मृत निर्वसीयती विवाहित पुत्र की संपति में मां को अधिकार देना उस की विधवा के हक पर डाका डालने जैसा है क्योंकि मां तो स्वयं अपने पति की संपत्ति की उत्तराधिकारी है ही.

शांति ने अभी शादीशुदा जिंदगी को ठीक से सम?ा भी नहीं था कि वैधव्य का जिन्न उस के सामने आ खड़ा हुआ. 10 साल की बेटी और 7 साल के बेटे के साथ वह अचानक यों बिना छत के घर की हो जाएगी, उस ने कभी कल्पना भी नहीं की थी. यह तो ससुराल वाले बहुत अच्छे थे जो उसे लगातार यह महसूस करवा रहे थे कि वह अकेली नहीं है. सास का बारबार उसे सीने से लगा लेना न जाने कितने ही खतरों से सुरक्षित होने का हौसला दे रहा था.

लेकिन सपनों की उम्र अधिक लंबी नहीं हुआ करती. उन्हें तो टूटना ही होता है. शांति का भी सुंदर सपना उस समय टूट गया जब पति के नाम पर खरीदे गए मकान को उस ने अपने नाम पर करवाना चाहा. कोर्ट ने जब मृतक के लीगल वारिसों की सूची मांगी तो उसे यह जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 के अनुसार पति की अर्जित की हुई संपति में उस के बच्चों के अतिरिक्त पति की मां भी बराबर की हिस्सेदार है.

अधिक आश्चर्य तो तब हुआ जब पति की मां ने मकान पर अपने हिस्से को शांति के पक्ष में रिलीज नहीं किया. उन का कहना था कि शांति को इस घर में रहना है तो शौक से रहे. यदि वह इसे बेच कर मायके या कहीं और जाना चाहती है तो उसे इस मकान का खयाल छोड़ देना होगा.

सोचा तो शांति ने यही था कि इस मकान को बेच कर जो भी रुपयापैसा मिलेगा उस से वह अपना और अपने बच्चों का भविष्य बनाने की कोशिश करेगी लेकिन अब यह उसे संभव नहीं लग रहा था क्योंकि स्वयं उस के पास आय का कोई स्रोत नहीं था और यदि उसे ससुराल वालों के रहमोकरम पर पलना है तो फिर बच्चों का भविष्य कैसे बना पाएगी. मुकदमेबाजी में उल?ाने का भी कोई मतलब नहीं था. जब खाने को ही पैसा नहीं है तो वकीलों को देने के लिए कहां से आएगा. वैसे भी कानून उस के पक्ष में नहीं था.

सास की मरजी

यहीं से उन के आपसी रिश्तों में कड़वाहट घुलने लगी. जो सास कभी मां की तरह स्नेह करती थी वह अब प्रतिद्वंद्वी बन सामने तनी हुई थी. केवल प्रतिद्वंद्वी ही नहीं, बल्कि अब तो चोरी और सीनाजोरी वाली नौबत भी आ चुकी थी. रहना है तो सास की मरजी से रहो वरना अपनी राह देखो.

शांति जैसी बहुत सी महिलाएं हैं जो कानून के इस पक्ष के कारण आर्थिक और मानसिक परेशानियां ?ोलती हैं. समाज में यों भी किसी युवा विधवा महिला का जीना आसान नहीं है, ऐसे में यदि उस का आर्थिक पक्ष भी कमजोर हो तो कोढ़ में खाज वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है. पति को खोने का गम, बच्चों की जिम्मेदारी के साथसाथ स्वयं को लोगों की तीखी निगाहों से बचाए रखना भी कम मुश्किल काम नहीं. पगपग पर जहां लुटेरे बैठे हों तो विधवा की आधी शक्ति तो इन्हीं निरर्थक प्रयोजनों में नष्ट हो जाती है.

मृत निर्वसीयती विवाहित पुत्र की संपति में मां को अधिकार देना उस की विधवा के हक पर डाका डालने जैसा है क्योंकि मां तो स्वयं अपने पति की संपत्ति की उत्तराधिकारी है ही, ऐसे में उसे मृत विवाहित पुत्र का उत्तराधिकार देना कहां तक उचित है?

कानूनन किसी भी व्यक्ति को अपनी वसीयत बनाने का अधिकार होता है और हरेक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में यह काम अनिवार्य रूप से करना ही चाहिए ताकि उस की मृत्यु के बाद उस के वारिसों को किसी भी प्रकार की कानूनी अड़चन का सामना न करना पड़े. अमूमन ऐसी सलाह किसी भी उम्रदराज व्यक्ति को दी जाती है लेकिन आमतौर पर स्वस्थ युवा व्यक्ति, जिस की मृत्यु की कोई आसन्न शंका न हो, की असामयिक मृत्यु होने पर उस की आश्रित विधवा को ऊपर वर्णित परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है.

हमारे यहां अमूमन वसीयत बनाने का चलन नहीं है और गांवों में तो संपत्ति के विवाद में हत्याएं तक हो जाती हैं. दूरदराज में आज भी विधवा विवाह का प्रचलन नहीं है और युवा विधवाएं भी पति की मृत्यु के बाद वहीं ससुराल में ही रहती हैं. बहुत बार तो पुत्र की संपत्ति को बचाने के लिए मातापिता अपनी विधवा बहू को उस के देवर आदि के साथ नाते पर भी बिठा देते हैं. फिर चाहे वह महिला उस रिश्ते में सहज हो या न.

विधवाओं की समस्या

ऐसे में इस अप्रासंगिक कानून के कारण कितनी युवा विधवाएं विपरीत परिस्थितियां भोगने के लिए शापित होती होंगी, इस के आंकड़े शायद किसी के भी पास नहीं होंगे. यदि पति की अर्जित संपत्ति पर केवल उस की पत्नी और बच्चों का ही अधिकार हो तो वह महिला अपनी मरजी से जीने का फैसला ले सकती है क्योंकि तब उस पर किसी अन्य की ठेकेदारी नहीं थोपी जा सकती.

ऐसा एक उदाहरण पिछले दिनों देखने में आया. गांव में हमारे पड़ोस में रहने वाली 32 वर्षीया रचना के पति राजेश की दिल का दौरा पड़ने से आकस्मिक मृत्यु हो गई. बैंक खातों की जानकारी से पता चला कि राजेश के नाम लगभग 5 लाख की फिक्स्ड डिपौजिट है लेकिन राजेश ने उस में किसी को नौमिनी नहीं किया. भुगतान प्राप्त करने के समय बैंक ने रचना को एक फौर्म दिया जिस में उसे अपनी सास के हस्ताक्षर करवाने थे.

फौर्म में लिखा था कि यदि यह रकम रचना के बैंक खाते में जमा की जाती है तो सास को कोई आपत्ति नहीं होगी. सास अपनी बहू के साथ सहानुभूति दिखाते हुए उस फौर्म पर हस्ताक्षर करने लगी लेकिन उस के छोटे बेटे यानी रचना के देवर ने अपनी मां को ऐसा करने से रोक दिया और उस रकम में मां के हिस्से की मांग की. पैसा आता देख कर मां की सहानुभूति भी हवा हो गई और उस ने हस्ताक्षर करने से मना कर दिया.

अब रचना के पास 2 ही विकल्प थे. पहला तो यह कि वह अपने पति की कमाई पर सास का अधिकार स्वीकार कर के उस का हिस्सा उसे दे दे और दूसरा यह कि वह इस रकम पर कोई क्लेम ही न करे और उसे यों ही विवादित छोड़ दे यानी ‘न खाऊंगी न खाने दूंगी’. कानून की मदद तो उसे मिलने से रही. रचना को ये दोनों ही परिस्थितियां स्वीकार्य नहीं थीं.

उत्तराधिकार अधिनियम में मृतक की मां को उस का लीगल वारिस मानना कहां का न्याय है, वह भी तब जबकि पुरुष विवाहित ही नहीं बल्कि बालबच्चों वाला भी है. क्या पति की अर्जित संपति पर केवल और केवल उस की पत्नी और बच्चों का अधिकार नहीं होना चाहिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि यह अधिनियम सबकुछ जानतेबू?ाते हुए ही बनाया गया हो ताकि महिलाओं को अपने नियंत्रण में रखा जा सके?

पति के गुजर जाने के बाद युवा स्त्रियां समाज को बिना चारदीवारी के तालाब सी लगती हैं जिस का पानी कोई भी इस्तेमाल कर सकता है. ऐसे में यदि उन के आर्थिक संबल की भी बंदरबांट होने लगे तो वे किस से शिकायत करें? किसी भी परेशानी में अंतिम सीमा तक जाने के बाद थकहार कर व्यक्ति कानून और अदालत का ही सहारा लेता है और यदि वही शोषक हो तो पीडि़त अपनी व्यथा किस के सामने रखेगा?

मां की उत्तराधिकारी

यहां इन परिस्थितियों का दूसरा पहलू देखा जाना भी बहुत आवश्यक है. कई मामलों में मां अपने जीवनयापन के लिए केवल अपने मृतक पुत्र पर ही आश्रित होती है. कारण कई हो सकते हैं, मसलन मृतक के पिता का कोई निश्चित आय स्रोत न हो, पिता किसी गंभीर बीमारी से ग्रसित हो, मां विधवा, परित्यक्ता या तलाकशुदा हो आदि. ऐसे में यदि मां को पुत्र का उत्तराधिकार नहीं मिले तो वह बेसहारा हो जाएगी. ऐसी स्थिति में मां के मानवीय पक्ष भी विचार किए जाने आवश्यक हैं.

सरकार को उत्तराधिकार कानून की इस कमी की तरफ ध्यान दे कर इस में आवश्यक संशोधन करना चाहिए. यदि मां को उत्तराधिकारी बनाया जाना आवश्यक ही हो जाता है तो कानून में कम से कम यह प्रावधान अवश्य रखना चाहिए कि मां को यह अधिकार तभी मिले जब वह पूर्णतया अपने मृतक पुत्र पर ही आश्रित हो अन्यथा विवाहित पुरुष की अर्जित संपत्ति पर प्रथम श्रेणी उत्तराधिकार का हक केवल उस की पत्नी और बच्चों का होना चाहिए. मां को पिता की तरह दूसरी श्रेणी का अधिकारी बनाया जा सकता है.

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