इन दिनों एमेजौन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही वैब सीरीज ‘जुबिली’ में मकसूद के किरदार में शोहरत बटोर रहे अभिनेता नरोत्तम बेन के लिए इस मुकाम तक पहुंचना आसान नहीं रहा. जबलपुर में 13 वर्ष तक थिएटर करने के बाद 2004 से मुंबई में थिएटर और फिल्मों से जुड़ कर वे काफी अच्छा काम करते आए हैं. उन्होंने कई सीरियल किए. ‘चलो दिल्ली’, लूटकेस’, ‘आखेट’, ‘मिमी’ सहित कई फिल्में कीं. अब वैब सीरीज ‘जुबली’ ने उन्हें अचानक एक अलग पहचान दिला दी है पर वे आज भी रंगमंच व लोक गायकी से जुड़े हुए हैं. वे 2 फिल्में व एक अन्य वैब सीरीज भी कर रहे हैं.

एक बातचीत में नरोत्तम बताते हैं कि कैसे कला के प्रति उन की रुचि जागृत हुई. वे कहते हैं, ‘‘मैं मूलतया जबलपुर का रहने वाला हूं. मेरे घर में या ननिहाल पक्ष में भी कला का कोई माहौल नहीं रहा पर जब मैं बचपन में थोड़ा सम?ादार हुआ, तभी से अभिनय करने लगा था. फिल्म पत्रिकाएं पढ़ते हुए मु?ो लगने लगा था कि अब तो मु?ो अभिनेता ही बनना है. फिर मेरे भाई के दोस्त मु?ा से मिमिक्री करवाते थे. भले ही वह ऐसा मेरा मजाक उड़ाने के लिए करते रहे हों, मगर इस तरह से मेरी ट्रेनिंग चल रही थी. फिर मैं जबलपुर में ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ गया. वहां पर थिएटर के जो वर्कशौप हुआ करते, उन का हिस्सा बन कर अभिनय सीखता रहा. उस के बाद मैं ने एनएसडी, दिल्ली से भी 45 दिन का अभिनय का वर्कशौप किया.

‘‘मैं बुंदेलखंडी भाषा में फोक गीत भी गाता हूं. मगर मेरी संगीत की कोई ट्रेनिंग नहीं है. बस, यों ही गातेगाते मेरा गला खुल गया. मैं ज्यादातर फोक ही गाता हूं, जिसे लोग काफी पसंद करते हैं. मेरा एक अलबम है- ‘चिलम तंबाकू डब्ब फांके’ जो काफी लोकप्रिय है. कई लोगों ने मेरे इस गीत की पायरेसी वीडियो बना कर यूट्यूब पर डाल रखे हैं. मतलब मेरी आवाज व मेरे वीडियो को ले कर लोगों ने अपनेअपने वीडियो बना कर डाले हैं. यह अलबम पूरे विश्व में बसे भारतीयों तक पहुंच चुका है पर अभिनय की ट्रेनिंग जबलपुर में रहते हुए ही हुई है.’’

मुंबई आने की जर्नी को ले कर वे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई 2004 में फिल्मों में अभिनय करने का सपना ले कर पहुंचा था. मु?ो हीरो नहीं, अभिनेता बनना था. ईमानदारी से कहूं तो मैं छोटी उम्र में ही मुंबई आना चाहता था पर मैं घर से भाग कर नहीं आना चाहता था पर सही दिशा नहीं मिल रही थी. सिर्फ यह सम?ा में आया कि थिएटर से जुड़ने के बाद फिल्मों से जुड़ना आसान हो जाएगा. इसी कारण मैं ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ा था. इरादा तो सिर्फ एक साल का था पर फिर कुछ हालात ऐसे रहे कि 13 साल तक वहीं रह गया.

‘‘मेरी सोच यह थी कि नाटक करते हुए कोई न कोई निर्देशक मु?ो देखेगा और मु?ो मुंबई ले जाएगा. मैं 13 साल सुबह से शाम तक सिर्फ नाटक ही करता रहा. ‘विवेचना’ नाट्य ग्रुप से जुड़ने के बाद मु?ो एहसास हुआ कि मैं गा भी सकता हूं. मैं लिख भी सकता हूं. इसी के साथ सम?ा आई कि हर चीज की विधिवत ट्रेनिंग भी जरूरी है. 13 सालों में मु?ो बहुतकुछ मिला और मैं ने भी बहुतकुछ दिया. फिर 2004 में ?ाला ले कर संघर्ष करने के लिए मुंबई पहुंच गया.’’

बातचीत में नरोत्तम अपने लोकप्रिय नाटकों के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरा बहुचर्चित नाटक ‘निठल्ले की डायरी’ है जोकि हरिशंकर परसाई के एक उपन्यास पर आधारित है. इस के 100 से अधिक शो हुए. मैं निठल्ला बनता था. यह नाटक अभी भी चल रहा है पर अब निठल्ला का किरदार दूसरा कलाकार कर रहा है. दूसरा चर्चित नाटक रहा- ‘भोले भेडि़या’ यानी कि हबीबजी जिसे चरणदास चोर कहते हैं पर हम ने इसे बुंदेली में किया था और मैं इस में भेडि़या का किरदार निभाता था.

‘‘इस के अलावा ज्ञान रंजन की एक कहानी ‘फैंके इधर उधर’ पर एक नाटक किया. वह भी काफी लोकप्रिय हुआ. इस के अलावा मुंबई आने के बाद भी मैं रंगमंच से जुड़ा रहा. मुंबई के चर्चित नाटकों में ‘इलहाम’ व ‘ऐसा कहते हैं’ के सर्वाधिक शो हुए. इन 2 नाटकों ने मुंबई रंगमंच पर मु?ो अच्छी पहचान दी.’’

अपनी दिलचस्पी को ले कर वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं तो थिएटर करना ही नहीं चाहता था. मुंबई पहुंचने के बाद मैं सुबह से शाम तक भटकता हुआ औडिशन दिया करता था. मानव कौल अपना पहला म्यूजिकल प्ले पृथ्वी थिएटर पर करने वाले थे. इस से पहले मानव कौल ने म्यूजिकल नाटक नहीं किए थे. मेरा एक दोस्त उन के साथ काम कर रहा था. उस दोस्त के मारफत मानव कौल ने मु?ो मिलने के लिए बुलाया. मानव कौल से लंबी बातचीत हुई. अभिनय व संगीत पर भी चर्चा हुई. जब मैं उन से विदा लेने लगा तो उन्होंने पूरे अधिकार के साथ मु?ो नाटक की पटकथा देते हुए कहा कि इसे पढ़ लो, इस में आप को अभिनय करना है. मैं ने मना करते हुए कहा कि मु?ो केवल फिल्मों में अभिनय करना है. मानव कौल ने कहा, ‘आप इसे पढ़ें और सोचें, सबकुछ हो जाएगा. मु?ो विश्वास है कि आप कर लेंगे.’

‘‘उस नाटक ने मु?ो पृथ्वी थिएटर की तरफ खींचा. उस नाटक का नाम, ‘ऐसा कहते हैं’ था. उस नाटक का मेरा किरदार पहले शो में ही हिट हो गया. उन दिनों एचबीओ चैनल हुआ करता था. यूके की टीम एक सीरियल बना रही थी- ‘मुंबई कालिंग’, वह टीम भी हमारा यह नाटक देखने आई थी. नाटक का शो खत्म होने के बाद उस टीम के लोगों ने मु?ो एचबीओ के सीरियल ‘मुंबई कालिंग’ में अभिनय करने का अवसर दे दिया. उस के बाद मु?ो पहला चर्चित सीरियल मिला ‘तेरे मेरे सपने’. फिर उस के बाद मु?ो विनय पाठक की फिल्म ‘चलो दिल्ली’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

‘‘इस फिल्म से मु?ो काफी फायदा मिला. बड़ी प्यारी सी कहानी है. उस से पहले जो मैं डेढ़ साल तक ?ाला लटका कर भटकते हुए औडिशन दे रहा था उस से कुछ नहीं मिला तो सम?ा में आया कि फिल्म करने के लिए साथ में थिएटर भी करते रहना चाहिए तो मेरी अभिनय की तैयारी से किसी को कोई लेनादेना नहीं था. लोगों ने थिएटर में मेरा काम देखा और मु?ा पर भरोसा किया. इस के बाद मैं ने ‘एमटीवी रिऐलिटी’, ‘लूटकेस’, ‘मिमी’ जैसी फिल्में की हैं.’’

फिल्म ‘आखेट’ पर विस्तार से वे यों बताते हैं, ‘‘रवि बुले निर्देशित यह फिल्म मानवीय संवेदनाओं की जांचपड़ताल करने के साथ ही टाइगर बचाओ, जंगल बचाओ की बात करने वाली है. इस में पहले दृश्य से अंतिम दृश्य तक मैं छाया हुआ हूं. इस में मैं ने मुर्शीद मियां का किरदार निभाया था जो कि जंगल की सैर व शिकार करने वालों का गाइड है. फिल्म की कहानी बहुत मार्मिक है. यह फिल्म मेरे दिल के करीब है. यह मानवीय संवेदना, जीवन कैसे चल रहा है, की कहानी है. यह फिल्म ?ाक?ार कर रख देती है.’’

नरोत्तम बेन एमेजौन प्राइम पर रिलीज सीरियल ‘जुबली’ में अपने अभिनय के अनुभव के बारे में कहते हैं, ‘‘जी हां, औडिशन दे कर ही इस वैब सीरीज से जुड़ा. मैं इस में मेकअपमैन मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं. इस के निर्देशक विक्रमादित्य मोटावणे के साथ काम करने की मेरी दिली इच्छा भी पूरी हुई.’’

‘जुबली’ में निभाए अपने किरदार के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं इस में मकसूद के किरदार में नजर आ रहा हूं जो कि लखनऊ से मुंबई आता है. उसे जमशेद भाई अपने साथ लखनऊ से ले कर आते हैं. वह उन का निजी मेकअपमैन के अलावा बहुतकुछ है.’’

रंगमंच में आ रहे बदलाव को ले कर वे कहते हैं, ‘‘अब प्रयोग वाला मसला ज्यादा होने लगा है. इस के अलावा हिंदी रंगमंच को कई मौलिक नाटक मिल गए हैं. 90 के दशक में नए नाटकों के नाम कम सुनाई देते थे. अब हिंदी रंगमंच पर कई नएनए लेखक आ गए हैं. वे बहुत अच्छे नाटक लिख रहे हैं जिन्हें दर्शक पसंद भी कर रहे हैं. इस दौर में हिंदी रंगमंच पर मौलिक कहानियों व पटकथा पर काफी काम हुआ है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘मैं मुंबई और जबलपुर के थिएटर की तुलना करूं तो जबलपुर में भी नाट्य गृह 900 लोगों के बैठने के लिए हैं और सभी हमेशा हाउसफुल रहते हैं. मगर हिंदी रंगमंच की बदौलत भोजन करना संभव नहीं है. पहले लगता था कि छोटे शहरों में थिएटर करना मुश्किल है पर फिर सम?ा में आया कि मुंबई में थिएटर करना ज्यादा मुश्किल है. यहां रिहर्सल के लिए किराए पर जगह लेना भी काफी खर्चीला होता है. हिंदी रंगमंच को अनुदान नहीं मिलता. मैं ने सुना है कि गुजराती और मराठी में थिएटर कर के लोगों के घर आराम से चल जाते हैं.’’

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