संविधान स्पष्ट रूप से देश को राज्यों का समूह बताता है जिस में राज्यों के अधिकार भी हैं जो केंद्र सरकार से स्वतंत्र हैं. असल में देश में केंद्र सरकार की तो कोई जमीन ही नहीं है. दिल्ली भी एक राज्य है पर कांग्रेस के जमाने से इस राज्य के बहुत से अधिकार केंद्र के पास हैं.
जब तक दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार एक ही पार्टी की थी, कोई समस्या नहीं थी पर अब अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की एक के बाद एक विधानसभा चुनावों, नगर निगम चुनावों और उन के उपचुनावों में जीत भाजपाई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कांटे की तरह चुभ रही है. उन की नाक के नीचे, जहां से 2014 और 2019 में उन्होंने लोकसभा सभी सातों सीटें जीतीं, अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री बने घूमें, उन्हें सहन नहीं है.
दिल्ली सरकार पर औपचारिक नियंत्रण के लिए नियुक्त उपराज्यपाल को नरेंद्र मोदी लगातार अरविंद केजरीवाल को परेशान करने के लिए लगाए हुए हैं और यह सिलसिला 2014 से ही चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट के बारबार व्याख्या करने के बाद भी कि राज्य सरकार डरी हुई है और उस पर केंद्र का मुलाजिम उपराज्यपाल हुक्म नहीं चला सकता, मोदी सरकार मौन नहीं रही. अब आखिरी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मोदी सरकार ने एक अध्यादेश पास कर के नैशनल कैपिटल टैरिटरी औफ दिल्ली एक्ट 1991 में संशोधन किया है जिस में कहा गया है कि अब दिल्ली सरकार के पास राज्य में काम कर रहे अफसरों की नियुक्ति व तबादलों के अधिकार न रहेंगे और वे केंद्र सरकार के मुलाजिम उपराज्यपाल के होंगे. इस अध्यादेश से मंत्रियों के कामकाज पर भी उपराज्यपाल की सहमति का नियम बना डाला है. एक तरह से दिल्ली की चुनी हुई सरकार को पंगु बना डाला गया है.
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