13 अगस्त, 2023 को पूरा प्रदेश आजादी का जश्न मनाने की तैयारी कर रहा था. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के वीवीआईपी क्षेत्र मौल एवन्यू में रहने वाले ब्रजेश सोनी की पत्नी रूपा को प्रसव पीड़ा हो रही थी. वह अपनी पत्नी को ले कर वीरांगना झलकारी बाई महिला एवं बाल अस्पताल गया. रूपा को 4 माह का प्रसव था. उस के पेट में दर्द हो रहा था. रूपा सोनी की दोपहर करीब साढ़े 12 बजे जांच की गई. दर्द महसूस होने पर यहां से श्यामा प्रसाद मुखर्जी (सिविल) अस्पताल गई थीं.

घर पहुंचने के पहले ही राजभवन के पास दर्द तेज हो गया. राजभवन के ही निकट सड़क के किनारे ही कुछ महिलाओं की मदद से रूपा का प्रसव हुआ. सड़क पर प्रसव का मामला सुर्खियों में आ गया.

समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव ने कहा, ‘एक तो उप्र की राजधानी लखनऊ, उस पर राजभवन के सामने. फिर भी एंबुलैंस के न पहुंचने की वजह से एक गर्भवती महिला को सड़क पर शिशु को जन्म देना पड़ा. मुख्यमंत्रीजी इस पर कुछ बोलना चाहेंगे या कहेंगे? हमारी भाजपाई राजनीति के लिए बुलडोजर जरूरी है, जनता के लिए एंबुलैंस नहीं.’

सपा के राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल यादव ने कहा कि, ‘राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था ‘वैंटिलेटर सपोर्ट’ पर है. सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था अपने लाख विज्ञापनों व दावों के बावजूद वैंटिलेटर पर है. एंबुलैंस न मिलने पर रिकशे से अस्पताल जा रही गर्भवती महिला को राजभवन के पास सड़क पर प्रसव के लिए मजबूर होना पड़े तो यह पूरी व्यवस्था के लिए शर्मनाक व सूबे की स्वास्थ्य व्यवस्था की असल हकीकत है.’

प्रसव आज भी बड़ी परेशानी

आज भी शहरों में शतप्रतिशत प्रसव अस्पतालों में नहीं होते. बड़े शहरों में 20 फीसदी प्रसव आज भी दाई की मदद से घरों में होते हैं. गांव और कसबों में यह आंकड़ा बढ़ जाता है. अलगअलग रिपोर्ट और सर्वे को देखने पर यह पाया जाता है कि करीब 30 से 35 फीसदी प्रसव अस्पतालों में नहीं होते.

इस की मूल वजहें 2 हैं. पहली, सरकारी अस्पताल में भीड़ बहुत होती है. दूसरी, मैडिकल स्टाफ मदद नहीं करता. प्राइवेट अस्पताल में प्रसव बहुत महंगा होता है. अब सामान्य रूप से प्राइवेट अस्पताल में प्रसव का खर्च 60 हजार से एक लाख रुपए के बीच आ रहा है. सरकारों ने गरीब वर्ग के लिए कुछ सुविधाएं देने का भले ही प्रयास किया हो पर मध्यवर्ग की महिलाओं के लिए कोई सुविधा नहीं है.

प्रसव ही नहीं, सरकार के पास महिलाओं के माहवारी के दिनों में सैनेटरी पैड्स उपलब्ध कराने की भी कोई योजना नहीं है. सामान्य रूप से बाजार में औसत कीमत का सैनेटरी पैड्स का पैकेट 30 रुपए का मिलता है. औसतन महिलाओं को माह में कम से कम 2 पैकेट की जरूरत पड़ती है. जिस का खर्च 60 रुपए महीने आता है. कुछ गैरसरकारी संस्थाएं कम कीमत के पैड्स उपलब्ध कराती हैं. अब बाजार में दोबारा प्रयोग किए जाने वाले पैड्स मैडिकल स्टोर पर बिकते हैं. केंद्र सरकार के जनऔषधि केंद्रों पर सस्ती कीमत पर ये पैड्स मिल जाते हैं. इन केंद्रों की संख्या सीमित है.

इस कारण आज भी 70 फीसदी महिलाएं सैनेटरी पैड्स का प्रयोग नहीं करतीं. यहां भी सरकार ने महिलाओं के लिए कोई बड़ी योजना नहीं चलाई जिस से हर महिला को हर माह उस की जरूरत के हिसाब से सैनेटरी पैड्स मिल सकें. सैनेटरी पैड्स का उपयोग न करने से महिलाओं को योनि संक्रमण का सामना करना पड़ता है, जो उन की सेहत के लिए खतरनाक होता है. क्या सरकारी राशन की दुकानों के जरिए महिलाओं को मुफ्त में सैनेटरी पैड्स देने की योजना सरकार नहीं चला सकती?

एक अध्ययन में पाया गया कि 8,000 गर्भपात में से 7,997 कन्याभ्रूण के थे. अभी भी हमारा देश लड़कियों को पैदा होने के पहले ही मार देना चाहता है. एक प्राइवेट अस्पताल में प्रसव का खर्च 60 हजार से ले कर एक लाख रुपए तक होता है. इस खर्च को उठाना मध्यवर्ग के लिए मुश्किल होता है.

मध्यवर्ग की महिलाएं यहां भी सरकार के एजेंडे में नहीं दिखती हैं. कट्टरपंथी विचारधारा के लोग महिलाओं की सेहत, सुरक्षा पर ध्यान देने की जगह उन को धर्म से जोड़ने का काम करते हैं. वे चाहते हैं कि महिलाएं सिर पर कलश उठा कर धर्म का प्रचार करती रहें. अपने प्रति हो रहे भेदभाव को महिलाएं सम?ाने की काशिश न करें. धर्म चाहता है कि महिलाएं अभी भी कुरीतियों और रूढि़वादियों में जकड़ी रहें. माहवारी के दिनों में वे घर के कोने में अकेली पड़ी रहें. वे सैनेटरी पैड्स के बारे में बात न करें. कटट्रवादी विचारों के लोग ‘माहवारी’ और ‘सेनेटरी पैड्स’ जैसे शब्दों को खुलेआम प्रयोग करना अच्छा नहीं मानते.

माहवारी के दिनों में अगर लड़कियों के कपड़ों पर कोई दाग दिखता है तो पुरुष वर्ग बड़ी कामुक नजरों से देखता है. कई पुरुष तो इन दिनों में भी सैक्स संबंध बनाने को ले कर उत्तेजित होते रहते हैं. आज भी 18वीं शताब्दी की सोच दिखती है जब औरतों को केवल सैक्स की नजर से देखा जाता था. 21वीं सदी में भी लड़कियां खुल कर इस को खरीद नहीं पाती हैं. आज भी मैडिकल स्टोर में सैनेटरी पैड्स को काली पौलीथिन में पैक कर के दिया जाता है. कट्टरवादी सोच इस का खुलेआम प्रयोग सही नहीं मानती.

सुरक्षित नहीं महिलाएं

महिला सेहत के बाद महिला सुरक्षा की हालत को देखते हैं. उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में 14 अगस्त, 2023 की रात एक दलित लड़की से दरिंदगी की जाती है. अपराधियों की हिम्मत देखिए कि घटना के बाद उस का वीडियो वायरल कर दिया जाता है. वीडियो में 6 लड़के उस के साथ जबरदस्ती करते दिख रहे हैं. उस के शरीर को नोंच रहे हैं. कपड़े फाड़ रहे हैं. लड़की खुद को बचाने के लिए छटपटा रही है, हाथ जोड़ रही है और ‘पापा बचाओबचाओ’ चिल्ला रही है. मणिपुर जैसी घटना थी.

इस तरह की घटनाएं कई हैं. मेरठ में 4 युवकों ने एक नाबालिग लड़की का किडनैप किया. उसे जंगल ले गए. वहां कोल्डड्रिंक में कुछ मिला कर उसे पिला दिया. बेसुध होने के बाद उस के साथ दरिंदगी की. कपड़े निकाल कर उस का न्यूड वीडियो बनाते रहे. लड़की गिड़गिड़ाती रही. अपने कपड़े मांगती रही. इस के बाद आरोपी उसे ब्लैकमेल करने लगे. 3 महीने बाद लड़की का वीडियो वायरल कर दिया.

इन घटनाओं से महिलाओं की हालत का पता चलता है. बात उत्तर प्रदेश की इसलिए क्योंकि कहा जाता है कि योगी सरकार के बुलडोजर का खौफ अपराधियों, दबंगों और माफियाओं के सिर चढ़ कर बोल रहा है. अपराधी या तो जेल में हैं या प्रदेश छोड़ कर भाग गए हैं. 6 साल में 200 लोगों का एनकांउटर हो चुका है. इस के बाद भी महिलाओं की हालत क्या है, यह देखा जा सकता है. कानून और सजा का खौफ होता तो क्या लखनऊ में ही लिवइन रिलेशन में रह रही 28 साल की रिया गुप्ता की हत्या रिषभ ने 2 गोली मार कर की होती.

पिछले 10 सालों की बात करें तो राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध की घटनाओं में 15.3 फीसदी की वृद्धि हुई है. राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो के अनुसार 2011 में 228,650 से अधिक घटनाएं दर्ज की गईं जबकि 2021 में 4,28,278 घटनाएं दर्ज की गईं. आज भी भारत में 10 वर्ष से कम उम्र की लगभग 7.84 मिलियन बच्चियों की शादी हो जाती है.

2016 से 2021 के बीच देश में महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 22.8 लाख मामले दर्ज हुए. इन में से लगभग 7 लाख यानी करीब 30 प्रतिशत आईपीसी की धारा 498ए के तहत दर्ज किए गए थे. धारा 498ए किसी महिला के खिलाफ पति या उस के रिश्तेदारों की क्रूरता से संबंधित है. बलात्कार और यौन उत्पीड़न से मामलों में भी कहीं ज्यादा दहेज उत्पीड़न के मामले हैं. 2014 से 2018 के बीच 5 वर्षों की अवधि में देश में एसिड हमलों के 1,483 पीडि़त दर्ज किए गए. महिलाओं के खिलाफ अपराधों को देखें तो यहां भी मध्यवर्ग की महिलाएं ज्यादा पीडि़त मिलती हैं. धर्म के कट्टरपन के कारण वे इस के खिलाफ साफ कहने से बचती हैं.

महत्त्वपूर्ण नहीं महिलाओं के मुद्दे

कट्टरवादी लोगों की नजर में महिलाओं के मुद्दे अहम नहीं होते. इस का एक उदाहरण उत्तर प्रदेश में देखा जा सकता है. उत्तर प्रदेश उम्मीदों वाला प्रदेश है. दिल्ली की सत्ता का रास्ता लखनऊ हो कर ही जाता है. उत्तर प्रदेश ने ही सब से अधिक प्रधानमंत्री इस देश को दिए हैं. लोकसभा में 80 सदस्य उत्तर प्रदेश से चुन कर जाते हैं. देश के 542 सांसदों में 15 फीसदी सीधे उत्तर प्रदेश से चुने जाते हैं. यहां का असर पूरे देश पर चढ़ता है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का बुलडोजर मौडल पूरे देश में चर्चा का विषय है पर उत्तर प्रदेश में यह महिलाओं की हिफाजत नहीं कर पा रहा है.

उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव सरकार ने ‘1090 महिला पावर लाइन’ को स्थापित किया था. जो राज्य के किसी कोने में भी मुसीबत में फंसी महिलाओं को 7 से 10 मिनट में मदद करने को तत्पर रहती थी. इस के साथ ही साथ ‘1090’ साइबर क्राइम और मोबाइल से महिलाओं को परेशान करने की घटनाओं को तत्काल रोकने का कम करती थी. 2017 के बाद जब प्रदेश में भाजपा की योगी सरकार आई तो 1090 की जगह हैल्पलाइन नंबर 112 को प्राथमिकता दी. यह नंबर महिलापुरुष दोनों की मदद करता है.

‘महिला हैल्पलाइन 1090’ जैसी हालत ‘उत्तर प्रदेश महिला आयोग’ की भी कर दी गई है. उत्तर प्रदेश महिला आयोग की हालत बताती है कि सरकार महिलाओं के बारे में क्या सोच रखती है. केंद्र और दूसरे राज्यों में भी महिला आयोग बहुत सक्रिय नहीं हैं.

गैरसरकारी संस्थान द्वारा देश के 26 आश्रय घरों का निरीक्षण किया गया. इस के तहत पश्चिम बंगाल में 5, ओडिशा-कर्नाटक में 8-8 और उत्तर प्रदेश के 5 सुधारगृहों का निरीक्षण किया गया. इस में जो बात सामने निकल कर आई उसे देख कर पता चलता है कि बिहार और यूपी के देवरिया में जिस तरह महिलाओं व लड़कियों के साथ दरिंदगी हुई थी, उस को देखने के बाद भी सुधार घरों को ले कर सरकार जागी नहीं है.

अनदेखी की चपेट में मध्यवर्ग की महिलाएं

केंद्रीय स्तर पर भी देखें तो सरकार ने महिलाओं और उन में भी मध्यवर्ग की महिलाओं के लिए कोई अलग योजना नहीं बनाई है. केंद्र की मोदी सरकार उज्ज्वला योजना का बढ़चढ़ कर प्रचार करती है. इस योजना के तहत गरीब वर्ग की महिलाओं को रसोई गैस के चूल्हे और कनैक्शन उपलब्ध कराए गए. आज के समय में रसोई गैस महिलाओं की सब से अधिक जरूरत है. इस की जरूरत इसलिए होती है क्योंकि आंखों और सांस की बीमारियों से यह बचाने का काम करती है.

रसोई गैस में सरकार को चाहिए था कि सब्सिडी बढ़ाए. सरकार ने सब्सिडी देने की जगह पर उस पर जीएसटी लगा रखा है. अगर सब्सिडी जारी रहती तो अधिक से अधिक महिलाएं इस का प्रयोग कर सकती थीं. आज रसोई गैस की कीमत 1,100 रुपए से अधिक है. महंगी होने के चलते उज्ज्वला योजना वाली महिलाएं भी इस का उपयोग नहीं कर पा रही हैं. मध्यवर्ग के लिए भी रसोई गैस की कीमत बो?ा बन गई है. पिछले 10 सालों की बात करें तो किचन का बजट दोगुने से अधिक बढ़ गया है. जबकि इसी दौर में कमाई घट गई है.

नोटबंदी, जीएसटी, कोरोना और आयकर ने कारोबार और नौकरियों को प्रभावित किया है. जिस का सब से बड़ा प्रभाव मध्यवर्ग पर पड़ा है. इस वर्ग के लिए सरकार खामोश है. इन की बात करने वाली महिला नेता कहीं नहीं दिख रही हैं.

लड़कियों की शिक्षा को ले कर सरकार की योजना है- ‘बेटी पढ़ाओ

बेटी बचाओ’. उच्च शिक्षा पर अखिल भारतीय सर्वेक्षण एआईएसएचई 2020-2021 बताता है कि 12वीं पास करने वाली लड़कियों में केवल 49 फीसदी लड़कियां ही आगे की पढ़ाई के लिए एडमिशन लेती हैं. यानी 51 फीसदी लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं. सरकार का इस तरफ ध्यान नहीं है. यह लड़कियों की अनदेखी है. पढ़ाई छोड़ने का कारण कालेज का दूर होना, गरीबी, जल्दी शादी और लड़कियों के प्रति बढ़ते अपराध हैं.

महिलाओं की दशा के लिए जिम्मेदार कौन

महिलाओं की जो दशा 18वीं सदी में थी वह आज भी जस की तस है. जो फर्क दिख रहा वह टैक्नोलौजी के कारण दिख रहा है. राजनीति और समाज महिलाओं को आगे नहीं बढ़ने देता. अपवाद के रूप में कुछ महिलाएं जरूर सफल हुई हैं जो धर्म की बंदिशों को तोड़ कर आगे बढ़ी हैं. सरकार चलाने में महिलाओं की क्या भूमिका है, इस को परखने का एक और माध्यम है, मंत्रिमंडल में महिलाओं की भूमिका. 2017 के योगी मंत्रिमंडल में महिला मंत्रियों के रूप में रीता बहुगुणा जोशी कैबिनेट मंत्री, स्वाति सिंह और अनुपमा जायसवाल स्वतंत्र प्रभार और अर्चना पांडेय व गुलाब देवी राज्यमंत्री थीं. 2017 में जब योगी सरकार बनी थी तो महिला मंत्रियों की संख्या 5 थी. रीता बहुगुणा जोशी, स्वाति सिंह और अनुपमा जायसवाल चर्चा में रहती थीं.

2022 के विधानसभा चुनावों में भाजपा की 48 महिलाएं विधायक बनीं. महिला मंत्रियों की संख्या जस की तस रही. इन 5 महिलाओं में केवल एक कैबिनेट मंत्री बेबी रानी मौर्या, एक स्वतंत्र प्रभार गुलाब देवी और 3 राज्यमंत्री प्रतिभा शुक्ला, रजनी तिवारी और विजय लक्ष्मी गौतम बनीं. 2017 के मुकाबले 2022 की महिला मंत्री अपनी कोई पहचान नहीं बना पा रहीं. यह बात केवल उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं है. अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल की बात की जाए तो वहां भी हालात ऐसे ही हैं. केंद्र के मोदी मंत्रिमंडल में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण और कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ही चर्चा में रहती हैं.

निर्मला सीतारमण को जनाधार वाला लोकप्रिय महिला नेता नहीं माना जाता है. स्मृति ईरानी का रोल केवल कांग्रेस नेता राहुल गांधी के विरोध तक ही सीमित कर दिया गया है. मोदी मंत्रिमंडल में बाकी महिला मंत्रियों को पहचान बनाने का कोई मौका नहीं मिलता है. 78 सदस्यों वाले मोदी मंत्रिमंडल में देखने को 11 महिलाओं को मंत्री बनाया गया है. इन के जब नाम पढ़ेंगे तो लगेगा कि कितनों को आप पहचानते हैं?

इन 11 में जो नाम शामिल हैं उन में निर्मला सीतारमण, स्मृति ईरानी, साध्वी निरंजन ज्योति, रेणुका सिंह सरूता, दर्शना जरदोश, प्रतिभा भौमिक, शोभा कारंदलजे, भारती पवार, मीनाक्षी लेखी, अनुप्रिया पटेल, अन्नपूर्णा देवी शामिल हैं.

इन महिला नेताओं की पहचान उमा भारती और सुषमा स्वराज जैसी भाजपा नेताओं वाली नहीं बन पा रही है. इस की वजह यह है कि भाजपा महिलाओं के वोट तो लेना चाहती है पर उन को पहचान नहीं देना चाहती. राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुधंरा राजे सिंधिया इस का बड़ा उदाहरण हैं. राजस्थान में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं लेकिन वसुधंरा राजे सिंधिया को कोई अहमियत नहीं दी गई है.

वोट तक सीमित रह गई महिलाएं

भारतीय जनता पार्टी महिलाओं के वोट तो लेना चाहती है पर उन को पार्टी और सरकार चलाने में अधिकार नहीं देना चाहती. हर राज्य में सरकार बनाने में महिलाओं की जरूरत सब से अहम हो गई है. इस को सम?ाने के लिए हिंदी बोली वाले राज्यों पर नजर डाल लेते हैं.

बिहार से ले कर यूपी तक महिला मतदाता भाजपा को सत्ता में लाने की बड़ी वजह होते हैं. उत्तर प्रदेश में साल 2007 में हुए विधानसभा चुनाव के परिणाम को देखें तो पता चलता है कि इस चुनाव में बसपा को 32 फीसदी महिलाओं के वोट मिले थे. सपा को

26 फीसदी, भाजपा को 16 फीसदी और कांग्रेस को 8 फीसदी वोट महिलाओं ने दिए थे. 2007 में मायावती को जीत हासिल हुई थी. 2017 में भाजपा को 45 फीसदी महिलाओं के वोट मिले, उस ने सरकार बनाई.

2010 के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार को महिला वोटर्स के दम पर जीत मिली थी. इस चुनाव में कुल 52.67 फीसदी मतदान हुआ था, जिन में से 54.49 फीसदी मतदान महिलाओं का था और 51.12 प्रतिशत मतदान पुरुषों का. महिलाओं के वोट पा कर ही नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलाने में भी महिला वोटरों का बड़ा हाथ रहा है. इस चुनाव में भाजपा को रिकौर्ड 41 प्रतिशत महिलाओं के वोट मिले थे.

मध्य प्रदेश में 2 करोड़ 60 लाख 23 हजार 733 महिला वोटर्स हैं. इस के अलावा 230 विधानसभा क्षेत्रों में से कम से कम 18 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां महिला वोटर्स की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है. इन में बालाघाट, मंडला, डिंडोरी, अलीराजपुर और ?ाबुआ जैसे आदिवासी बहुल जिले शामिल हैं.

10 में एक भी महिला मुख्यमंत्री नहीं

इस विधानसभा चुनाव में नए महिला वोटरों की संख्या में 2.79 फीसदी का इजाफा भी हुआ है. इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में 7.07 लाख नई मतदाताएं सिर्फ महिलाएं हैं. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लाड़ली बहना योजना चला रहे हैं. शिवराज सिंह चौहान मंत्रिमंडल में महिला मंत्रियों की

संख्या 3 तक सीमित है. इन के नाम  यशोधरा राजे सिंधिया, मीना सिंह और उषा ठाकुर हैं. जबकि मध्य प्रदेश में महिला विधायकों की संख्या 21 है. गुजरात में 13 महिला विधायक हैं और केवल 2 महिला मंत्री हैं. हरियाणा में 9 महिला विधायक हैं जिन में से एक महिला मंत्री हैं.

आज के समय में भाजपा की 10 राज्यों में सरकारें हैं. भाजपा के 10 मुख्यमंत्रियों में अरुणाचल प्रदेश में प्रेमा खांडू, असम में हिमंता बिस्वा शर्मा, गोवा में प्रमोद सावंत, गुजरात में भूपेंद्रभाई पटेल, हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, मणिपुर में एन वीरेन सिंह, त्रिपुरा में माणिक साहा, उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी और उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं. भाजपा के पूरे कार्यकाल को देखें तो केवल 4 महिलाओं उमा भारती, सुषमा स्वराज, आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाया गया. इन में से किसी ने भी 5 साल पूरे नहीं किए. मोदीशाह के दौर में कोई भी महिला मुख्यमंत्री नहीं है.

ताकतवर रही हैं गैरभाजपाई महिला नेता

बीते 20-22 सालों में गैरभाजपाई महिला मुख्यमंत्री अधिक ताकतवर रही हैं. इस दौर में भाजपा की केवल 2 महिला नेता आनंदी बेन पटेल और वसुंधरा राजे सिंधिया ही मुख्यमंत्री रही हैं. गैरभाजपाई मुख्यमंत्रियों में बसपा से मायावती, कांग्रेस से शीला दीक्षित और राजिंदर कौर भट्टल, टीएमसी से ममता बनर्जी, एआईडीएमके से जयललिता, राजद से राबड़ी देवी और महबूबा मुफ्ती के नाम प्रमुख हैं. इन सभी ने अपने प्रदेश और राजनीति में बड़ी भूमिका अदा की है. मायावती 4 बार, ममता बनर्जी 3 बार और जयललिता 6 बार मुख्यमंत्री रही हैं.

महिला नेता के रूप में जिन नेताओं ने अपने बल पर पहचान बनाई उन में इंदिरा गांधी का नाम सब से प्रमुख है. इंदिरा गांधी के आलोचक भले ही यह कहते हों कि वे जवाहर लाल नेहरू के नाम के सहारे आगे बढ़ीं. यह केवल आलोचना भर ही है. शुरुआती दिनों में इंदिरा गांधी का कांग्रेस में बहुत विरोध हुआ था. यहां तक कि पार्टी का विभाजन हो गया. इंदिरा गांधी को ‘गूंगी गुडि़या’ कहा जाता था.

कांग्रेस इंदिरा बना कर विरोधियों को जवाब दिया. ‘गूंगी गुडि़या’ कही जाने वाली इंदिरा गांधी न केवल चुनाव जीतीं बल्कि ‘इंदिरा इज इंडिया, इंडिया इज इंदिरा’ कहा जाने लगा. आगे चल कर ‘आयरन लेडी’ जैसे खिताब उन को दिए गए. इसी तरह से कुछ और महिला नेताओं को देखें तो सोनिया गांधी का नाम भी देश की ताकतवर नेताओं में शुमार किया जाता है.

1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद और सोनिया गांधी ने उन के उत्तराधिकारी के रूप में कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनने से इनकार कर दिया था. एक तरह से सोनिया गांधी ने राजनीतिक संन्यास ले लिया था, जिस के बाद कांग्रेस पूरी तरह से खत्म ही हो गई थी. तमाम क्षेत्रीय दल और भाजपा की राजनीति को विस्तार मिलने का मौका मिला. कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से सोनिया 1997 में कलकत्ता में आयोजित पार्टी के पूर्ण सत्र में प्राथमिक सदस्य के रूप में कांग्रेस पार्टी में शामिल हुईं. 1998 में वे पार्टी अध्यक्ष बन गईं.

कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने वेल्लारी और अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और दोनों चुनाव जीते. वेल्लारी में सोनिया गांधी के खिलाफ भाजपा ने अपनी सब से ताकतवर महिला नेता सुषमा स्वराज को चुनाव लड़ाया था. 1999 में सोनिया को 13वीं लोकसभा में विपक्ष की नेता चुना गया. सोनिया की यह सब से बड़ी उपलब्धि थी. 2004 के आम चुनावों में सोनिया गांधी ने भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को हरा कर केंद्र में सरकार बनाई. डाक्टर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. 10 साल कांग्रेस ने केंद्र की सत्ता संभाली.

भाजपा नेता सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाते रहे. सुषमा स्वराज ने कहा, ‘अगर सोनिया प्रधानमंत्री बनीं तो वे अपना ‘सिर मुंड़वाने’ और ‘जमीन पर सोने’ का काम करेंगी.’ सोनिया गांधी ने डाक्टर मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया और खुद राष्ट्रीय सलाहकार समिति व यूपीए के अध्यक्ष के रूप में काम करती रहीं. सोनिया की अगुआई में यूपीए ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ‘मनरेगा’, सूचना का अधिकार अधिनियम ‘आरटीआई’, शिक्षा का अधिकार ‘आरटीई’ और लड़कियों को संपत्ति में अधिकार जैसे क्रांतिकारी कानून बनाए. सोनिया गांधी ने खुद को साबित कर के राजनीति की.

ताकतवर महिला नेताओं की श्रेणी में कांग्रेस से अलग हुई और तृणमूल कांग्रेस ‘टीएमसी’ बनाने वाली ममता बनर्जी का नाम आता है. वे कांग्रेस से अलग होने के बाद भाजपा की अगुआई वाले एनडीए में रहीं. केंद्र सरकार में मंत्री रहीं. जल्द ही एनडीए से अलग हो कर पश्चिम बंगाल में अपना जनाधार बढ़ाने का काम किया. ममता बनर्जी ने अपने बल पर पश्चिम बंगाल में सालों से सत्ता संभालने वाले वामपंथी दलों को कुरसी से उतार दिया. 2011 में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री बनीं. तब से अभी तक वे लगातार मुख्यमंत्री हैं.

ममता बनर्जी के जनून को सम?ाने के लिए उन के संकल्प को देखना चाहिए. बात दिसंबर 1992 की है. ममता एक शारीरिक रूप से अक्षम लड़की फेलानी बसाक को ले कर उस समय के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के पास गईं. फेलानी बसाक के साथ सीपीआई (एम) कार्यकर्ताओं द्वारा बलात्कार किया गया था. पुलिस ने उन्हें उत्पीडि़त करने के बाद गिरफ्तार कर लिया. पुलिस ने उन को मुख्यमंत्री से मिलने नहीं दिया. इस के बाद ममता बनर्जी ने संकल्प लिया कि अब वे केवल मुख्यमंत्री के रूप में इस बिल्ंिडग में प्रवेश करेंगी. इस के बाद ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बन कर ही वहां प्रवेश किया.

जयललिता ने फिल्मों से निकल कर राजनीति में अपनी जगह बनाई. दक्षिण भारत में उन को ‘अम्मा’ के रूप से जाना जाता है. वे तमिल फिल्मों की सुपरस्टार थीं. जितनी सफलता उन को फिल्मों में मिली, उतनी ही सफल वे राजनीति में भी हुईं. जयललिता ने 300 से ज्यादा फिल्में कीं और 6 बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री बनीं. जयललिता ने 15 साल की उम्र में कन्नड़ फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था. जयललिता उस दौर की पहली ऐसी अभिनेत्री थीं जिन्होंने स्कर्ट पहन कर काम किया था.

तमिलनाडु की राजनीति में जयललिता का करिश्माई व्यक्तित्व था. इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जब 2014 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की आंधी चल रही थी, उस दौरान जयललिता की पार्टी को तमिलनाडु में 39 में 37 सीटों पर जीत मिली थी.

एक खूबसूरत, मन मोह लेने वाली अभिनेत्री से तमिलनाडु की 6 बार मुख्यमंत्री बनने का सफर आसान नहीं रहा है. जयललिता ने अपनी जिंदगी में कई उतारचढ़ाव देखे थे. आय से ज्यादा संपत्ति को ले कर जयललिता काफी विवादों में रहीं. अपनी मेहनत से जो मुकाम जयललिता ने हासिल किया वह किसी और के खाते में नहीं है. जयललिता ने कट्टरवादी विचारधारा को नहीं अपनाया. कट्टरवादी विचारों पर चल कर महिलाएं नेता नहीं, केवल पिछलग्गू ही बन सकती हैं.

महिलाओं के लिए काम नहीं करते कट्टरपंथी

कट्टरपंथी विचारों वाले लोग महिलाओं को राजनीति में आगे नहीं लाते. वे महिलाओं के मुद्दों पर काम भी नहीं करते. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि हर धर्म महिलाओं को आजादी नहीं देना चाहता. वह चाहता है कि महिलाएं केवल घरगृहस्थी, पूजापाठ में लगी रहें. जो पुरुष कहे उस को ही मान लें. पति और बेटों के लिए व्रत रखे और धर्म के काम करने वालों की सेवा करे.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) द्वारा समर्थित भाजपा सरकार की विभिन्न नीतियों के तहत महिलाओं की दुर्दशा को उजागर करने के लिए अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (एआईडीडब्ल्यूए) द्वारा राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था. आयोजकों ने कहा कि इस से महिलाओं के जीवन पर भारी असर पड़ा. इस में मुद्रास्फीति, महिलाओं पर हिंसा, नौकरी में शोषण और वेतन असमानता जैसे मुद्दे शामिल हैं.

एआईडीडब्ल्यूए की संरक्षक बृंदा करात ने कहा, ‘मौजूदा शासन ‘हिंदुत्व’ शब्द गढ़ने वाले विनायक दामोदर सावरकर के नक्शेकदम पर चल रहा है, जिस का असर देश की आधी आबादी पर दिख रहा है. सावरकर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि वेदों के बाद मनुस्मृति हिंदुओं के लिए मार्गदर्शक पाठ है और हम जानते हैं कि यह प्राचीन पाठ महिलाओं के सामाजिक जीवन के बारे में क्या सु?ाव देता है.’

सरकार ने सामान्य वर्ग की महिलाओं के लिए अलग से कोई काम नहीं किया है. महिलाओं से वोट हासिल करने के लिए भाजपा तमाम हथकंडे अपनाती है. महिला हितों की जब बात आती है तो भाजपा नेता इस बात का तर्क देते हैं कि उन्होंने महिलाओं की बेहतरी के लिए तीन तलाक को खत्म करने का काम किया है. यह बात सही नहीं है. पहले तो तीन तलाक का मसला महिलाओं के एक छोटे से वर्ग मुसलिम महिलाओं के हित से जुड़ा है. दूसरी बात, तीन तलाक खत्म नहीं हुआ है. एक ही बार में तीन बार तलाक तलाक तलाक कह कर तलाक देने की पंरपरा को खत्म किया है. इस से तलाक होने या महिलाओं की दशा में कोई फर्क नहीं पड़ा है. हिंदू महिलाओं के हित में कोई भी कानून नहीं बना है. सामान्य वर्ग की महिलाएं आज भी अपनी कमाई और घर में खर्च के फैसले पति से पूछ कर करती हैं.

संसद और विधानसभा चुनावों में महिलाओं को आरक्षण देने वाला बिल भाजपा नहीं लाई, जबकि इस दौर में भाजपा के पास बिल पास कराने लायक पूरा बहुमत है. असल में भाजपा महिला राजनीति को आगे नहीं बढ़ाना चाहती. जिस तरह से धर्म महिलाओं को पीछे रखना चाहता है उसी तरह से भाजपा भी कर रही है. भाजपा का मातृ संगठन कहे जाने वाले आरएसएस में भी महिला संगठन केवल दिखाने भर के लिए है. संघ की बैठकों में महिलाओं की संख्या न के बराबर होती है. संघ और भाजपा संगठन में भी महिलाओं की संख्या न के बराबर है. भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष और संगठन मंत्री के पद महत्त्वपूर्ण होते हैं. यहां भी महिला नेता नहीं दिखतीं.

दरअसल भाजपा की सोच में ही महिलाओं को ताकतवर पद देना नहीं है. इस कारण ही पिछले 23 सालों में केवल 2 मुख्यमंत्री ही वह दे सकी है. इस दौर में गैरभाजपाई दलों ने 7 महिला नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया है. जब महिलाएं राजनीति में आगे नहीं आतीं तो उस का प्रभाव समाज पर पड़ता है. महिला समाज अपनी हिस्सेदारी को न देख कर निराश और हताश होता है. महिलाओं के कानून बनाने में अहम जिम्मेदारी न होने से उन के हित के कानून नहीं बन पाते.

यूपीए की सरकार के दौरान सोनिया गांधी चेयरपर्सन थीं. उन की रुचि के बाद 2005 में लड़कियों को संपत्ति में अधिकार देने वाला बड़ा कानून बन सका. आज महिलाओं के हित सम?ाने वाली महिला नेताओं की पूरी तरह से कमी दिख रही है. इसी वजह से महिलाओं के हित में कोई कानून नहीं बन रहा है.

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