भारतीय जनता पार्टी अपनी पीठ बहुत जोर से थपथपा रही है कि उस ने पार्लियामैंट में महिला आरक्षण संशोधन कानून, जिस का नाम नारीशक्ति वंदना अधिनियम रखा है, संविधान के 128वें संशोधन के जरिए पास करा लिया है. यह काम भारतीय जनता पार्टी ने भारी दबाव में किया क्योंकि अब ‘इंडिया’ नाम से जानी जाने वाली विपक्षी पार्टियों की यह बड़ी मांग थी. भाजपा को लगता है कि इस लौलीपौप से कहीं कुछ वोट मिल जाएंगे.

यह संशोधन कब जमीनी हकीकत देखेगा, इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता. अगले वर्ष 2024 के आम चुनाव तो हरगिज इस के आधार पर नहीं होंगे. यही नहीं, 2029, 2034, 2039 के चुनाव भी इस आधार पर हो जाएं, तो बड़ी बात है. इस संशोधन को लागू करने के लिए हजारों पेचीदगियों का सामना करने पड़ेगा क्योंकि हर चुनाव क्षेत्र 3 बार में एक बार औरतों के लिए आरक्षित हो जाएगा पर अगली बार वह फिर जनरल यानी स्त्रीपुरुष दोनों के लिए होगा.

इस का अर्थ है कि कोई पुरुष नेता 2 बार से ज्यादा एक चुनावक्षेत्र में नहीं रह सकता. इसी तरह महिला आरक्षित क्षेत्र से आई नेता अगली बार आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाएगी. यह राजनीति का स्वरूप बदल देगा. राजनीतिक दल नारों से ज्यादा अपने चुनावी क्षेत्र की मिल्कीयत की चिंता करते हैं.

बड़ी बात तो यही है कि आखिर क्यों इस कानून को लाने की जरूरत पड़ी? क्यों नहीं देश ने अपनेआप 70 सालों में इतनी महिला राजनीतिज्ञ पैदा कर दीं कि वे अपनेआप राजनीति में कूद कर आगे आ जाएं ?

जो महिलाएं आज राजनीति में हैं उन में ममता बनर्जी को छोड़ कर कोई अपने बलबूते पर नहीं आई. 140 करोड़ की विशाल आबादी वाले देश की 70 करोड़ औरतें केवल एक दमदार औरत को नेता के रूप में स्थापित कर पाईं, यह अफसोस की बात है.

इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी नेहरू परिवार की सीढि़यां चढ़ कर आईं. निर्मला सीतारमण एक चुनाव भी अपने बल पर जीत लें तो बड़ी बात है. भाजपा ने पूर्व नेता सुषमा स्वराज को मक्खी की तरह निकाल फेंका था और अपनी अवहेलना से वे बीमार हो गई थीं. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की तो पूरी सरकार अवहेलना करने की हिम्मत रखती है. जयललिता कभी तमिलनाडु की सर्वेसर्वा थीं पर वे अभिनेता एम जी रामचंद्रन के कारण सामने आईं. मायावती कांशीराम की देन हैं और अब बिलकुल हाशिए पर हैं.

यह संशोधन उसी तरह का है जैसे हमारे यहां बीसियों देवियों को पूजा जाता है और उन से धन, सफलता मांगी जाती है पर उसी मांगने वाले परिवार में औरत का कोई स्पैशल वजूद नहीं है. दुर्गा की, माता की, काली की, सरस्वती की, पार्वती की, सैकड़ों गांवों की देवियों की पूजा करने का मतलब यह नहीं कि वे सक्षम हैं, बस, वे एक थोथी परंपरा की देन हैं. बहुत सी देवियां तो सिर्फ इसलिए पूजी जाती हैं कि वे संतान पैदा करने का वादा करती हैं.

इस संशोधन की जरूरत इसलिए पड़ी है कि औरतों को राजनीति में कोई स्थान नहीं मिल रहा. शैड्यूल्ड कास्ट व शैड्यूल्ड ट्राइब्स के लिए आरक्षित सीटों का अनुभव यह स्पष्ट करता है कि 70 सालों में उन सीटों से अपने दमखम वाला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं आ पाया है. नेता पति के कारण पंचायतों में बहुत सी औरतों को कुछ समय कागजों पर हस्ताक्षर करने का मौका मिल रहा है पर हस्ताक्षर कहां करने हैं, यह पंचायत में पति बताता है जबकि विधानसभाओं और संसद में आरक्षित सीटों वाले विधायकों व सांसदों को पार्टी बताती है.

इंदिरा गांधी से लोहा लेने वाली संजय गांधी की पत्नी मेनका गांधी भी आज भारतीय जनता पार्टी के एक कोने में पड़ी हैं क्योंकि वे न अपनी पार्टी खड़ी कर सकती हैं, न कांग्रेस में लौट सकती हैं और न भारतीय जनता पार्टी में अपना जोर दिखा सकती हैं. ऐसे में जब गांधी परिवार के नाम वाली 9 बार रही सांसद आज लगभग असहाय है तो क्या उम्मीद की जाए कि संशोधन के बाद कुछ बदलेगा?

रामायण, महाभारत, पुराणों की कहानियों में कहीं औरतों की विशेष स्थिति सजावटी औरतों की नहीं मिली. हां, गैर सनातनी शूर्पणखा जंगल में अकेले घूम सकती थी और महाभारत काल की हिडिंबा अकेले पांडवों को भगाने जा सकती थी. आज वे समाज कहां हैं, किन हालात में हैं, हम नहीं जानते पर यह जानते हैं कि पार्वती, सीता, द्रौपदी, अहल्या, कौशल्या, कैकेयी, उर्मिला, लक्ष्मी के बारे में पुराणों ने क्याक्या लिखा और आज की सनातनी औरतों का हाल भी उसी तरह का है.

यहां नारीशक्ति वंदना अधिनियम केवल एक स्तुति बन कर रह जाएगा जिस का भरपूर राजनीतिक उपयोग होगा यानी औरतें विशुद्ध रूप से राजनीति में आ न पाएंगी. सताई जा रहीं, भेदभाव की शिकार, रेप होतीं, पुरुष हिंसा की शिकार होतीं, दहेज की मारी आदि सभी औरतों का हाल वही रहेगा.

मुट्ठीभर औरतें, जो छोटे परिवारों के कारण आज परिवार का प्रबंधन सीख रही हैं, पढ़ रही हैं, योग्य बन रही हैं, अपने क्षेत्र में सफल होंगी लेकिन उन की गिनती पुरुषों से कहीं कम रहेगी. यह नया अधिनियम इसी बात की गारंटी कर रहा है, हालांकि, इस अधिनियम की जरूरत ही नहीं थी.

  • महिलाओं की संख्या विधानसभाओं और संसद में कभी 15 प्रतिशत से अधिक नहीं रही.
  • यूरोप के नौर्डिक देशों- स्वीडन, डैनमार्क, नौर्वे में सक्रिय राजनीति में 44.7  प्रतिशत महिलाएं हैं. पश्चिमी यूरोप में 35.2 प्रतिशत हैं. दक्षिणी यूरोप में 31.1 प्रतिशत हैं. ईस्टर्न यूरोप में 24.3 प्रतिशत हैं. इन देशों में कहीं भी आरक्षण नहीं है.
  • भारत के बड़े उद्योगों में सिर्फ 13 औरतों का दबदबा है जिन में से 6 उद्यमी हैं और 7 प्रोफैशनल व नौकरीपेशा.
  • दुनियाभर में आज 13 महिलाएं राष्ट्र की नेता हैं जिन में बंगलादेश की शेख हसीना (19 साल से) और इटली की जियोर्जिया मेलोनी जानेमाने देशों की हैं.
  • अमेरिका में सुप्रीम कोर्ट ने औरतों के गर्भपात अधिकार को वर्ष 2022 में एक फैसले के जरिए छीन लिया.
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...