कहना ज्यादा बेहतर होगा, बड़े खर्चों के भार से भी दबे हैं. इन हजारसौ रुपयों के खर्च खींचतान कर पूरे करने के बाद मकान, कार और ज्वैलरी की सोचें जिन के इश्तिहारों में ही दीवाली की रौनक बची है और इसी के दम पर कहने वाले चैलेंज सा दे रहे हैं कि कौन कहता है कि महंगाई है. यह तो सरकार को बदनाम करने की साजिश है वरना देखिए बाजारों की रौनक, चारों तरफ हर जगह लोग खरीदारी के लिए टूटे पड़ रहे हैं.
कारों के लिए महीनों वेटिंग क्लियर होने का इंतजार लोग कर रहे हैं. इस दीवाली कारों की 3 लाख यूनिट ज्यादा बिकीं. रियल एस्टेट जो पिछली दीवाली इतने लाख करोड़ का था वह बढ़ कर इतने लाख करोड़ रुपए का हो गया है. रियल एस्टेट में ऐसा बूम पहले कभी देखने में नहीं आया.
सराफा में भी आग लगी हुई है. लोग रिकौर्ड गहने खरीद रहे हैं. सोना के 60 हजार रुपए प्रति 10 ग्राम से भी ऊपर होने का भी कोई असर खरीदी और खरीदारों पर नहीं हुआ है. इलैक्ट्रौनिक्स मार्केट के तो कहने क्या, पिछले 10 वर्षों का रिकौर्ड टूट गया.
इन खबरों और दलीलों से तार्किक रूप से असहमत होने के लिए बहुत अंदर तक ?ांकने की जरूरत है कि महंगाई तो उम्मीद से ज्यादा बढ़ी है लेकिन दीवाली पर उस का असर अगर नहीं दिख रहा तो, दरअसल, लोग उसे देखने से कतरा रहे हैं. इस के लिए लोग खुद के ही बजट पर गौर नहीं कर रहे जो बहुत छोटा हो गया है. दीवाली लोग किफायत से मना रहे हैं और खर्च फूंकफूंक कर रहे हैं. इस के लिए उन्होंने अपनी खुद की कितनी जरूरतों की हत्या की है, यह वे ही जानते हैं.
हकीकत यह है
मशहूर इंटरनैश्नल डेटा एनलिस्टिक फर्म युगाव, जो बीते 3 वर्षों से भारतीयों के दीवाली खर्च के तौरतरीकों पर भी नजर रखे हुए है, की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल शहरी लोग गैरजरूरी खर्च को ले कर सतर्क हैं, यानी कम खर्च में दीवाली मना रहे हैं. जाहिर है ऐसा सिर्फ महंगाई के चलते हो रहा है नहीं तो दीवाली पर जरूरी और गैरजरूरी खर्च के बीच सीमारेखा खींचने की पहले कभी नौबत ही नहीं आई. युगाव के दीवाली खर्च सूचकांक में 52 फीसदी भारतीयों ने माना कि ज्यादा नहीं बल्कि पिछले 3 महीनों जुलाई से ले कर सितंबर तक महंगाई की वजह से हर महीने खर्च बढ़ा है जिसे पूरा करना ही चैलेंज हो गया है.
इस महंगाई से जीवनयापन की लागत में बढ़ोतरी हुई है. 32 फीसदी शहरियों ने बढ़े खर्चों को रोकने का फैसला लिया है या फिर उन्हें रद कर दिया है. वे खर्च में 31 फीसदी कटौती कर रहे हैं. सिर्फ 17 फीसदी लोग ही बचत के पैसों का इस्तेमाल इस दीवाली कर रहे हैं, बाकियों ने स्थिति को संभालने के लिए कर्ज या उधार लिया है.
हालांकि, रिपोर्ट यह भी कहती है कि बीते साल के मुकाबले लोगों की आमदनी और बचत में सुधार हुआ है और लोग सर्वाइव करने के खर्च से लड़ने की कोशिश कर रहे हैं. इस बात को स्पष्ट करते युगाव इंडिया की महाप्रबंधक दीपा भाटिया कहती हैं, ‘‘आंकड़े बता रहे हैं कि इस फैस्टिव सीजन में लोगों के खर्च करने के तरीके में बदलाव देखा जा सकता है.’’
जाहिर है, अधिकतर लोगों, जिन के पास बचत लायक भी आमदनी नहीं, ने महंगाई की मार का रोना रोया है और यह भी जताया है कि वे कम खर्च में दीवाली मना कर संतुष्ट या खुश हो लेंगे लेकिन कर्ज और उधारी ले कर महंगाई से जीतने का सपना देखने वालों की तादाद भी कम नहीं है.
महंगाई पर कर्ज की चादर
युगाव के अपनी रिपोर्ट पेश करने के साथ ही देश के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ इंडिया ने अपनी एक रिसर्च में दिलचस्प लेकिन चिंतनीय आंकड़े दिए थे जो एक तरह से सिर्फ इतना बताते हैं कि महंगाई का मजार कर्ज के चादर से ढका हुआ है. इस रिसर्च का निचोड़ कम से कम शब्दों में बयां करें तो वह यह है कि लोगों की बचत का बड़ा हिस्सा महंगाई से लड़ने में खर्च हो रहा है. बढ़ती महंगाई से लोगों के पास बचत के पैसे खत्म हो रहे हैं और उन पर कर्ज का बो?ा दोगुना हो चुका है.
इस रिसर्च के मुताबिक, लोगों की बचत वित्त वर्ष 2023 में जीडीपी के 5 फीसदी के करीब रह गई है जो पहले 10 फीसदी थी. आंकड़ों में इस स्थिति को देखें तो लोगों पर पहले के मुकाबले 8.5 लाख करोड़ रुपए का कर्ज बढ़ गया है. लोगों की बचत घट कर 55 फीसदी पर आ गई है. उलट इस के, उन पर वित्त वर्ष 2021 की तुलना में कर्ज बढ़ कर 15.6 लाख करोड़ रुपए हो गया है.
कम ब्याज दरों के चलते लोग रियल एस्टेट में ज्यादा पैसा लगा रहे हैं. यानी, इस दीवाली बाजार कर्ज की लक्ष्मी से गुलजार हैं और जो पैसा रियल एस्टेट में लग रहा है वह न तो निवेश है और न ही बचत उसे कहा जा सकता. यह एक तरह का सेविंग या रिकरिंग डिपौजिट अकाउंट ही है जिस में ब्याज मिलता नहीं, बल्कि देना पड़ता है.
इसे इस उदाहरण से सम?ाना बेहतर होगा कि अगर कोई 40 लाख रुपए का मकान बैंक से कर्ज ले कर खरीदता है तो 10-12 साल में कुल 65 लाख बैंक को चुकाता है, यानी, 25 लाख रुपए के लगभग ब्याज देता है. इसे भी और आसान शब्दों में सम?ों तो निष्कर्ष यह निकलता है कि बिना बढ़ा लोन लिए आप सेविंग भी नहीं कर सकते. 40 लाख की ईएमआई 40 हजार रुपए महीना आती है जिसे 80 हजार से ऊपर की आमदनी वाला चुकाए तो उस के पास 40 हजार रुपए ही घर और दीगर खर्चों के लिए बचते हैं वह भी उस सूरत में जब उस ने कार लोन या दूसरा कोई कर्ज न ले रखा हो. ये बचे 40 हजार रुपए भी चार दिनों में ही अपने जाने का रास्ता बना चुके होते हैं. बाकी 26 दिन जैसेतैसे कट जाते हैं.
अब दीवाली पर महंगाई इसीलिए महसूस नहीं होती कि लोगों के पास त्योहार मनाने लायक पैसा बच जाता है पर वह कंगाल होने की शर्त तक जोखिमभरा है. जैसेजैसे महंगाई बढ़ती है वैसेवैसे लोगों का आर्थिक दायरा कम होता जाता है. एक काबिलेगौर बात यह भी है कि अब शहरी परिवारों में कमाने वालों की तादाद बढ़ रही है, इसलिए भी महंगाई उन पर कोई खास असर नहीं डाल पाती. गांवदेहातों में तो शुरू से ही दीवाली का मतलब मिट्टी के दीये जलाना और मिठाई खाना रहा है. हालात कुछ खास नहीं बदले हैं. गरीबी वहां ज्यों की त्यों है. कुछ ट्रैक्टर और 60 फीसदी देहातियों के हाथ में स्मार्टफोन का होना उन के अमीर होने की निशानी नहीं है बल्कि ये जरूरत की चीजें हैं.
सरकार है जिम्मेदार
तंग होते आर्थिक दायरे का बड़ा सच यह है कि प्रति व्यक्ति औसत आय के मामले में भारत दुनिया के 197 देशों में 142वें नंबर पर है. कहने को तो नरेंद्र मोदी सरकार यह दम भरती है कि उस के अब तक के कार्यकाल की एक बड़ी उपलब्धि प्रति व्यक्ति औसत आय दोगुनी हुई है और हम दुनिया की 5वीं बढ़ी अर्थव्यवस्था से और छलांग लगाते 2030 में जापान को पछाड़ कर तीसरे नंबर पर आ जाएंगे, लेकिन सरकार यह नहीं बताती कि उस की ढुलमुल और अस्पष्ट आर्थिक नीतियों के चलते यह सब्जबाग नहीं तो और क्या है.
दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में सब से कम प्रति व्यक्ति आमदनी भारतीयों की ही क्यों है, इस सवाल को आंकड़ों की बाजीगरी और लच्छेदार धार्मिक भाषणों के मकड़जाल में उलझ दिया जाता है. अमेरिका की प्रति व्यक्ति औसत आय 80,035 डौलर है जो भारतीयों से 31 गुना ज्यादा है. भारतीयों की सालाना औसत आमदनी 2,601 डौलर है. जिस जापान को पछाड़ने का दावा किया जा रहा है उस की प्रति व्यक्ति औसत आय 14 गुना ज्यादा है. इसी तरह कनाडा, फ्रांस और जरमनी के सामने भी भारत कहीं नहीं ठहरता.
ये तो बेहद मजबूत और संपन्न देश हैं. हैरानी और अफसोस तो यह जान कर होता है कि अंगोला जैसे गरीब सम?ो जाने वाले देश की प्रतिव्यक्ति आय भारत से ज्यादा 3,205 डौलर है. वनातु, आइवरी कोस्ट और साओ टोम प्रिंसिपे जैसे छोटे और गुमनाम देशों से भी हम काफी पिछड़े हुए हैं. किस दौड़ में शामिल होने, जीतने और विश्वगुरु बनने का दावा सरकार करती है, यह बात सिरे से ही सम?ा से परे है.
ऐसा नहीं है कि सरकार महंगाई को ले कर बिलकुल ही कुंभकर्णी नींद में हो बल्कि कभीकभी वह इस का जिक्र करती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले से दिए 15 अगस्त के भाषण में इसे शामिल किया था कि यह तो ग्लोबल समस्या है, हम इसे कम करने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन काबू होने के बजाय महंगाई और बेकाबू हो गई तो लगता है कि मोदी सरकार महंगाई के मोरचे पर भी विफल रही है. सफल तो वह कर्मकांडों और मंदिर बनवाने में ही रही है.
दरअसल, महंगाई हवा की तरह है जो दिखती नहीं लेकिन महसूस लगातार होती है. दीवाली की गुलाबी होती सर्दी में तो यह कांटों की तरह चुभने लगी है. लेकिन लोग बाद दीवाली इस चुभन को भूल जाएंगे, जबकि आमजनों को सरकार से सवाल करना चाहिए कि वह महंगाई की बाबत अपना रुख और नियत साफ करे क्योंकि इस के लिए जिम्मेदार तो आखिरकार वही होती है. किसानों, व्यापारियों और कर्मचारियों के सिर इस का ठीकरा नहीं फोड़ा जा सकता. हां, चंद पूंजीपतियों की मोटी होती तिजोरियों पर जरूर हसरतभरी निगाह डाली जा सकती है जिन के यहां धन की देवी बांदी सी पड़ी है.