“सुलोचना, इन को तुरंत संभाल कर बैंक लौकर में रखो. लाखों के होंगे,” मां की प्रिय सहेली गोयल आंटी ने अपनी ऐक्सपर्ट राय हमारी भोली मां को दी. मां उन्हें अपने गहने दिखा रही थीं और आंटी ने डब्बे से एक कर्णफूल का जोड़ा उठा रखा था.

यह सुनते ही हम मानो कुछ पल के लिए सांस लेना ही भूल गए. यह पुराने कपड़े में लिपटे कान के टौप्स का जोड़ा न जाने कब से मां के जेवरों के डब्बे के कोने में वैसे ही छुपा पड़ा रहता था, जैसे कक्षा की पीछे की बैंच के बच्चे. क्या कह रही हैं आंटी – लाखों के…

मां की आंखें चमकने लगीं और पापा की तनख्वाह में किसी तरह महीना का खर्चा चलाचला कर थका चेहरा मुसकराने लगा. बड़े रोब से हम सब से कहने लगीं, “ये टौप्स मेरी शादी पर मेरी ताईजी ने दिए थे. बताया था न कि मेरे ताऊजी ‘राय बहादुर’ थे, अंगरेजों के जमाने में.”

हम ने मां को इन्हें पहले भी कभी पहनते नहीं देखा था और अब तो पहनने का सवाल ही नहीं उठता था. बड़े सहेजसंभाल कर इन्हें मां ने बैंक लौकर में रख दिया. साल में एकाध बार जब कोई शुभ कार्य होता, तब हम मां के गहनों का डब्बा घर लाते. तब हम तीनों बहनें एकएक गहना बड़े ही चाव से देखती थीं. थे भी कुछ खास नहीं, कुल जमा 2 सैट – एक मायके का और एक ससुराल का, कुछ चूड़ीकंगन और एकाध मंगलसूत्र. बस. लेकिन अब हर बार, यह ‘लाखों का’ कर्णफूल सब से पहले देखा जाता.

मेरी शादी तय हुई. तैयारी होने लगी. लौकर से मां ने अपना डब्बा निकाला. बहुत विरोध के बावजूद उस ने अपनी एक जोड़ी चूड़ियां और मायके से मिले हार का पेंडेंट निकाल कर रख लिया. 3 बेटियों में से पहली की शादी हो रही थी. सुनार के यहां सैट बनवाते समय उस ने साथ में इन्हें भी दे दिया, “इन से एक अच्छा सा मंगलसूत्र और चांदबालियां भी बना दीजिएगा.”

“क्यों मां? मंगलसूत्र तो अपने यहां लड़के वाले देते हैं. सैट तो बनाया है न. मत करो, प्लीज.”

लेकिन उस दिन मेरी सीधी सी मां अपनी जिद पर एकदम अड़ी रही.

“पता है, तू भी बड़ी नौकरी करती है और अपने लिए बना लेगी बाद में. पर, यह मेरी तरफ से है. मना नहीं करते बेटा. ”

“अभी मंझली और छुटकी भी तो हैं. उन के लिए भी तो बनाना है.”

“हां, तो बनाउंगी न मैं,” 3 साल बाद दूसरी बहन का नंबर लगा.

जैसा कि सभी घरों में होता है, एक सूची तैयार की गई कि क्या आभूषण लिए जाएंगे. पिताजी ने मां को एक चैक दे दिया, सभी जरूरी गहने लेने के लिए. मां मंदमंद बड़े आत्मविश्वास के साथ मुसकरा रही थीं.

अगले दिन बैंक से मां ने अपने जेवर का डब्बा मंगवाया. अंदर मुलायम गुदड़ियों में सहेज कर रखे उस के गहनों की एक बार फिर गणना हुई. फिर मां ने कोने से टटोल कर उस पोटली को निकाला, जिस में वे कीमती कर्णफूल संभाल कर बांधे गए थे. परत दर परत उस पोटली को खोला गया. उन कर्णफूलों को दमकते देख हम सब आश्वस्त हुए. डब्बा बंद कर दिया गया. पोटली बाहर ही रख ली गई.
हमारी पूरी टोली हमारे सुपरिचित सुनार के यहां प्रविष्ट हुई.

“बिटिया का ब्याह है, सैट लेना है,” मां ने चमचमाती ड्रैस पहनी सेल्सगर्ल से कहा, “बढ़िया वाले दिखाइएगा. हम हमेशा आप ही के यहां से सोना लेते हैं.”

एक के बाद एक हम सैट देखने लगे. चायकौफी भी पी डाली. कुछ समय बाद, धीरे से उठ कर मां मालिक के पास गईं और अपने पास बैग में संभाल कर रखी हुई पोटली को निकाल कर उसे खोलने लगीं.

“जयपुर का गहना है. आप तो जानते ही हैं कि वहां कितने बढ़िया जेवर बनते हैं. और यह तो उस जमाने का है. देखिए तो जरा. कितना मिलेगा इन का?” ऐसा कहते हुए मां ने उन कर्णफूलों को हिचकिचाते हुए सुनार को थमाया.

जब तक वह उन का मूल्यांकन कर रहा था, हम बढ़िया और भारी सैटों को चुन कर अलग रखते जा रहे थे.

“तू भी क्यों एक चेन का सैट नहीं बनवा लेती?” मां ने छोटी बहन से भी पूछ डाला. ऐसा सुनते ही चट से छुटकी भी हलके सैट देखने में लग गई.

मंझली ने एक बढ़िया और एक थोड़ा हलका सैट पसंद कर लिया, एक जोड़ी कंगन के साथ. छुटकी ने भी बड़े शौक से एक चेन और एक जोड़ी टौप्स पसंद कर लिए थे.

तभी शोरूम के पीछे के कमरे से सुनार बाहर आए. मां के पास आ कर बोले, “बहनजी, यह तो अमेरिकन डायमंड है, असली हीरे नहीं.”

“क्या कह रहे हैं आप? ऐसा नहीं हो सकता. मेरे ताऊजी का मेरी शादी पर तोहफा था. हो ही नहीं सकता कि यह असली हीरे न हों. वे बहुत बड़े लोग थे,” मां उस को और अपनेआप को समझाने लगीं. यह तो कभी सोचा ही नहीं था.

ऐसा सुन मां के माथे पर शिकन और पसीने की बूंदें झलकने लगीं.

मंझली समझदार थी. यह बातचीत सुनते ही चुपचाप भारी वाला सैट अलग कर दिया.

छुटकी मां के पास जा कर तीखे स्वर में सुनार से पूछने लगी, “भैया, आप के हिसाब से सोना तो असली है न, कि वह भी नकली है? मां, कहीं और भी जांच करवाते हैं. चलो,” वह मां को बाहर की ओर ले जाने का प्रयास करने लगी.

मां वैसे ही बहुत शर्मिंदगी महसूस कर रही थीं और मन ही मन गोयल आंटी को कोस रही थीं, जिन्होंने यह सब दिवास्वप्न दिखाए.

“ये घर के सुनार हैं. कैसी बात करती है? हम कहीं नहीं जाएंगे. यहीं से जो ठीक बैठेगा, वह लेंगे,” मां ने स्पष्ट कहा.

“बहनजी, बड़ी खींचतान कर 11,000 रुपए कर पाऊंगा. सोना भी 18 कैरेट का ही है. हीरे का तो कुछ मोल है नहीं, सोने का भाव लगा रहा हूं. आप देख लीजिए कि क्या करना है. घर का ही मामला है. पर कुछ कर नहीं पाऊंगा,” सुनार ने बड़ी लाचार सी भावभंगिमा प्रदर्शित करते हुए मां को कहा.

“आप ने ठीक से जांच लिया न. विश्वास ही नहीं हो रहा कि ताईजी ने नकली गहना दिया था मुझे,” मां थोड़ी उलझन में पड़ गई थीं.

“आप चाहें तो मैं बगल के सुनार के यहां भी चैक करवा लेता हूं या आप कहीं और भी दिखवा लीजिए,” सुनार ने मां को अपने हाथ हिला कर सामने की दुकान की ओर इशारा कर के सुझाव दिया.

“नहीं भई, अब आप ने ठीक से देख लिया है, तो ठीक ही कह रहे होंगे. सालों से आप के यहां आ रहे हैं. कहां दूसरी जगह जाएंगे? ठीक है. आप ले लीजिए इसे. टोटल में हिसाब लगा लीजिएगा,” मां बोलीं.

“क्या मां, बेकार में समय खराब किया. जब पता ही नहीं था तो क्यों बोला कि यह देखो, वह देखो, “छुटकी बहुत रोआंसी हो गई.

“कोई बात नहीं बिट्टू, तेरे लिए बाद में ले लेंगे,” मां ने उसे समझाया.

बेचारी मां वैसे ही झेंपे हुए थीं, उस पर बच्चों का उतरा चेहरा देख कर बहुत दुखी भी हुईं. किसी को बता भी नहीं सकती थीं कि इतने बड़े अधिकारी की पत्नी होते हुए भी उन के पास तंगी बनी रहती थी. स्वयं अपने लिए इतने सालों में कभी एक अंगूठी भी नहीं बनाई थी.

मंझली के लिए एक सैट और छुटकी के लिए टौप्स ले कर हम घर आ गए. हम तीनों एकदम भरे बैठे थे कि पापा कब घर आएं और हम उन्हें यह सब बताएं. मां ने गैस पर चाय चढ़ाई, और फटाफट गरम पकौड़ों की प्लेट भी हमारे सामने रख दी.

“अरे लड़कियो, तुम लोगों से मुझे यह उम्मीद नहीं थी. इतनी समझदार हो, पढ़ीलिखी हो, मुंह क्यों लटकाए हुए हो? देखना, तुम सब अपने जीवन में आगे इतने गहने बनवाओगी कि पहन भी न पाओगी. चलो, पकौड़े खाओ और खुश रहो. और हां, पापा थकेमांदे दफ्तर से आएंगे, आते ही उन्हें यह सब बताने कि जरूरत नहीं है. आराम से कल बता देंगे.”

खैर, हमें गहनों का ऐसा कोई शौक नहीं था. बस, गोयल आंटी पर थोड़ा गुस्सा आ रहा था कि क्यों उन्होंने मां को ऐसे सब्जबाग दिखाए. मां ने अगले दिन उन्हें भी सब बताया.

धीरेधीरे 4 बरस बीत गए. इस दौरान मंझली और छुटकी, दोनों का ब्याह हो गया. मेरी गोद में भी एक प्यारी सी गुड़िया आ गई.

मई का महीना था. घर पर मामा का फोन आया कि नानी बहुत बीमार हैं. मां तुरंत जयपुर के लिए निकल गईं. एक सप्ताह बाद नानी नहीं रहीं. खबर मिलते ही हम सब भी ननिहाल पहुंचे.
10-12 दिनों के बाद एक दिन मामी के साथ हम मिल कर नानी का सामान ठीक कर रहे थे, तब अचानक मुझे एक छोटा सा नीला मखमली डब्बा नानी के संदूक के कोने से मिला.

मां और मामी को मैं ने आवाज दे कर बुलाया. फिर धीरे से उस डब्बे को खोला. डब्बा तो खाली था, पर उस में एक छोटी सी परची रखी थी. उस मुड़ीतुड़ी, पीली पड़ गई परची को हम ने बड़े सलीके से खोला. वह जयपुर के एक प्रसिद्ध स्वर्णकार की रसीद थी और उस में स्पष्ट अक्षरों में लिखा था – ‘कर्णफूल, 12 हीरे, 0.7 कैरेट, रु. 82,750/-‘. और रसीद की तारीख थी 21.02.1967 यानी मां के विवाह के 15 दिन पहले की.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...