पृथ्वीलोक पर राजनीतिक बहस के अमूमन 3 तीर्थस्थल माने गए हैं- चाय, पान और नाई की दुकानें. लेकिन हमारी राय में जहां भी 4 निठल्ले लोगों का जमावड़ा हो जाए, वही स्थान राजनीतिक बहसबाजी का तीर्थस्थल बन जाता है. आप ‘तीर्थस्थल’ की जगह ‘पर्यटन स्थल’ शब्द का भी प्रयोग कर सकते हैं क्योंकि अधिकांश तीर्थस्थल भक्तों की मेहरबानी से पर्यटन स्थल ही बन गए हैं.

एक बात तो तय है कि जो मजा राजनीतिक बहसबाजी में है, वह कहीं और नहीं. इसका प्रत्यक्ष प्रमाण संसद और विधानसभाएं हैं. राजनीतिक दंगल शुरू हुआ नहीं कि संभावनाओं के बादल अखबारों और टीवी चैनलों पर पहले से ही गरजनेबरसने शुरू हो जाते हैं.

दंगल शुरू होते ही देश की जनता टीवी के सामने ऐसे आंखें गड़ाकर बैठ जाती है जैसे ‘रामायण ‘ या ‘महाभारत’ का सीरियल शुरू हो गया हो. अब फिल्मी तर्ज पर ‘फ्लाइंग किस’ के दृश्य भी आप किसी थिएटर की जगह लोकतंत्र के पवित्र मंदिर यानी संसद भवन में देख सकते हैं. अपशब्दों की रिमझिम बारिश गुजरे जमाने की बात हो गई है, अब तो रोज नए शिगूफे हैं, आखिर हम हर क्षेत्र में ‘विकास’ जो कर रहे हैं.

एक रविवार की सुबह हम अपने बिस्तर पर कीचड़ में अलसाए से पड़े मगरमच्छ की तरह लेटे हुए थे, तभी लोकसभा के स्पीकर की तरह पत्नी ने फरमान सुना दिया, “आज की चाय तब तक स्थगित रहेगीजब तक आप सिर का मुंडन और हजामत नहीं करवा आते हो.”

अब कोई भी शादीशुदा आदमी बता सकता है कि इस फरमान को टालना कितना मुश्किल होता है.

हमने सोचा, चलो, आज सवेरे का अखबार सैलून पर ही पढ़ा जाए. वहां पहुंचे तो हमसे पहले 3 ग्राहक और लाइन में लगे थे. एक अखबार पढ़ने में व्यस्त और 2 मोबाइल में खोएहुए. हमने अखबार वाले अधेड़ आदमी की तरफ बड़ी उम्मीद के साथ देखा. वह आदमी हमारी भावनाओं को ताड़ गया और अखबार को हमारी ओर बढ़ाते हुए बड़े ही निराशाजनक अंदाज में बोला, “लीजिए, पढ़िए. कोई अच्छी खबर नहीं. देश का बेड़ागर्क हो गया. देश रसातल में चला गया.”

“अरे भाई, ऐसा क्यों कहते हो? देश में तो विकास की गंगा बह रही है,”” हमने उनकी नकारात्मकता को अपनी सकारात्मक सोच के तीर से काटना चाहा.

लेकिन उधर से सनसनाता हुआ तपाक से जवाब आया, “अंधभक्त लगते हो. सावन के अंधे को सब हरा ही हरा दिखाई देता है.”

“भाई, ऐसा क्यों कहते हो? सरकार के विरोधी लगते हो?” हमने खिसियाते हुए कहा.

“हां, हमें सरकार का विरोधी ही समझो. हम सच बात कहने की हिम्मत तो रखते हैं, हम आप जैसे अंधभक्त तो नहीं. जरा एक ढंग का काम तो बताओ जो तुम्हारी सरकार ने किया हो?” उन्होंने अपने मुंह से जहरबुझा बाण छोड़ा.

लेकिन हम भी कम नहीं थे. उस बाण की काट के लिए हमें भी अपने तरकश से आजमाए हुए सिद्ध बाण निकालने थे. आखिर अंधभक्त की लाज दांव पर लगी थी. सैलून वाला तो इस बहस को सुनकर गदगद था. उसे पता था कि यह बहस अब किसी भी कीमत पर रुकने वाली नहीं और ग्राहक बहस छोड़कर जाने वाले नहीं. वह अपने चेहरे पर मुसकान लिए अपने ग्राहक के बालों में यांत्रिक तरीके से उंगलियां चलाने लगा.

हम अपनी अंधभक्ति की लाज बचाते हुए और चेहरे पर विजयी मुसकान लाते हुए बड़े विश्वास के साथ बोले, “सरकार ने सबसे बड़ा काम राममंदिर बनवाने का किया है. क्या इसका जवाब है तुम्हारे पास?”

हमें पूरा विश्वास था कि चमचा सा दिखने वाले इस आदमी के पास हमारी बात का कोई जवाब नहीं हो सकता. लेकिन वह महाशय तो जैसे पहले से ही इस सवाल का जवाब देने के लिए बैठे हुए थे.वे झट से बोले, “आप अंधभक्त झूठ बोलने के शौकीन हैं. राममंदिर सरकार के निर्णय से नहीं, माननीय उच्चतम न्यायालय के फैसले से बना है. सरकार में हिम्मत होती तो संसद में बिल लाती और राममंदिर बनवाती. तब मानते हम कि यह काम सरकार ने किया है.”

उनका सच सुनकर हमारी बोलती बंद हो गई. हम सोचने लगे, ये चमचे इतना ज्ञान कहां से लाते हैं? लेकिन हमारे तरकश में भी तीरों की कमी नहीं थी. हमने अपनी झेंप मिटाते हुए अपने तरकश में से एक और आजमाया हुआ तीर निकाला. हमें पूरा विश्वास था कि चमचे के पास इसकी काट न होगी. हमने 56 इंच का सीना फुलाकर अकड़ कर कहा, “सरकार ने जम्मूकश्मीर से अनुच्छेद 370 को जो खत्म किया है, उसपर तुम्हारा क्या कहना है, बताओ तो जरा? ”

“अरे मेरे प्यारे अंधभक्त, तुम कोई भी काम ठीक से करना जानते ही नहीं. तुम आधेअधूरे काम करते हो. अनुच्छेद 370 का खंड 1 तो तुम्हारी सरकार ने हटाया ही नहीं. केवल खंड 2 और 3 को हटाया है. जम्मूकश्मीर को 2 हिस्सों में बांट दिया और उससे पूर्ण राज्य का दर्जा भी छीन लिया. ये हैं तुम्हारी सरकार के काम करने के ढंग.”

इस प्रकार तंज कसते हुए उन्होंने जब यह बात कही तो मुझे पूरा यकीन हो गया कि ये महाशय कोई पहुंचे हुए चमचे हैं और ये हार मानने वाले नहीं. हमने अपना बचाखुचा हौसला समेटते हुए कहा, “अरे जनाब, आपको दिखाई ही नहीं देता, चारों तरफ हाईवे का निर्माण हो रहा है. चंद्रयान चंद्रमा पर, गगनयान गगन में और मंगलयान मंगल पर जा रहा हैलेकिन आपको सरकार की उपलब्धियां दिखाई ही नहीं देतीं.”

इस पर वे महाशय पहले तो ठठाकर हंसे, फिर बोले, “भाईसाहब, आपने यह बात कहकर पूरी तरह से यह सिद्ध कर दिया है कि आप पक्के वाले अंधभक्त हो. आप किसी भी बात का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते. अरे, आपकेगिनाए सारे काम सरकार के काम हैं? क्या इससे पहले की सरकारों ने हाईवे नहीं बनवाए? क्या अंतरिक्ष यान एक दिन में बनकर तैयार हो गया? आपको मालूम होना चाहिए कि इसरो का गठन 15 अगस्त, 1969 को ही हो गया था. लेकिन अंधभक्त तो अंधभक्त ही रहेंगे, आंखों पर काली पट्टी बांधे रहेंगे.”

इतना कहतेकहते वे महाशय धम्म से खाली कुरसी पर जाकर बैठ गए. हमें एकदम से झटका सा लगा मानो हमारे हाथ से प्रधानमंत्री की कुरसी निकल गई हो और उसे चमचे ने कब्जा लिया हो.

लेकिन एक बात नीले आसमान की तरह एकदम साफ हो गई थी कि यदि कोई हार मानने को तैयार न हो तो उसे दुनिया में कोई हरा नहीं सकता. चमचे साहब तो कुरसी पर काबिज हो चुके थे और हम अपनी शिकस्त को अखबार के पन्ने पलटकर पचाने वछिपाने की कोशिश में लगे थे.

वहां बैठे अन्य ग्राहक हमें देखकर अजीब तरह से मुसकरा रहे थे. हमें लगा यह इनकी मुसकान नहीं, सूर्पणखां की दिल जलाने वाली हंसी है. हमने अखबार को चेहरे के सामने कर उससे ढाल का काम लिया.

कुछ देर बाद चमचा महाशय विजयी रथ पर सवार होकर सैलून से बाहर निकले तब हमारी जान में जान आई. हम आहिस्ता से हजामत बनवाने वाली कुरसी पर बैठे तो ऐसा लगा मानो हजामत बनाने वाला कह रहा हो ‘हजामत तो तुम्हारी चमचा बनाकर चला गया, अब मुझसे क्या खाक हजामत बनवाओगे.’

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