पूर्वोत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी रही कि यह लंबे समय तक शेष भारत से अलगथलग जैसा रहा. ऐसी बात भी नहीं कि पूर्वोत्तर से हम बिलकुल अपरिचित भी रहे हों. तेल का पहला कुआं यहां मिलने से यह चर्चा में तो था ही, चाय के विशाल बागान और वन संपदाओं के लिए भी यह क्षेत्र जाना जाता था. हमारे कुछ व्यापारिक भाई और बंगाली भद्रजन भी इधर आतेजाते ही रहे थे. फिर भी पहली बार इधर हमारी भरपूर नजर तब पड़ी, जब विभाजन के वक्त यह भारत में शामिल होने के लिए आंदोलित हुआ. दूसरी बार तब, जब चीन ने वर्ष 1962 में इधर आक्रमण किया. हम गुवाहाटी, तेजपुर, डिब्रुगढ़ आदि नामों से परिचित हुए.
मगर इधर हुए तेजी से विकास कार्यों ने पूर्वोत्तर की तसवीर बदली है. उग्रवाद, अलगाववाद, आतंकवाद लगभग समाप्तप्राय हुआ, तो यहां बहुतकुछ बदलाव आए. शेष भारत ने पूर्वोत्तर को समझना और सहयोग करना आरंभ किया तो यहां की तसवीर बदली. अब यहां के स्थानीय युवा शिक्षा और रोजगार के लिए दक्षिण के बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई से ले कर उत्तर के दिल्ली, जयपुर, चंडीगढ़ आदि में भरपूर मिलेंगे. अन्य राज्यों के शहरों में भी उन की अच्छी संख्या देखी जा सकती है.
पूर्वोत्तर में पर्यटन के शौकीनों को यह जान लेना चाहिए कि यहां भव्य विशालकाय किले और महल नहीं मिलेंगे. महंगे, भारी स्वर्णाभूषणों और हीरेजवाहरात से सुसज्जित देवीदेवताओं के ऊंचऊंचे मंदिर और मठ नहीं मिलेंगे. कारण यह कि यह क्षेत्र भूकंप केंद्रित रहा है. इसलिए यहां के लोग हलके, ढलवां छत वाले मकान आदि ही बनाते रहे हैं. यहां तो बस नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्य और अछूती विशिष्ट श्रेणी की रोमांचक चीजें मिलेंगी. यहां के जीवन में विविधता और सरलता है और यही चीजें हमें आकर्षित भी करती हैं.
पूर्वोत्तर में जाने के लिए पहला पड़ाव तो सिलिगुड़ी ही है. इसे भारत का चिकेननेक भी कहा जाता है. भारत के नक्शे में इसे देखें. बिलकुल पतली सी पगडंडी समान है यह, जो पूर्वोत्तर को भारत से जोड़े हुए है और जिस का सामरिक महत्त्व है. वैसे, सिलिगुड़ी और जलपाईगुड़ी हैं तो पश्चिम बंगाल में, मगर पूर्वोत्तर के प्रदेश सिक्किम में जाने के लिए यहां आना ही पड़ेगा. आप यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कहीं से भी सीधे सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुंच सकते हैं, क्योंकि अब यहां से सीधी ट्रेनसेवा है.
कोलकाता से तो बस से भी पहुंचा जा सकता है. वैसे, सिलिगुड़ी में बागडोगरा हवाईअड्डा है, जहां दिल्ली या कोलकाता से सीधी विमानसेवा है, उस से भी पहुंचा जा सकता है.
सिक्किम
ऊंचे पर्वतों और खाइयों से घिरे इस राज्य में हरियाली ही हरियाली दिखती है. बात भी सही है. आखिर शिखर पर जब बर्फ से ढके पहाड़ हों, तो नीचे हरियाली रहनी ही है. यहां के प्राकृतिक दृश्य, विविध रंगों से परिपूर्ण जीवनशैली और हरीतिमा दर्शनीय तो हैं ही, दूध के समान बहती पहाड़ी नदियों को देखना भी सुखद है.
आमतौर पर यहां का जीवन शांत और सरल है. मुख्यतया सिक्किम के स्थानीय बौद्धों और उन के भव्य विहारों व मठों को देखा जा सकता है. इन के सामने सफेद या रंगीन पताकाओं की श्रृंखलाएं जैसे पर्यटकों से मौन वार्त्तालाप करती हों. यहां का नैसर्गिक सौंदर्य और रोमांचक वन्यजीव रोमांचित करने के लिए काफी हैं.
सिक्किम में अनेक स्थल हैं, जिन का पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व है और पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सक्षम हैं. यहां गंगटोक, ताशी व्यू पौइंट, रूमटेक, आर्किडेरियम, सरमसा गार्डन, लच्छुंग, यूमठंग, यूकसम, गोइछाला, रवोंगला, नाथूला सीमा आदि हैं, जिन्हें देख कर मन मुग्ध हो जाता है.
सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी से सिक्किम जाने के लिए बससेवा तो है ही, इस के अलावा टैक्सियां भी हैं, जिन्हें स्वतंत्र रूप से या शेयर में भी बुक किया जा सकता है.
गंगटोक सिक्किम की राजधानी है. यह प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण है. दूरदूर तक जहां तक नजर जाती है, सीढ़ीनुमा खेत दिखाई देंगे, जो पूर्वोत्तर भारत की खासीयत हैं. ढलवा छत वाले झोंपड़ीनुमा मकान दिखेंगे. हांलाकि, अब समृद्धि के साथ बहुमंजिले भव्य मकान भी दिखने लगे हैं. हर पहाड़ के आगेपीछे दूधसमान जलधारा के झरने दिखेंगे. यदि बारिश हो जाए, तो इन की रफ्तार और तेजी देखते बनती है. गंगटोक से हिमालय की बर्फ से लदी कंचनजंघा पर्वत चोटी की शोभा देखते बनती है.
जनजातीय समुदायों में पहाड़ों के साथ झीलों को भी समान महत्त्व दिया जाता है और ऐसे में तिसांगु झील देखने जाना ज्यादा रोचक है. यहां नौकाविहार का आनंद लिया जा सकता है.
गंगटोक के पास ही डियर पार्क है, जिसे देख सकते हैं. आर्किड की लगभग 500 प्रजातियां सिक्किम में पाई जाती हैं. सो, इस के लिए आर्किडेरियम है, जहां आर्किड की किस्में और अन्य दुर्लभ प्रजाति के पौधे भी देखने को मिलते हैं.
पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए सिक्किम का विशेष स्थान है. इस के शौकीन पर्यटक इस के लिए सिक्किम का ही रुख करते हैं. सिक्किम का मुखौटा नृत्य बहुत प्रसिद्ध है. किंतु यह खास अवसरों पर ही देखने को मिल सकता है.
प्राचीन काल में चीन जाने का एक सिल्क रूट यानी रेशम मार्ग सिक्किम के नाथूला सीमा से ही होबीकर जाता था, तब सिक्किम के बगल में तिब्बत था. अब तिब्बत के चीन में विलय हो जाने के कारण नाथूला भारतचीन सीमा का प्रवेशद्वार है. यहां जाने का रास्ता काफी रोमांचक और जोखिम भरा है. अगर बर्फबारी नहीं हुई तो गनीमत. बर्फबारी के बीच रास्ता काफी फिसलनभरा हो जाता है. मजबूत जिप्सी गाड़ियां पर्यटकों की टीम को ले कर वहां नाथूला सीमा तक जाती हैं.
अंदाजा कीजिए कि एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़ हैं, दूसरी तरफ गहरी खाई है. रास्ता जो है, वह बर्फ से भरा है. ऐसे में ड्राइवर गाड़ियों के अगले पहियों में लोहे की जंजीरें पहनाते हैं. इस से दबाव पड़ने पर बर्फ टूटतीपिघलती है, जिस से पहिए नहीं फिसलते. फिर मंथर गति से गाड़ी चलाते हुए वे आगे बढ़ते हैं.
रास्तेभर बर्फ से ढके पहाड़ दिखेंगे और नाथूला सीमा पर आमनेसामने कांटों की बाड़ के पीछे भारतीय और चीनी सैनिकों की टुकड़ियों को देखना और भी रोमांचक लगता है.
एक तरफ भारतीय ध्वज, तो दूसरी तरफ चीनी ध्वज लहराते दिखते हैं. चारों तरफ भयानक सन्नाटा और खामोशी. ऐसे में आप या अलौकिक आनंद की कल्पना करें या जनविहीन इलाकों में भयभीत हों. मगर यह यथार्थ है कि पहाड़ों का यही बर्फ धीरेधीरे गलगल कर नदियों को भरापूरा बनाता है. वही नदियां, जो हमारी जीवनदायिनी हैं. हमारे कृषि कार्यों के लिए जरूरी जल यही नदियां उपलब्ध कराती हैं. ट्रांसपोर्ट का कार्य तो ये आदिकाल से करती ही रही हैं.
पूर्वोत्तर में हस्तनिर्मित परंपरागत शिल्प का विशेष योगदान है. यहां सिक्किम में इसे विशेषकर देखा जा सकता है.बांस और बेंत के बुने हुए विभिन्न डिजाइनों के बहुरंगी थैले, पर्स और शोपीस, चमड़े के सामान, लकड़ी की कलाकृतियां, परंपरागत पोषाकें, स्कार्फ और टोपियां, स्थानीय आभूषण आदि पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं. वैसे, गंगटोक के लाल बाजार, सुपर बाजार, न्यू मार्केट में इन के साथ चीनी सजावटी सामान से भी भरे पड़े मिलेंगे.