‘बेचारी कामना’, जैसे ही कामना वाशबेसिन की ओर गई, मधु बनावटी दुख भरे स्वर में बोली. दोपहर के भोजन के लिए समीर, विनय, अरुण, राधा आदि भी वहीं बैठे थे.

‘‘क्यों, क्या हुआ?’’ समीर, विनय या अरुण में से किस ने प्रश्न किया, कामना यह अंदाजा नहीं लगा पाई. मधु सोच रही थी कि उस का स्वर कामना तक नहीं पहुंच रहा था या यह जानबूझ कर ही उसे सुनाना चाहती थी.

‘‘आज फिर वर पक्ष वाले उसे देखने आ रहे हैं,’’ मधु ने बताया.

‘‘तो इस में ‘बेचारी’ वाली क्या बात है?’’ प्रश्न फिर पूछा गया.

‘‘तुम नहीं समझोगे. 2 छोटे भाई और 2 छोटी बहनें और हैं. कामना के पिता पिछले 4 वर्षों से बिस्तर पर हैं…यही अकेली कमाने वाली है.’’

‘‘फिर यह वर पक्ष का झंझट क्यों?’’

‘‘मित्र और संबंधी कटाक्ष करते हैं तो इस की मां को बुरा लगता है. उन का मुंह बंद करने के लिए यह तामझाम किया जाता है.

‘‘इन की तमाम शर्तों के बावजूद यदि लड़के वाले ‘हां’ कर दें तो?’’

‘‘तो ये लोग मना कर देंगे कि लड़की को लड़का पसंद नहीं है,’’ मधु उपहास भरे स्वर में बोली.

‘‘उफ्फ बेचारी,’’ एक स्वर उभरा.

‘‘ऐसे मातापिता भी होते हैं?’’ दूसरा स्वर सुनाई दिया.

कामना और अधिक न सुन सकी. आंखों में भर आए आंसू पोंछने के लिए मुंह धोया. तरोताजा हुई और पुन: उसी कक्ष में जा बैठी. उसे देखते ही उस की चर्चा को पूर्णविराम लग गया.

कामना सोचने लगी कि इन सब को अपने संबंध में चर्चा करने का अवसर भी तो उस ने ही दिया था. यदि उस के मन की कटुता मधु के सामने बह न निकली होती तो उसे कैसे पता चलता. मधु को दोष देने से भी क्या लाभ? जब वह स्वयं बात अपने तक सीमित न रख सकी तो मधु से ही ऐसी आशा क्यों?

भोजन का समय समाप्त होते ही कामना अपने स्थान पर जा बैठी. पर कार्य निबटाते हुए भी मन का अनमना भाव वैसे  ही बना रहा.

कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अचानक परिचित स्वर सुनाई दिया, ‘‘आज आप के बारे में जान कर दुख हुआ.’’

चौंक कर वह पलटी तो देखा, अरुण खड़ा था.

‘‘जी?’’ कामना ने क्रोध भरी नजरों से अरुण की ओर देखा.

‘‘मधु बता रही थी कि आप के पिताजी बहुत बीमार हैं, इसलिए घर का सारा भार आप के ही कंधों पर है,’’ अरुण बोला.

‘‘जी, हां,’’ कामना ने नजरें झुका लीं.

‘‘क्या बीमारी है आप के पिताजी को?’’

‘‘पक्षाघात.’’

‘‘अरे…’’ अरुण ने सहानुभूति दिखाई तो कामना का मन हुआ कि धरती फट जाए और वह उस में समा जाए.

‘‘क्या कहा डाक्टर ने?’’ कामना अपने ही विचारों में खोई थी कि अरुण ने फिर पूछा.

‘‘जी…यही कि अपना दुखड़ा कभी किसी के सामने नहीं रोना चाहिए, नहीं तो व्यक्ति उपहास का पात्र बन जाता है,’’ कामना गुस्से से बोली.

‘‘शायद आप को बुरा लगा… विश्वास कीजिए, आप को चोट पहुंचाने का मेरा कोई इरादा नहीं था. कभीकभी दुख बांट लेने से मन हलका हो जाता है,’’ कहता हुआ अरुण अपनी बस को आते देख कर उस ओर बढ़ गया.

कामना घर पहुंची तो पड़ोस की रम्मो चाची बैठी हुई थीं.

‘‘अब तुम से क्या छिपाना, रम्मो. कामना की बात कहीं बन जाए तो हम भी बेफिक्र हो जाएं. फिर रचना का भी तो सोचना है,’’ कामना की मां उसे और रम्मो चाची को चाय का प्याला पकड़ाते हुए बोलीं.

‘‘समय आने पर सब ठीक हो जाएगा. यों व्यर्थ ही परेशान नहीं होते, सुमन,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘घबराऊं नहीं तो क्या करूं? न जाने क्यों, कहीं बात ही नहीं बनती. लोग कहते हैं कि हम कमाऊ बेटी का विवाह नहीं करना चाहते.’’

‘‘क्या कह रही हो, सुमन. कौन कह रहा था? हम क्या जानते नहीं कि तुम कामना के लिए कितनी परेशान रहती हो…आखिर उस की मां हो,’’ रम्मो चाची बोलीं.

‘‘वही नुक्कड़ वाली सरोज सब से कहती घूमती है कि हम कामना का विवाह इसलिए नहीं करना चाहते कि उस के विवाह के बाद हमारे घर का खर्च कैसे चलेगा और लोग भी तरहतरह की बातें बनाते हैं. इस बार कामना का विवाह तय हो जाए तो बातें बनाने वालों को भी मुंहतोड़ जवाब मिल जाए.’’

कहने को तो सुमन कह गईं, किंतु बात की सचाई से उन का स्वर स्वयं ही कांप गया.

‘‘यों जी छोटा नहीं करते, सुमन. सब ठीक हो जाएगा.’’

तभी कामना का छोटा भाई आ गया और रम्मो चाची उठ कर चली गईं.

सुमन कुछ देर तक तो पुत्र द्वारा लाई गई मिठाई, नमकीन आदि संभालती रहीं कि तभी उन का ध्यान गुमसुम कामना की ओर गया, ‘‘क्या है, कामना? स्वप्न देख रही हो क्या? सामने रखी चाय भी ठंडी हो गई.’’

‘‘स्वप्न नहीं, यथार्थ देख रही हूं, मां. वह कड़वा यथार्थ जो न चाहने पर भी बारबार मेरे सम्मुख आ खड़ा होता है,’’ कामना दार्शनिक अंदाज में बोली.

‘‘पहेलियां तो बुझाओ मत. क्या बात है, यह बताओ. बैंक में किसी से झगड़ा कर के आई हो क्या?’’

‘‘लो और सुनो. मैं और झगड़ा? घर में अपने विरुद्ध हो रहे अत्याचार सहन करते हुए भी जब मेरे मुंह से आवाज नहीं निकलती तो भला मैं घर से बाहर झगड़ा करूंगी? कैसी हास्यास्पद बात है यह,’’ कामना का चेहरा तमतमा गया.

‘‘क्या कह रही हो? कौन अत्याचार करता है तुम पर? तुम स्वयं कमाने वाली, तुम ही खर्च करने वाली,’’ सुमन भी क्रोधित हो उठीं.

‘‘क्या कह रही हो मां. मैं तो पूरा वेतन ला कर तुम्हारे हाथ पर रख देती हूं. इस पर भी इतना बड़ा आरोप.’’

‘‘तो कौन सा एहसान करती हो, पालपोस कर बड़ा नहीं किया क्या? हम नहीं पढ़ातेलिखाते तो कहीं 100 रुपए की नौकरी नहीं मिलती. इसे तुम अत्याचार कह रही हो? यही तो अंतर होता है बेटे और बेटी में. बेटा परिवार की सहायता करता है तो अपना कर्तव्य समझ कर, भार समझ कर नहीं.’’

‘‘आप बेकार में बिगड़ रही हैं…मैं तो उस तमाशे की बात कर रही थी जिस की व्यवस्था हर तीसरे दिन आप कर लेती हैं,’’ कामना ने मां की ओर देखा.

‘‘कौन सा तमाशा?’’

‘‘यही तथाकथित वर पक्ष को बुला कर मेरी प्रदर्शनी लगाने का.’’

‘‘प्रदर्शनी लगाने का? शर्म नहीं आती…हम तो इतना प्रयत्न कर रहे हैं कि तुम्हारे हाथ पीले हो जाएं और तुम्हारे दूसरे भाईबहनों की बारी आए,’’ सुमन गुस्से से बोलीं.

‘‘मां, रहने दो…दिखावा करने की आवश्यकता नहीं है. मैं क्या नहीं जानती कि मेरे बिना मेरे छोटे भाईबहनों की देखभाल कौन करेगा?’’

‘‘हाय, हम पर इतना बड़ा आरोप? जब हमारी बेटी ही ऐसा कह रही है तो मित्र व संबंधी क्यों चुप रहेंगे,’’ सुमन रोंआसी हो उठीं.

‘‘मित्रों और संबंधियों के डर से इतना तामझाम? यह जीवन हमारा है या उन का…हम इसे अपनी सुविधानुसार जिएंगे. वे कौन होते हैं बीच में बोलने वाले? मैं तुम्हारा कष्ट समझती हूं, मां. जब तुम वर पक्ष के समक्ष ऐसी असंभव शर्तें रख देती हो, जिन्हें हमारा पुरुष समाज शायद ही कभी स्वीकार कर पाए तो क्या तुम्हारे चेहरे पर आई पीड़ा की रेखाएं मैं नहीं देख पाती,’’ मां के रिसते घावों पर अपने शब्दों का मरहम लगाती कामना ने पास आ कर उन के कंधे पर हाथ रख दिया.

‘‘तेरे पिताजी बीमार न होते तो ये दिन क्यों देखने पड़ते कामना. पर मेरा विश्वास कर बेटी, अपने स्वार्थ के लिए मैं तेरा भविष्य दांव पर नहीं लगने दूंगी.’’

‘‘नहीं मां. तुम सब को इस हाल में छोड़ कर मैं विवाह कर के क्या स्वयं को कभी माफ कर पाऊंगी? फिर पिताजी की बीमारी का दुख अकेले आप का नहीं, हम सब का है. इस संकट का सामना भी हम मिलजुल कर ही करेंगे.’’

‘‘सुनो कामना, कल जो लोग तुम्हें देखने आ रहे हैं, तुम्हारी रोमा बूआ के संबंधी हैं. हम ने मना किया तो नाराज हो जाएंगे. साथ ही तुम्हारी बूआ भी आ रही हैं, वे भी नाराज हो जाएंगी.’’

‘‘किंतु मना तो करना ही होगा, मां. रोमा बूआ नाराज हों या कोई और. मैं इस समय विवाह की बात सोच भी नहीं सकती,’’ कामना ने अपना निर्णय सुना दिया.

‘‘मैं अभी जीवित हूं. माना कि बिस्तर से लगा हूं, पर इस का तात्पर्य यह तो नहीं कि सब अपनी मनमानी करने लगें.’’

कामना के पिता बिस्तर पर ही चीखने लगे तो पूरा परिवार उन के पास एकत्र हो गया.

‘‘रोमा ने बहुत नाराजगी के साथ पत्र लिखा है कि सभी संबंधी यही ताने दे रहे हैं कि कामना की कमाई के लालच में हम इस का विवाह नहीं कर रहे और मैं सोचता हूं कि अपनी संतान के भविष्य के संबंध में निर्णय लेने का हक मुझे भी है,’’ कामना के पिता ने अपना पक्ष स्पष्ट किया.

‘‘मैं केवल एक स्पष्टीकरण चाहती हूं, पिताजी. मेरे विवाह के बाद घर कैसे चलेगा? क्या आप की चिकित्सा बंद हो जाएगी? संदीप, प्रदीप, मोना, रचना क्या पढ़ाई छोड़ कर घर बैठ जाएंगे?’’ कामना ने तीखे स्वर में प्रश्न किया.

‘‘मेरे स्वस्थ होने की आशा नहीं के बराबर है, अत: मेरी चिकित्सा के भारी खर्चे को बंद करना ही पड़ेगा. सच पूछो तो हमारी दुर्दशा बीमारी पर अनापशनाप खर्च करने से ही हुई है. संदीप 1 वर्ष में स्नातक हो जाएगा. फिर उसे कहीं न कहीं नौकरी मिल ही जाएगी. प्रदीप की पढ़ाई भी किसी प्रकार चलती रहेगी. मोना, रचना का देखा जाएगा,’’ कामना के पिता ने भविष्य का पूरा खाका खींच दिया.

‘‘यह संभव नहीं है, पिताजी. आप ने मुझे पढ़ायालिखाया, कदमकदम पर सहारा दिया, क्या इसीलिए कि आवश्यकता पड़ने पर मैं आप सब को बेसहारा छोड़ दूं?’’ कामना ने पुन: प्रश्न किया.

‘‘तुम बहुत बोलने लगी हो, कामना. तुम ही तो अब इस परिवार की कमाऊ सदस्य हो. मैं भला कौन होता हूं तुम्हें आज्ञा देने वाला.’’

कामना, पिता का दयनीय स्वर सुन कर स्तब्ध रह गई.

सुमन भी फूटफूट कर रोने लगी थीं.

‘‘बंद करो यह रोनाधोना और मुझे अकेला छोड़ दो,’’ कामना के पिता अपना संयम खो बैठे.

सभी उन्हें अकेला छोड़ कर चले गए पर कामना वहीं खड़ी रही.

‘‘अब क्या चाहती हो तुम?’’ पिता ने प्रश्न किया.

‘‘पिताजी, आप को क्या होता जा रहा है? किस ने कह दिया कि आप ठीक नहीं हो सकते. ऐसी बात कर के तो आप पूरे परिवार का मनोबल तोड़ देते हैं. डाक्टर कह रहे थे कि आप को ठीक होने के लिए दवा से अधिक आत्मबल की आवश्यकता है.’’

‘‘तुम्हारा तात्पर्य है कि मैं ठीक होना ही नहीं चाहता.’’

‘‘नहीं. पर आप के मन में दृढ़- विश्वास होना चाहिए कि आप एक दिन पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे,’’ कामना बोली.

‘‘अभी हमारे सामने मुख्य समस्या कल आने वाले अतिथियों की है. मैं नहीं चाहता कि तुम उन के सामने कोई तमाशा करो,’’ पिता बोले.

‘‘इस के बारे में कल सोचेंगे. अभी आप आराम कीजिए,’’ कामना बात को वहीं समाप्त कर बाहर निकल गई.

दूसरे दिन सुबह ही रोमा बूआ आते ही सुमन से बोलीं, ‘‘क्या कह रही हो भाभी, कितना अच्छा घरवर है, फिर 3-3 बेटियां हैं तुम्हारी और भैया बीमार हैं… कब तक इन्हें घर बिठाए रखोगी,’’ वे तो सुमन से यह सुनते ही भड़क गईं कि कामना विवाह के लिए तैयार नहीं है.

‘‘बूआ, आप परिस्थिति की गंभीरता को समझने का यत्न क्यों नहीं करतीं. मैं विवाह कर के घर बसा लूं और यहां सब को भूल जाऊं, यह संभव नहीं है,’’ उत्तर सुमन ने नहीं, कामना ने दिया.

‘‘तुम लोग तो मुझे नीचा दिखाने में ही लगे हो…मैं तो अपना समझ कर सहायता करना चाहती थी. पर तुम लोग मुझे ही भलाबुरा कहने लगे.’’

‘‘नाराज मत हो दीदी, कामना को दुनियादारी की समझ कहां है. अब तो सब कुछ आप के ही हाथ में है,’’ सुमन बोलीं.

कुछ देर चुप्पी छाई रही.

‘‘एक बात कहूं, भाभी,’’ रोमा बोलीं.

‘‘क्या?’’

‘‘क्यों न कामना के स्थान पर रचना का विवाह कर दिया जाए. उन लोगों को तो रचना ही अधिक पसंद है. लड़के ने किसी विवाह में उसे देखा था.’’

‘‘क्या कह रही हो दीदी, छोटी का विवाह हो गया तो कामना तो जीवन भर अविवाहित रह जाएगी.’’

सुमन की बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि रचना बीच में बोल उठी, ‘‘मुझे क्या आप लोगों ने गुडि़या समझ लिया है कि जब चाहें जिस के साथ विवाह कर दें? दीदी 5 वर्ष से नौकरी कर रही हैं…मुझ से बड़ी हैं. उन्हें छोड़ कर मेरा विवाह करने की बात आप के मन में आई कैसे…’’

‘‘अधिक बढ़चढ़ कर बात करने की आवश्यकता नहीं है,’’ रोमा ने झिड़का, ‘‘बोलती तो ऐसे हो मानो लड़के वाले तैयार हैं और केवल तुम्हारी स्वीकृति की आवश्यकता है. इतना अच्छा घरवर है… बड़ी मुश्किल से तो उन्हें कामना को देखने के लिए मनाया था. मैं ने सोचा था कि कामना की अच्छी नौकरी देख कर शायद तैयार हो जाएं पर यहां तो दूसरा ही तमाशा हो रहा है. लेनदेन की बात तो छोड़ो, स्तर का विवाह करने में कुछ न कुछ खर्च तो होगा ही,’’ रोमा बूआ क्रोधित स्वर में बोलीं.

‘‘आप लोग क्यों इतने चिंतित हैं? माना कि पिताजी अस्वस्थ हैं पर अब हम लोग कोई छोटे बच्चे तो रहे नहीं. मेरा एम.ए. का अंतिम वर्ष है. मैं ने तो एक स्थान पर नौकरी की बात भी कर ली है. बैंक की परीक्षा का परिणाम भी आना है. शायद उस में सफलता मिल जाए,’’ रचना बोली.

‘‘मैं रचना से पूरी तरह सहमत हूं. इतने वर्षों से दीदी हमें सहारा दे रही हैं. मैं भी कहीं काम कर सकता हूं. पढ़ाई करते हुए भी घर के खर्च में कुछ योगदान दे सकता हूं,’’ संदीप बोला.

‘‘कहनेसुनने में ये आदर्शवादी बातें बहुत अच्छी लगती हैं पर वास्तविकता का सामना होने पर सारा उत्साह कपूर की तरह उड़ जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘वह सब तो ठीक है भाभी पर कब तक कामना को घर बिठाए रखोगी? 2 वर्ष बाद पूरे 30 की हो जाएगी. फिर कहां ढूंढ़ोगी उस के लिए वर,’’ रोमा बोलीं.

‘‘यदि वर पक्ष वाले तैयार हों तो चाहे हमें कितनी भी परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े, कामना का विवाह कर देंगे,’’ कामना के पिता बोले.

किंतु पिता और रोमा के समस्त प्रयासों के बावजूद वर पक्ष वाले नहीं माने. पता नहीं कामना के पिता की बीमारी ने उन्हें हतोत्साहित किया या परिवार की जर्जर आर्थिक स्थिति और कामना की बढ़ती आयु ने, पर उन के जाने के बाद पूरा परिवार दुख के सागर में डूब गया.

‘‘इस में भला इतना परेशान होने की क्या बात है? अपनी कामना के लिए क्या लड़कों की कमी है? मैं जल्दी ही आप को सूचित करूंगी,’’ जातेजाते रोमा ने वातावरण को हलका बनाने का प्रयत्न किया था. किंतु उदासी की चादर का साया वह परिवार के ऊपर से हटाने में सफल न हो सकीं.

एक दिन कामना बस की प्रतीक्षा कर रही थी कि अरुण ने उसे चौंका दिया, ‘‘कहिए कामनाजी, क्या हालचाल हैं? बड़ी थकीथकी लग रही हैं. मुझे आप से बड़ी सहानुभूति है. छोटी सी आयु में परिवार का सारा बोझ किस साहस से आप अपने कंधों पर उठा रही हैं.’’

‘‘मैं पूरी तरह से संतुष्ट हूं, अपने जीवन से और मुझे आप की सहानुभूति या सहायता की आवश्यकता नहीं है. आशा है, आप ‘बेचारी’ कहने का लोभ संवरण कर पाएंगे,’’ कामना का इतने दिनों से दबा क्रोध एकाएक फूट पड़ा.

‘‘आप गलत समझीं कामनाजी, मैं तो आप का सब से बड़ा प्रशंसक हूं. कितने लोग हैं जो परिवार के हित को अपने हित से बड़ा समझते हैं. चलिए, एकएक शीतल पेय हो जाए,’’ अरुण ने मुसकराते हुए सामने के रेस्तरां की ओर इशारा किया.

‘‘आज नहीं, फिर कभी,’’ कामना ने टालने के लिए कहा और सामने से आती बस में चढ़ गई.

तीसरे ही दिन फिर अरुण बस स्टाप पर कामना के पास खड़ा था, ‘‘आशा है, आज तो मेरा निमंत्रण अवश्य स्वीकार करेंगी.’’

‘‘आप तो मोटरसाइकिल पर बैंक आते हैं, फिर यहां क्या कर रहे हैं?’’ कामना के अप्रत्याशित प्रश्न पर वह चौंक गया.

‘‘चलिए, आप को भी मोटर- साइकिल पर ले चलता हूं. खूब घूमेंगे- फिरेंगे,’’ अरुण ने तुरंत ही स्वयं को संभाल लिया.

‘‘देखिए, मैं ऐसीवैसी लड़की नहीं हूं. शायद आप को गलतफहमी हुई है. आप मेरा पीछा क्यों नहीं छोड़ देते,’’ कामना दयनीय स्वर में बोली.

‘‘मैं क्या आप को ऐसावैसा लगता हूं? जिन परिस्थितियों से आप गुजर रही हैं उन्हीं से कभी हमारा परिवार भी गुजरा था. आप की आंखों की बेबसी कभी मैं ने अपनी बड़ी बहन की आंखों में देखी थी.’’

‘‘मैं किसी बेबसी का शिकार नहीं हूं. मैं अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट हूं. मेरी दशा पर तरस खाने की आप को कोई आवश्यकता नहीं है,’’ कामना तीखे स्वर में बोली.

‘‘ठीक है, पर इस में इतना क्रोधित होने की क्या बात है? चलो, शीतल पेय पीते हैं. तेज गरमी में दिमाग को कुछ तो ठंडक मिलेगी,’’ अरुण शांत स्वर में बोला तो अपने उग्र स्वभाव पर मन ही मन लज्जित होती कामना उस के साथ चल पड़ी.

इस घटना को एक सप्ताह भी नहीं बीता था कि एक शाम कामना के घर के द्वार की घंटी बजी.

‘‘कहिए?’’ कामना के छोटे भाई ने द्वार खोलते ही प्रश्न किया.

‘‘मैं अरुण हूं. कामनाजी का सहयोगी और यह मेरी बड़ी बहन, स्थानीय कालेज में व्याख्याता हैं,’’ आगंतुकों में से एक ने अपना परिचय दिया.

संदीप उन्हें अंदर ले आया. फिर कामना के पास जा कर बोला, ‘‘दीदी, आप के किसी सहयोगी का नाम अरुण है क्या?’’

‘‘क्यों, क्या बात है?’’ अरुण का नाम सुनते ही कामना घबरा गई.

‘‘पता नहीं, वे अपनी बहन के साथ आए हैं. पर आप इस तरह घबरा क्यों गईं.’’

‘‘घबराई नहीं. मैं डर गई थी. मां को इस तरह किसी का आनाजाना पसंद नहीं है न, इसीलिए. तुम चलो, मैं आती हूं.’’

‘‘मैं किन शब्दों में आप को धन्यवाद दूं, आप ने मुझे कितनी बड़ी चिंता से मुक्ति दिलवा दी है,’’ कामना बैठक में पहुंची तो उस के पिता अरुण व उस की बहन से कह रहे थे.

‘‘विवाह के बाद भी कामना अपने परिवार की सहायता कर सकती है. हमें इस में कोई आपत्ति नहीं होगी,’’ अरुण की बहन बोलीं.

‘‘क्यों शर्मिंदा करती हैं आप. अब कामना के छोटे भाईबहनों की पढ़ाई भी समाप्त होने वाली है, सब ठीक हो जाएगा,’’ सुमन बोलीं.

‘‘अरे, कामना, आओ बेटी…देखो, अरुण और उन की बहन तुम्हारा हाथ मांगने आए हैं. मैं ने तो स्वीकृति भी दे दी है,’’ कामना को देखते ही उस के पिता मुसकराते हुए बोले.

कामना की निगाहें क्षणांश के लिए अरुण से मिलीं तो पहली बार उसे लगा कि नयनों की भी अपनी कोई भाषा होती है, उस ने निगाहें झुका लीं. विवाह की तिथि पक्की करने के लिए फिर मिलने का आश्वासन दे कर अरुण और उस की बहन ने विदा ली.

उन के जाते ही कामना पिता से बोली, ‘‘यह आप ने क्या किया? विवाह के पहले तो सभी मीठी बातें करते हैं किंतु विवाह के बाद उन्होंने मेरे वेतन को ले कर आपत्ति की तो मैं बड़ी कठिनाई में फंस जाऊंगी.’’

‘‘तुम भी निरी मूर्ख हो. इतना अच्छा वर, वह भी बिना दहेज के हमें कहां मिलेगा? फिर क्या तुम नहीं चाहतीं कि मैं ठीक हो जाऊं? तुम्हारे विवाह की बात सुनते ही मेरी आधी बीमारी जाती रही. देखो, कितनी देर से कुरसी पर बैठा हूं, फिर भी कमजोरी नहीं लग रही,’’ पिता ने समझाया.

‘‘तुम चिंता मत करो कामना. घर के पिछले 2 कमरे किराए पर उठा देंगे. फिर रचना भी तो नौकरी करने लगेगी. बस, तुम सदा सुखी रहो, यही हम सब चाहते हैं,’’ सुमन बोलीं. उन की आंखों में प्रसन्नता के आंसू झिलमिला रहे थे.

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