दिल्ली में हुए जी-20 सम्मेलन में 20 देशों के मुखिया यानी देशों के प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति शामिल हुए लेकिन उस से कुछ ठोस निकला हो, इस में संदेह है. संयुक्त बयान जारी किया गया पर इस में दुनिया का सब से बड़ा हौटस्पौट यूक्रेन को अनदेखा करना पड़ा क्योंकि रूस और चीन इस बारे में कतई सुनने को तैयार नहीं थे.

चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग तो आए ही नहीं और उन्होंने अनजाने से प्रधानमंत्री ली कियांग को भेज दिया जबकि रूस के विदेश मंत्री और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन केवल स्क्रीन के जरिए टैलीलिंक से आए. इस तरह के सम्मेलनों में जब सब देशों के मुखिया और उन के बड़े मंत्री/अधिकारी एक हौल में बैठे हों, उम्मीद की जाती है कि वे आपस में कुछ नए नायाब फैसले लेंगे जो दुनिया में शांति पैदा करेंगे, रिफ्यूजियों की समस्या को हल करेंगे, देशों की सरकारों को अपने ही नागरिकों के साथ कुव्यवहार को रोकेंगे, बढ़ते क्लाइमेट चेंज की चुनौती से निबटेंगे, युद्धों और गृहयुद्धों को रोकेंगे आदिआदि.

अफसोस पिछले सम्मेलनों की तरह यह सम्मेलन भी ऐसा कुछ नहीं कर पाया और सब खा/पी कर दिल्ली की जमीन को छू कर चले गए. विश्वगुरु बनने का सपना नरेंद्र मोदी जो पाले हुए हैं, कोई काम नहीं आया और जैसे पिछले शिखर सम्मेलन, जो छोटे देश इंडोनेशिया के पर्यटन स्थल बाली में हुआ था, की तरह एक बिना धारदार वक्तव्य के साथ समाप्त हो गया.

भारतीय जनता पार्टी ने बहुत कोशिश की थी कि वह इस सम्मेलन को 2024 के चुनावों के लिए भुनाए पर धर्मोर्दी (धर्म+मोदी) मीडिया के लगातार गुणगान के बावजूद नए भक्त बने हों, इस में शक है. यह सारा तमाशा दिल्ली तक सिमट कर रह गया. दिल्ली में भी थोड़ी लिपाईपुताई हुई और होर्डिंग लगे, देशों के झंडे लगे वरना ऐसा कुछ नहीं हुआ कि दिल्ली वाले फूल कर कुप्पा हुए हों कि मोदीजी की अध्यक्षता के कारण अब वे वर्षों साफसुथरी दिल्ली का आनंद ले सकेंगे.

आजकल दुनिया के नेता आपस में मिलने तो बहुत लगे हैं और जी-20, जी-7, ब्रिक्स, असियान, नाटो जैसे शिखर सम्मेलन होते रहते हैं जिन में काफी नेता मिलते रहते हैं पर इस से दुनिया एक नहीं हो पा रही जबकि दुनिया की सीमाओं पर कंटीले तारों की लाइनें ऊंची और चौड़ी होती जा रही हैं. हर देश अपनी अंदरूनी नीति में दखल को नापसंद करने लगा है.

पश्चिमी देशों को जो बढ़त पहले अपनी अमीरी, अपने बलबूते मिली थी उस से वे देशों को अब खरीद नहीं पा रहे क्योंकि शिक्षा व तकनीक ने नाइजीरिया जैसे गरीब देश में अफ्रीकी अरबपति पैदा कर लिए हैं और कोई देश निल तो कोई खनिजों के कारण मालामाल हो रहा है और उसे दूसरे देश की सुनने की जरूरत नहीं है.

जी-20 की मेजबानी व अध्यक्षता अब बेमतलब की रह गई है क्योंकि भारत में आए सब देशों के नेताओं और उन के अधिकारियों की निगाहें तो मणिपुर व नूंह जैसे मामलों, परदों को लगा कर ढकी गई गंदगी व गरीबी पर थीं.

अफसोस यह है कि जी-20 के मेहमानों के आगमन के समय भी नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदूवादी सोच को छोड़ नहीं पाए और उन्होंने राष्ट्रपति द्वारा जो खाने का निमंत्रण सभी को भिजवाया उस में इंग्लिश में भी प्रैसिडैंट औफ रिपब्लिक औफ भारत लिखवाया. जी-20 के मौके पर दुनिया को एक करने की बात करने वाले मौन रह गए जबकि इस मौके पर इंडिया और भारत का भेद सिखाने बैठ गए. जी-20 बिना किसी विवाद के समाप्त हो, उस का मौका उन्होंने आने ही नहीं दिया और खुद ही ने राजा व प्रजा के बीच एक और झड़प की शुरुआत कर दी.

ऐसे में देशों के आपसी झंझटों को वे सुलझाने में सफल होंगे, इस में संदेह है क्योंकि वे तो देश में निरर्थक झंझट पैदा कर के वोट पाने की कोशिश में लगे रहते हैं और जी-20 में भी उन्होंने यह मौका नहीं छोड़ा. उन्होंने जी-20 को केवल अपना कार्यक्रम बना डाला जिस में विपक्षी दलों को तो छोड़िए, उन के अपने दल के लोग भी सक्रिय नहीं थे. कुछ को चुप रह कर बैठने के निमंत्रण मिले, बस.

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