पहले पटना, फिर बेंगलुरु में भाजपा के खिलाफ 26 राजनीतिक दलों के जुटान के बाद विपक्षी दलों को एक मंच पर लाने की कवायद पटना से शुरू हुई. तीसरे चरण की बैठक मुंबई में होगी.
इस गठबंधन को इं.डि.या. नाम देना राष्ट्रवाद पर भाजपा के एकाधिकार को चुनौती देने की सोचीसम?ा रणनीति है. इस में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा का मूल संदेश भी शामिल है, जो देश के सभी समुदायों, जातियों और अलगअलग संस्कृतियों के बीच भाईचारा मजबूत कर के भारत की धर्मनिरपेक्षता व अखंडता को बचाए रखने की कोशिशों पर आधारित है.
बीते कुछ सालों में भाजपा ‘नेशन फर्स्ट’ का तमगा पहन कर खुद को सब से बड़ा ‘राष्ट्रवादी’ घोषित करने में लगी है जबकि उस का ‘हिंदू राष्ट्रवाद’ देश के संवैधानिक सिद्धांतों के बिलकुल विपरीत है और कोरा सनातनी धर्मी वाद है. 1947 में जब देश आजाद हुआ तब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ यानी आरएसएस का राष्ट्रवाद से दूरदूर तक कोई लेनादेना नहीं था. देश की आजादी की लड़ाई में आरएसएस की कोई भूमिका कभी नहीं रही, मगर इतने सालों बाद जब उस की बनाई राजनीतिक पार्टी को सत्ता की चाशनी चाटने का अवसर मिला तो अब उन का अपनी तरह का ‘राष्ट्रवाद’ फूटफूट कर बह रहा है.
पिछले 2 दशकों से आरएसएस और भाजपा की बहुसंख्यकवादी नीतियां ‘राष्ट्रवाद राष्ट्रवाद’ का नारा लगा कर हिंदू आबादी को अपनी ओर खींचे रखने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की तकनीक अपनाए हुए है. सनातनी पूजापाठी और अंधविश्वासी हिंदू राष्ट्र बनाने की ऐसी धुन लगी है कि देशभर में हिंसा, आगजनी, नफरती भाषणों का बाजार गरम है. ताजा मामला मणिपुर में औरतों की नंगी परेड का है, जिसे दुनिया ने देखा और शर्म से आंखें भर आईं.
उल्लेखनीय है कि जिस दौरान यह अमानवीय और देश को दुनिया के सामने शर्मसार करने वाली घटना मणिपुर में घटित हुई उस वक्त देश के गृहमंत्री अमित शाह के दौरे मणिपुर में बारबार लग रहे थे.
2 महीने से एक राज्य सुलग रहा है, आदिवासी समाज पर हिंसा हो रही है, हत्याएं की जा रही हैं, महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं, उन की नंगी परेड कराई जा रही है, उन के वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर पोस्ट किए जा रहे हैं, मगर देश के गृहमंत्री उस को काबू करने में नाकाम हैं.
इस से ज्यादा इस देश के लिए शर्म की बात कोई और हो ही नहीं सकती. प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं, दुनिया अपनी समस्याएं सुल?ाने के लिए आज भारत की ओर देख रही है. लेकिन, क्या वे बताएंगे कि भारत की महिलाएं अपनी इज्जत बचाने के लिए किस की ओर देखें?
2 दशकों से भाजपा देश में हिंदू, मुसलिम, सिख, ईसाई, दलित, आदिवासियों के दिलों में एकदूसरे के प्रति नफरत की खाईयां खोदने में लगी हैं और वास्तव में जो दल धर्मनिरपेक्ष व्यवहार करते हैं उन्हें राष्ट्रवाद के फ्रेमवर्क से ही बाहर खदेड़ दिया गया है. जब कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ‘भारत जोड़ो’ यात्रा शुरू की और देशभर में घूम कर हर धर्म, जाति, संप्रदाय को साथ आने का आह्वान किया, प्रेम से जीने का मंत्र दिया और भाजपा के भेदभावपूर्ण बहुसंख्यवाद और हिंसक राष्ट्रवाद का चेहरा उजागर किया तब जिस तरह इस यात्रा से लोगों का जुड़ाव हुआ, वह यह सम?ाने के लिए काफी है कि इस देश में कोई भी आम आदमी हिंसा नहीं चाहता. वह अपने पड़ोसी के साथ प्रेम और विश्वास से रहना चाहता है. फिर चाहे वह पड़ोसी किसी भी धर्म, जाति, संप्रदाय से ताल्लुक रखता हो.
राहुल गांधी के विचार और भावनाओं, जिन में देश की जनता की भावनाएं भी समाहित हैं उन को मजबूती देने के लिए भाजपाविरोधी विपक्षी गठबंधन ने अपने एलाएंस का नाम ‘इंडिया’ रखा है. इस गठबंधन का पूरा नाम इंडियन नैशनल डैवलपमैंटल इनक्लूसिव अलायंस है.
हालांकि इस नाम को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा क्योंकि इस सांकेतिक महत्त्व वाले नाम को भाजपा सहजता से नहीं लेगी. मगर इस नाम के साथ गठबंधन के दल देश की जनता को यह संदेश देने में तो कामयाब हो ही गए हैं कि उन की लड़ाई सत्ता हथियाने की नहीं, बल्कि इंडिया को बचाने की है.
‘इंडिया’ से दहला भाजपा का दिल
यह पहली बार नहीं है कि अनेक राजनीतिक दलों ने एक मंच पर आ कर सत्ता में बैठी पार्टी को ललकारा है. आज वह वक्त भी याद करने की जरूरत है जब इस से पहले भी कई बार देश ने विपक्षी एकजुटता देखी और सरकारें बदलती देखीं.
याद करें जब 1977 में पहली बार विपक्षी नेता साथ आए तो सत्ता उलट गई और गठबंधन की सरकार ने सत्ता की बागडोर संभाली. देश में इमरजैंसी के बाद पहली बार 1977 में विपक्षी नेता एकसाथ आए थे. तब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैरकांग्रेसी सरकार का गठन हुआ था.
इस के बाद 1989 में जनता पार्टी ने अलगअलग दलों के समर्थन से वीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनाई थी. फिर एनडीए ने 1996 में भाजपा ने अटल बिहारी बाजपेयी को चेहरा घोषित कर चुनाव लड़ा और भाजपा सब से बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी. 2004 के चुनाव में कांग्रेस ने छोटेछोटे दलों के साथ मिल कर बिना प्रधानमंत्री चेहरे के चुनाव लड़ा और जीता था, तब यूपीए में कांग्रेस के नेता के रूप में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे. 2009 में फिर मुकाबला एनडीए बनाम यूपीए में हुआ. यह वह समय था जब राजनीतिक पार्टियां पूरी तरह 2 खेमों, यूपीए और एनडीए में बंट गई थीं. उस चुनाव में भी यूपीए की जीत हुई.
विपक्षी पार्टियों ने मिल कर ‘इंडिया’ नाम से जो गठबंधन बनाया है उस की टैगलाइन है- ‘जीतेगा भारत.’ उधर 38 पार्टियों वाली एनडीए ने दिल्ली में 2024 की रणनीति पर मंथन शुरू कर दिया है. अगला लोकसभा चुनाव एनडीए बनाम इंडिया होगा. एनडीए पर मंथन इसलिए जरूरी हो गया है क्योंकि इस बार 2019 को दोहरा पाना एनडीए के लिए आसान नहीं होगा. भारतीय राजनीति में ऐसा पहली बार होगा जब इतनी सारी पार्टियों से मिल कर बने 2 गठबंधन आपस में भिड़ेंगे.
नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए को पिछले 2 लोकसभा चुनावों में भारी जीत मिली. उस सिलसिले को बरकरार रखने और जीत की हैट्रिक बनाने की चुनौती अब मोदी और शाह के सामने है. 2019 में विपक्ष उस तरह से एकजुट नहीं था, जिस की तैयारी इस बार चल रही है. उस के साथ ही जिस तरह से 2019 में भाजपा मजबूत दिख रही थी, वैसी मजबूत स्थिति में वह इस बार नहीं है.
हाल ही में कर्नाटक विधानसभा चुनावों में और पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनावों में करारी शिकस्त पा कर उस के हौसले डगमगाए हुए हैं. इस बार भाजपा की राह उतनी आसान नहीं है जितनी 2014 और 2019 में थी. तब उस के पास बहुत बड़ा मुद्दा था राममंदिर का, जिस ने जनता के दिलों को छुआ था. मगर अब वह मनोरथ पूरा हो गया है. राममंदिर बन कर तैयार होने की कगार पर है. लिहाजा, वह मुद्दा अब पुराना हो गया. ध्रुवीकरण की आस और सिटिजंस (एनआरसी) और यूनिफौर्म (सिविल कोड) पर भी भाजपा को मुंह की खानी पड़ रही है.
शाहीन बाग का प्रकरण लोग भूले नहीं हैं. कृषि कानूनों को जबरन लागू करने की जिद, किसानों को डेढ़ साल तक सड़कों पर बैठने के लिए मजबूर करना, उन की हत्याएं करना, ये जुल्मोसितम लोग कैसे भूल जाएंगे.
एनआरसी का हल्ला मचा कर मुसलमानों को भयभीत करने की कोशिश और अब समान अचार संहिता लागू करने का शोर मचा कर पर्सनल लौ से छेड़छाड़ जनता को रास नहीं आया है. न मुसलमानों को, न ईसाईयों को, न सिखों को और न आदिवासी जातियों/ जनजातियों को. यूनिफौर्म सिविल कोड अगर असल में कौंट्रेक्ट एक्ट या ट्रांसफर औफ प्रौपर्टी एक्ट की तरह यूनिफौर्म हुआ तो पंडों को सब से ज्यादा नाराजगी होगी.
यही वजह है कि मोदी सरकार को एनआरसी और यूसीसी दोनों ही मुद्दों पर अपनी खाल में वापस दुबकना पड़ रहा है. मणिपुर को बहुल बनाने की हिंदू की चाह में हत्या, बलात्कार, आगजनी और औरतों को नंगा कर के घुमाने का जो घिनौना खेल खेला गया है उस ने मोदी सरकार को बैकफुट पर ला कर खड़ा कर दिया है. ऐसे में विपक्षी पार्टियों के गठबंधन ‘इंडिया’ से मोदी सरकार सहमी हुई है.
कर्नाटक में पराजय से बौखलाहट
भाजपा के शीर्ष नेता कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत सुनिश्चित करने के लिए करीब एक साल से वहां हिंदूमुसलिमकरण की कोशिशों में जुटे थे. मुसलिम समुदाय पर वाक्य बाणों के हमले किए गए. हलाला, हिजाब से ले कर अजान तक के मुद्दे उछाले गए. ऐन चुनाव के समय बजरंगबली की भी एंट्री हो गई.
कांग्रेस ने जब बजरंग दल के उत्पात को देख कर उसे बैन करने का वादा किया तो भाजपा ने बजरंग दल को सीधे बजरंग बली से जोड़ दिया और पूरा मुद्दा भगवान के अपमान का बना दिया. कुल जमा यह कि चुनाव से पहले भाजपा ने कर्नाटक में जम कर हिंदुत्व कार्ड खेला लेकिन उस का दांव काम नहीं आया. सनातनी हिंदू धार्मिक ध्रुवीकरण की तमाम कोशिशें बेकार साबित हुईं और भाजपा कर्नाटक में औंधे मुंह गिरी.
कर्नाटक में भाजपा न तो अपने कोर वोटबैंक लिंगायत समुदाय को अपने साथ जोड़े रख पाई और न ही दलित, आदिवासी, ओबीसी और वोक्कालिंगा समुदाय का ही दिल जीत सकी. भाजपा को अपने कोर वोटबैंक पर जबरदस्त भरोसा था लेकिन कर्नाटक में भाजपा का कोर वोटबैंक (लिंगायत) टूट गया. कित्तूर कर्नाटक (मुंबई-कर्नाटक), जहां लिंगायत अच्छी तादाद में हैं, वहां भी भाजपा को कड़ा ?ाटका मिला और उसे कई सीटें गंवानी पड़ीं. जबकि कांग्रेस मुसलिमों से ले कर दलित और ओबीसी तक को मजबूती से जोड़े रखने के साथसाथ लिंगायत समुदाय के वोटबैंक को भी साधने में सफल रही.
दरअसल भाजपा और आरएसएस देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की एकसूत्री योजना के तहत अपने सनातनी प्रचार को बढ़ा रहे हैं. धार्मिक कर्मकांड, ब्राह्मणों को शीर्ष पद, अंधविश्वास को बढ़ावा, रूढि़वादिता आदि से भारतीय समाज को अब छुटकारा मिल जाना चाहिए. भाजपा उसे इन्हीं जंजीरों में जकड़ कर रखना चाहती है. मगर इस का जवाब कर्नाटक में 18 फीसदी लिंगायत समुदाय ने उसे बखूबी दे दिया है. लिंगायत समुदाय, जो मंदिर नहीं जाता, पूजा नहीं करता, जिस का मानना है कि मानव शरीर ही मंदिर है, ने भाजपा को चुनाव में पटखनी दे कर साफ कर दिया कि राज्य में भ्रष्टाचार का खात्मा, युवाओं को रोजगार और गरीबी कम करने वाले मुद्दे पर ही वे किसी पार्टी को वोट करेंगे. धर्म, जाति, संप्रदाय जैसे लोगों के बीच खाई पैदा करने वाले मुद्दों पर कोई उन का वोट नहीं पा सकता.
भ्रष्टाचार – भाजपा के कोढ़ में खाज
भ्रष्टाचार के मामले में कर्नाटक में भाजपा नेताओं का गिरफ्तार होना सब से ज्यादा शर्मनाक रहा, जिस के चलते कर्नाटक में चुनाव के वक्त भाजपा को खूब खरीखोटी सुननी पड़ी.
दरअसल बेलगावी में एक ठेकेदार ने भाजपा के मंत्री एस ईश्वरप्पा पर यह आरोप लगा कर आत्महत्या कर ली थी कि मंत्री द्वारा उस से 40 फीसदी कमीशन मांगा जा रहा है. इस के बाद कौन्ट्रैक्टर एसोसिएशन ने राज्य सरकार के मंत्रियों के खिलाफ मोरचा खोल दिया. नतीजा यह हुआ कि ईश्वरप्पा को इस्तीफा देना पड़ा और सरकार की छीछालेदर हुई.
चुनावप्रचार के वक्त राहुल गांधी ने भ्रष्ट राजनेताओं के मुद्दे को खूब भुनाया. राहुल ने कहा, ‘राज्य में घोटाले हर जगह हैं. भाजपा विधायक का बेटा
8 करोड़ रुपए के साथ पकड़ा जाता है तो वहीं दूसरा भाजपा नेता कहता है कि 2,500 करोड़ रुपए में तो यहां मुख्यमंत्री की कुरसी खरीदी जा सकती है. कर्नाटक में जो भ्रष्टाचार हुआ, वह 6 साल के बच्चे तक को पता है. यहां पिछले 3 साल से भाजपा की सरकार है तो पीएम मोदी को भी कर्नाटक में भ्रष्टाचार के बारे में पता होगा.’
कर्नाटक में कांग्रेस ने भाजपा के खिलाफ जो ‘40 फीसदी पे-सीएम करप्शन’ का अभियान चलाया था वह धीरेधीरे बड़ा मुद्दा बन गया. यहां तक कि करप्शन के मुद्दे पर ही एस ईश्वरप्पा को मंत्रीपद से इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के एक अन्य विधायक को जेल जाना पड़ा. यह मुद्दा भाजपा के लिए पूरे चुनावभर गले की फांस बना रहा और पार्टी इस की काट नहीं खोज सकी.
महंगाई और बेरोजगारी ने भाजपा को आईना दिखाया
कर्नाटक विधानसभा चुनाव से पहले जो भी सर्वेक्षण टीवी चैनलों ने किए उस में बेरोजगारी का मुद्दा सब से ऊपर था. वहां युवा बेरोजगारी से परेशान था, मगर भाजपा ने कभी इस मुद्दे को छुआ ही नहीं. जबकि कांग्रेस ने अपने चुनावप्रचार के दौरान बेरोजगारी और महंगाई को ही अपने अहम मुद्दों में शामिल किया.
कांग्रेस ने चुनावप्रचार के दौरान जनमानस से जुड़े 5 वादे किए. उस ने पुरानी पैंशन बहाल करने, 200 यूनिट तक बिजली फ्री देने, 10 किलो अनाज मुफ्त देने, बेरोजगारी भत्ता देने और परिवार चलाने वाली महिला मुखिया को आर्थिक मदद की बात कही. जनमानस से जुड़े इन मुद्दों की वजह से ही कर्नाटक की जनता ने कांग्रेस के सिर जीत का सेहरा बांधा. जैसा अरविंद केजरीवाल के साथ दिल्ली और पंजाब में हुआ.
पश्चिम बंगाल में दीदी ने नहीं गलने दी भाजपा की दाल
पिछले दिनों पश्चिम बंगाल में हुए पंचायत चुनाव में दीदी की पार्टी ने प्रचंड जीत हासिल की है. भाजपा हलकान है कि साम, दाम, दंड, भेद के सारे हथकंडे अपना कर भी वह दीदी के सामने एक बार फिर बौनी साबित हुई. पंचायत चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत कोई पहला मौका नहीं है.
2011 में बंगाल में शुरू हुआ ममता बनर्जी का विजयरथ लगातार पूरी लरजगरज के साथ आगे बढ़ रहा है. चाहे लोकसभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव या अब पंचायत चुनाव, ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस ने सभी में बाजी मारी है. बंगाल पंचायत चुनाव में भाजपा ही नहीं, बल्कि किसी भी विपक्षी पार्टी को एकतिहाई सीट भी हासिल नहीं हुई. ऐसा मालूम पड़ता है जैसे बंगाल में दीदी अजेय हैं. तृणमूल कांग्रेस की जीत से भाजपा हलकान है. दीदी ने उस के अरमानों पर फिर बिजली गिरा दी है.
तृणमूल कांग्रेस को पिछले विधानसभा चुनाव में जहां 48 प्रतिशत वोट शेयर हासिल हुआ था, वह अब की पंचायत चुनाव में बढ़ कर 51.14 प्रतिशत हो गया. यानी बूथ स्तर पर जनजन से जुड़ कर तृणमूल कांग्रेस वहां बहुत मजबूत स्थिति में है. पंचायत चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के वोट शेयरों में भारी गिरावट के साथ ही वाम और कांग्रेस के अप्रत्याशित उभार ने 2024 के लोकसभा चुनाव में राज्य में भाजपा के 35 सीट हासिल करने के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य पर सवाल खड़े कर दिए हैं.
इस चुनाव में भाजपा को 22.88 प्रतिशत वोट शेयर मिला है, जो 2021 विधानसभा चुनाव में मिले 38 प्रतिशत वोट शेयर से कम है. वहीं वाम-कांग्रेस-इंडियन सैक्युलर फ्रंट गठबंधन की बात करें तो पिछले चुनाव में जहां उस का 10 प्रतिशत वोट शेयर था, वह इस बार बढ़ कर 20.80 प्रतिशत हो गया है, यानी दोगुना, यह 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लिए बड़ी चुनौती बनेगा.
गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल पंचायत चुनाव में कई जगह हिंसक वारदातें और हत्याएं हुईं. किस के इशारे पर हुईं, किस ने करवाईं इस की जांचें चल रही हैं. हालांकि भाजपा चुनाव के दौरान हिंसा और खूनखराबे का पूरा ठीकरा तृणमूल कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हुए इसे अपने वोट शेयर में गिरावट की वजह बताने में लगी है मगर पार्टी के ही कुछ जिम्मेदार स्थानीय नेता जानते हैं कि भाजपा के कृत्य और उस की नीतियां पश्चिम बंगाल की जनता को रास नहीं आ रही हैं.
भाजपा वहां जनता के मन को नहीं भांप पा रही है. वहीं खुद प्रदेश भाजपा में आंतरिक संगठनात्मक चुनौतियां भी हैं, जो राज्य में भाजपा के पैर नहीं जमने दे रहीं, फिर ममता बनर्जी का रसूख और बंगाल के लोगों के दिलों में उन की पैठ 2024 में भाजपा को बंगाल में मजबूती दे दे, ऐसा मुश्किल ही लगता है. बावजूद इस के, देश के गृहमंत्री अमित शाह बारबार राज्य से 35 लोकसभा सीटें जीतने की ताल ठोंक रहे हैं.
राज्य भाजपा की अंदरूनी कलह का खुलासा तो खुद भाजपा के राष्ट्रीय सचिव अनुपम हाजरा ने किया है. हाजरा ने कहा, ‘आप यह कह कर खारिज नहीं कर सकते कि संगठन में सबकुछ ठीक है. वोट शेयर में गिरावट के लिए केवल हिंसा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. संगठनात्मक खामियों को पहचानने और उन्हें दूर करने की जरूरत है. राज्य की 42 लोकसभा सीटों में से 35 सीटें जीतने का लक्ष्य संगठन की मौजूदा स्थिति को देखते हुए कठिन ही लगता है.’
हालांकि हाजरा यह भी कहते हैं कि, ‘राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है और जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनावप्रचार के लिए मैदान में उतरते हैं तो विपक्ष में उन के तेवरों से मेल खाता कोई दूरदूर तक नजर नहीं आता है.’ मगर ऐसा कहते वक्त अपनी बात के खोखलेपन का एहसास भी उन्हें बखूबी है.
पश्चिम बंगाल में बूथ स्तर पर भाजपा की पकड़ कितनी मजबूत है, यह पंचायत चुनाव के परिणाम से ही स्पष्ट हो जाता है. उत्तरी बंगाल और आदिवासी बहुल जंगलमहल जिलों के अपने पूर्व गढ़ों में भी भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा है.
दरअसल भाजपा उग्र स्वभाव की पार्टी है तोड़नेफोड़ने में उस का विश्वास है. जबकि बंगाली मानुष ‘रसोगुल्ला’ सा मीठा और कोमल होता है. वह मिलजुल कर प्रेम और शांति से रहने में विश्वास करता है. भाजपा की छवि से वह कतई मेल नहीं बिठा पा रहा है. भाजपा बंगाल में लोगों को भड़का कर, ध्रुवीकरण कर के अपनी जीत सुनिश्चित करना चाहती है.
ध्रुवीकरण उन जगहों पर तो आसानी से हो सकता है जहां 2 धर्मों के खानपान, रहनसहन, पहनावे, विचार में फर्क हो, जैसे उत्तर भारत में हिंदू और मुसलमानों में फर्क साफ नजर आता है, मगर बंगाल में क्या हिंदू, क्या मुसलमान सभी तो बांग्ला बोलते हैं. माछभात दोनों का खास भोजन है. पहनावा भी लगभग समान है. तो जब भोजन व बोली एक तो भाजपा बांटने की लाख कोशिश कर ले, बंगाली मानुष बंट नहीं सकता.
दीदी का जलवा
राजनीतिक हलकों में काफी समय तक ममता बनर्जी को बखेड़ा खड़ा करने वाली अपरिपक्व नेता के तौर पर देखा जाता रहा. उन के बारे में ऐसी राय बनी रही कि उन्हें बड़े परिपक्व नेताओं के बीच नहीं बुलाया जाना चाहिए. पता नहीं कब, कहां, क्या बवाल मचा दें. मगर आज दीदी की चर्चा राष्ट्रस्तर पर है. उन के बगैर विपक्षी एकता या विपक्षी गठबंधन की बात करना ही बेमानी है.
2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर 18 जुलाई को बेंगलुरु में विपक्षी जमावड़े में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी की उपस्थिति ने ‘विपक्षी एकता मंच’ में जो जान फूंकी, उस के बाद से ही भाजपा रक्षात्मक मोड में आ गई है. दीदी ने तो यह कह कर चुटकी ले ली कि, ‘भाजपा एक गिलास नहीं पलट सकती, मेरी सरकार क्या पलटेगी?’
बेंगलुरु में विपक्षी एकता मंच पर ममता बनर्जी और सोनिया गांधी को इतना ऐक्टिव देख कर एनडीए ने पुनर्निर्माण की कवायद शुरू कर दी है. उस के सहयोगियों की तलाश तेज हो गई है. छोटेछोटे क्षेत्रीय दलों को जोड़ने की कोशिश में तमाम शीर्ष नेता शीर्षासन कर रहे हैं. दरअसल कर्नाटक में अपनी दुर्गति और उस के बाद बंगाल पंचायत चुनाव में अपनी छीछालेदर होने के बाद भाजपा बुरी तरह घबरा उठी है.
मां, माटी, मानुष से जुड़ी ममता
ममता ने 2011 में बंगाल के लोगों का दिल एक नारे से जीत लिया था- मां, माटी और मानुष. इस नारे के 3 शब्दों- मां यानी मातृशक्ति, माटी यानी बंगाल की भूमि और मानुष यानी बंगाल के लोग, इन 3 को ममता ने अपने दिल के करीब बता कर बंगाल का दिल जीत लिया था. ममता बनर्जी हमेशा बंगाल के लोगों के हितों पर बात करती हैं. इसी का परिणाम है कि लोग उन्हें हर चुनाव में विजयी बनाते हैं.
ममता हमेशा जमीन से जुड़ी नेता रही हैं. अपने लोगों के लिए वे एक खुली किताब की तरह हैं. सफेद सूती साड़ी, पैर में रबड़ की चप्पल, कंधे पर पर्स की जगह सूती कपड़े का ?ाला टांगे ममता को अपनी मां के घर से पैदल निकलते जिस ने भी देखा वह उसी पल उन के व्यक्तित्व का कायल हो गया.
ममता हमेशा बंगाल के लोगों के बीच रहीं. राजनीति में आने के बाद भी वे बेहद साधारण से उस घर में रहती रहीं जिस की छत टिन की है और जिस के बगल से एक खुली नहर बहती है, जहां मच्छरों का बसेरा है. उन का सब से ज्यादा जुड़ाव अपनी मां गायत्री देवी से था जो अब इस दुनिया में नहीं हैं.
ममता जब भी अपने कालीघाट स्थित उस घर से काम के लिए निकलती थीं तो उन की मां उन्हें बाहर तक छोड़ने के लिए आया करतीं थीं. ममता अपनी गरदन घुमातीं और तब तक अपनी मां को देखा करतीं जब तक कि वे उन की आंखों से ओ?ाल नहीं हो जातीं. मां के घर के भीतर चले जाने के बाद ही वे कार में बैठती थीं. बंगाल के लोगों के लिए यह नजारा आम था. मां के प्रति ममता का वह प्रेम जनता के दिलों में उन के लिए एक स्थायी जगह बना चुका है.
ममता ने बंगाल की जनता के लिए अपने शासनकाल में अनगिनत कल्याणकारी योजनाएं चलाईं. इस का फायदा आम लोगों तक पहुंचा, जिस के चलते बंगाल के लोगों का भरोसा ममता बनर्जी पर कायम हुआ.
ममता ने अपने राज्य में कभी हिंदूमुसलिम में भेद नहीं किया. बंगाल का मुसलमान ममता पर आंख मूंद कर भरोसा करता है. उसे पता है कि ममता हैं तो वह सुरक्षित है. कोई भी चुनाव हो, ममता के लिए मुसलमानों का एकतरफा वोट पड़ता है. ममता ने समयसमय पर मुसलमानों के हित में कई फैसले लिए हैं.
ममता का जुझारू तेवर
बंगाल के लोगों को ममता बनर्जी का जु?ारू तेवर पसंद आता है. ममता आम लोगों के हितों के लिए जुझारू तरीके से लड़ती हैं. इस के चलते लोग ममता को चाहते हैं और उन्हें ही चुनते हैं.
भाजपा को घेरने और टोकने का कोई मौका ममता छोड़ती नहीं हैं. हाल ही में कोलकाता की एक जनसभा में उन्होंने केंद्र सरकार के रवैए को उजागर करते हुए कहा, ‘सुनने में आ रहा है कि अब हमें साल 2024 तक फंड नहीं मिलेगा. ऐसा हुआ तो जरूरत पड़ने पर मैं आंचल फैला कर बंगाल की माताओं के सामने भीख मांग लूंगी, लेकिन भीख मांगने दिल्ली (केंद्र सरकार के पास) कभी नहीं जाऊंगी.’
यह पहला मौका नहीं था जब ममता ने केंद्र पर बंगाल सरकार को फंड न देने का आरोप लगाया. 29 और 30 मार्च को उन्होंने राज्य की योजनाओं के लिए केंद्र की ओर से फंड न देने का आरोप लगा कर कोलकाता में 2 दिनों तक धरना भी दिया था. तब धरने पर बैठीं ममता ने कहा था कि 100 दिन काम योजना और अन्य योजनाओं के लिए केंद्र सरकार राशि जारी नहीं कर रही है. केंद्रीय बजट में भी हमें मनरेगा और आवास योजना के लिए एक रुपया नहीं दिया गया है.
एक सर्वे रिपोर्ट से उड़ी भाजपा की नींद
‘2024 के चुनाव में भाजपा को हराया जा सकता है’, चुनावों पर करीब से नजर रखने वाली संस्था सीएसडीएस की इस सर्वे रिपोर्ट से भाजपा की नींद उड़ी हुई है. यह रिपोर्ट मार्च में आई थी और तमाम दलों के वोटबैंक आकलन के साथ सीएसडीएस ने 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने का फार्मूला दिया था. सीएसडीएस का दावा है कि अगर इस फार्मूले पर काम किया जाए तो अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को आसानी से सत्ता से बाहर किया जा सकता है.
दरअसल सीएसडीएस ने 2024 चुनावों को ले कर जो सर्वे किया, उस के मुताबिक, अगर भाजपा को छोड़ कर सारा विपक्ष साथ मिल कर चुनाव लड़े तो आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को दोबारा सत्ता में आने से आसानी से रोका जा सकता है. सर्वे करने वाली संस्था का कहना है कि ऐसा होने पर विपक्ष को आसानी से बहुमत मिल जाएगा.
सीएसडीएस के इस दावे के पीछे पिछले चुनावों में तमाम दलों को मिली सीटें और वोट प्रतिशत है. अपनी रिपोर्ट में सीएसडीएस ने दावा किया है कि अगर सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ मिल कर चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा 235-240 सीटों पर सिमट सकती है. 2019 में भाजपा को मिली सीटों में सहयोगी दलों का भी बड़ा हाथ था.
आंकड़े बताते हैं कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले एक फीसदी वोट भी कम मिलते हैं तो भाजपा 225-230 सीटों पर सिमट जाएगी, जबकि विपक्ष 310-325 सीटों तक पहुंच जाएगा और अगर भाजपा 2024 के चुनाव में पिछले चुनाव के मुकाबले 2 प्रतिशत वोट कम पाती है तो उस की सीटों की संख्या 210-215 तक आ जाएगी.
इस रिपोर्ट के आने के बाद यह देखना है कि क्या विपक्ष सचमुच में भाजपा की विभाजनकारी राजनीति को रोकने के लिए पूरी मजबूती से साथ एकजुट हो जाएगा या फिर महज मोदी और भाजपा के खिलाफ बातें कर के अपने वोटबैंक को बचाने की कवायद में ही जुटा रहेगा.