‘‘अरे ओ औरंगजेब, दरवाजा खोल नासपीटे. मुझे क्यों बंद कर रखा है. जल्दी खोल… नहीं तो तोड़ डालूंगी.’’
दरवाजे पर जोरजोर से धमक पड़ने लगी.
आरती नेे बगल में सोए पति को झकझोर दिया, ‘‘सुनिए, उठिए न. मांजी कितना शोर मचा रही हैं.’’
‘‘तो क्या करूं. उन्हें खोल तो सकता नहीं. खोलूंगा तो अभी से बाहर जाने की जिद करेंगी. मारपीट शुरू कर देंगी,’’ अनिल ने ठंडी सांस ले कर कहा.
अनिल और आरती की शादी हुई अभी महीना भर ही हुआ था. आरती एक साधारण परिवार से थी. अनिल ने जब बिना दहेज शादी के लिए हां कही, तो आरती और उस के घर वालों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा था.
शादी से पहले जब अनिल आरती से मिला था तो बोला था, ‘आरती, मैं तुम्हें एक बात बता देना चाहता हूं. अगर तुम्हें मंजूर हो तो शादी के लिए हां कहना, वरना तुम इनकार कर सकती हो.’
‘कहिए.’
‘मेरी मां को पागलपन के दौरे पड़ते हैं. उन की देखभाल तुम्हें ही करनी होगी. मेरे 2 छोटे भाई और एक छोटी बहन है, जो तुम से भाभी नहीं, एक मां जैसी उम्मीद रखेंगे. क्या तुम इतनी जिम्मेदारियां उठा पाओगी?’ अनिल ने आरती की आंखों में झांकते हुए पूछा था.
‘मैं आप के विश्वास की कसौटी पर खरी उतरने की कोशिश करूंगी,’ आरती के होंठों पर मुसकान थिरक उठी थी.
आरती बहू बन कर आई तो एक बंद कमरे की खिड़की से उस ने सास को देखा था. वह चौकी पर बैठी न जाने क्याक्या बुदबुदा रही थीं. सफेद साड़ी से लिपटा उन का गोरा बदन ऐसा लग रहा था मानो संगमरमर की कोई जीतीजागती मूर्ति हो. ‘कौन कहेगा ये पागल हैं. चेहरे का तेज तो महारानियों को भी मात करता है,’ आरती सोचने लगी थी.
घर में कदम रखते ही आरती ने बिखरे हुए घर को आंचल में समेट लिया था. वह खूब जतन से सास की सेवा करती, उन के कपड़े बदलती, उन्हें खाना खिलाती. उसे हैरानी होती, ‘मांजी इतनी शांत रहती हैं, किसी से कुछ कहती भी नहीं. बस, अपनेआप में खोई न जाने क्या बुदबुदाती रहती हैं. पागल क्या ऐसे होते हैं.’
पर, एक रात उसे अपने सवाल का जवाब मिल ही गया. उस रात सब को खाना खिलाने के बाद वह खाना ले कर सास के कमरे में गई तो चौंक पड़ी थी. आज उन की आंखों में उसे कुछ अलग ही भाव नजर आए थे. हमेशा खोईखोई सी रहने वाली आंखों में क्रोध और तिरस्कार लहरा रहा था.
आरती ने खाना उन के सामने रख कर कहा, ‘मांजी, खाना खा लीजिए.’
मां ने आंखें तरेर कर बहू को देखा, ‘यह खाना मैं खाऊंगी,’ और दाल की कटोरी उठा कर आरती की ओर खींच मारी थी.
आरती की चीख निकल गई थी. कटोरी उस के माथे से टकरा कर झन्न से जमीन पर जा गिरी थी. बिफरी हुई मां ने कमरे का सारा सामान उठा कर फेंकना शुरू कर दिया था.
आरती थरथर कांप रही थी. माथे का लहू बह कर उस के चेहरे को रक्तरंजित कर गया था. उस की चीख सुन कर सब दौड़े आए थे.
अनिल ने छोटे भाई को आवाज दी थी, ‘पप्पू, जल्दी से रस्सी ला, लगता है, मां को फिर से दौरा पड़ गया.’
तीनों भाइयों ने मां को जबरदस्ती पकड़ कर रस्सी से पलंग के साथ बांध दिया था. चीखचीख कर मां के होंठों से झाग निकल रहा था. आंखें लाल हो गर्ई थीं. बिखरे बालों से उन का रूप और डरावना लग रहा था.
वह चीख रही थीं, ‘राजकुमारी ऐसा खाना खाती है, सूखी रोटी. सिर्फ एक सब्जी, पानी जैसी दाल. कहां मर गए सारे रसोइए.’
आरती भय और आश्चर्य से जैसे जड़ हो गई थी. पूरी रात माथे के दर्द से उसे नींद नहीं आई थी.
सुबह हलकी सी झपकी लगी तो सास की चीख सुन कर फिर से उठ गई, ‘‘औरंगजेब दरवाजा खोल.’’
देखा तो 4 बजे थे. उस ने अनिल से पूछा, ‘‘मां इतनी उग्र क्यों हो जाती हैं?’’ मेरी तो डर के मारे घिग्घी बंध गई थी.
‘‘मां हमेशा से ऐसी नहीं थीं. जीवन की कड़वी सचाइयों से सब को एक न एक दिन रूबरू होना ही पड़ता है. पर मां सचाइयों को सहन नहीं कर पाई और उन का दिमागी संतुलन बिगड़ गया.’’
‘‘कड़वी सचाइयां…’’
‘‘हां, मेरी मां बहुत बड़े जमींदार परिवार की एकलौती बेटी थीं. पिता राजा साहब कहलाते थे और वह राजकुमारी. दर्जनों नौकर एक हुक्म पर दौड़ पड़ते थे. उन की हर तमन्ना पूरी होती थी. जब उन का विवाह मेेरे पिता के साथ हुआ, तभी से उन के जीवन में उलटा चक्र घूमने लगा.
“तुम ने बचपन में एक कहानी सुनी होगी एक गरीब लकड़हारे की. एक ही बेटी थी. एक दिन राजकुमार उसे ब्याह ले गया और वह रानी बन गई.’’
‘‘हां.’’
‘‘मेरी मां की कहानी इसी कहानी का उलटा पहलू है. एक राजकुमारी के दामी बन जाने की दुखभरी कहानी.’’
‘‘क्या…?’’ आरती आश्चर्य से बोली.
‘‘मेरे नाना ने मेरे पिता के घर का ऐश्वर्य देख कर मेरी मां का विवाह किया था. उन्हें पता नहीं था कि मेरे दादाजी की शान खोखली है. ठीक वैसी ही जैसे सोने का मुलम्मा चढ़ा पीतल का जेवर. उन का मकान तक गिरवी पड़ा था. वजह थी, मेरे दादा और बड़े चाचा की जुए और शराब की लत. इन सब से जो संपत्ति बची थी, वह 5 बेटियों के दहेज में स्वाहा हो गई. मेरे पिता कालेज में प्रोफेसर थे. मां उन के साथ शहर आ गई.’’
‘‘पिता के घर से पति के घर का माहौल एकदम अलग था. कहां दर्जनों नौकरचाकर. कहां खुद बरतन, कपड़े धोना, खाना बनाना. मां का मस्तिष्क दोनों के इतने बड़े अंतर में सामंजस्य नहीं बैठा पाया. धीरेधीरे उन का मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा. बच्चों की जिम्मेदारी, जीवन की छोटीबड़ी जरूरतों और मन की अतृप्त लालसाओं ने मां के हृदय को डांवांडोल कर दिया था. पिताजी मां को भरसक खुश रखने की कोशिश करते. मां का जीवन सामान्य ढर्रे पर आने लगा था कि नियति ने अपने क्रूर हाथों से मेरे पिताजी की जीवन डोर खींच लगी.
‘‘मां वैधव्य की कंटीली राह में नितांत अकेली रह गईं. उन की स्थिति बिलकुल भंवर में डोलती उस नाव जैसी थी, जिस के नाविक को सागर की गहराई लील गई हो. जीवन के भंवर में फंसी वह इस आघात को झेल नहीं पाई.
“पिताजी की मौत के एक महीने बाद उन्हें पागलपन का पहला दौरा पड़ा. बुरी तरह चीखते हुए मां ने घर का सारा सामान उठा कर चीखते हुए फेंकना शुरू कर दिया. बड़ी मुश्किल से पड़ोसियों ने उन्हें कमरे में बंद किया. पूरी रात वह चीखतीचिल्लाती रहीं.
‘‘‘खुद तो मर कर मुक्ति पा गए और मेरे सिर पर छोड़ गए सब को. कायर कहीं के. मुझे पागल समझ रखा है क्या. इतने बड़े घर की एकलौती बेटी हूं मैं. नौकरों की फौज है मेरे लिए और मैं… मैं खाना बनाऊं, कपड़े धोऊं, बच्चों के नखरे उठाऊं. मार डालूंगी, सब को मार डालूंगी.’ मां कभी ठठा कर हंसती, तो कभी बिलखबिलख कर रो पड़तीं.’’
आरती की आंखें बरस पड़ीं, ‘‘उफ, कितना मानसिक क्लेश झेला है मां ने.’’
‘‘मैं तब 14 साल का था. मैं ने समझ लिया था, अब मुझे ही छोटे भाईबहनों की देखरेख करनी होगी. मां को भी संभालना होगा.’’
‘‘मैं ने घरघर जा कर ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया और अपनी पढ़ाई भी जारी रखी. पिताजी की पेंशन और ट्यूशन के रुपयों से जैसेतैसे गुजारा होने लगा. मां वैसे तो शांत रहतीं, पर कभीकभार व्यग्र हो उठतीं.’’
‘‘कभीकभी 3 ईंटों का चूल्हा बना, बड़ी सी कड़ाही उस पर धर देतीं. कड़ाही में चम्मच चलाते हुए बड़बड़ाती रहतीं, ‘हलवा बन गया. बस, अब रामदीन गरमगरम पूरी उतारेगा. रायता, कटहल की मसालेदार सब्जी, सब तैयार है. अरे रामू, गोपाल, हरिया, शिवा कहां मर गए सब. बाबूजी को मेरे हाथ का हलवा बहुत पसंद है. जल्दी से आसन लगाओ, तब तक मैं थाली सजाती हूं.’
‘‘झूठमूठ की थाली सजा, वह अपने बिछाए आसन के नजदीक रख देतीं और आंगन के खंभे का सहारा ले कर बैठ जातीं. निर्लिप्त दृष्टि से एकटक शून्य में निहारती रहतीं. न खातीं, न पीतीं. न नहातींधोती,’’ कहते हुए अनिल भावुक हो उठा. आरती का मन भी भर आया. तभी मां जोर से चिल्लाई, ‘‘औरंगजेब, अभागे, खोल न मुझे. मैं बाहर जाऊंगी. जल्दी खोल,’’ ऐसे लगा कि दरवाजा अब टूटा कि तब टूटा.
आरती ने मनुहार से कहा, ‘‘खोल दीजिए न, बाहर आना चाहती हैं तो इस में बुरा क्या है.’’
‘‘तुम नहीं जानतीं. मां घर से बाहर जा कर बाजारों में घूमती रहती हैं. जाने क्याक्या उधार में खरीद लाती हैं. सब पर राजकुमारी होने की धौंस जमाती रहती हैं. एक दिन तो उन्होंने हद कर दी. मिठाई बनाने वाले कारीगर के साथ शामियाने वाले और बैंडबाजे वाले को भी बुला लाईं. बड़ी मुश्किल से उन सब को समझाबुझा कर वापस किया. कोई मानने को तैयार ही नहीं होता था कि मेरी तेजतर्रार वाकपटु मां पागल हैं.’’
आरती सोच में पड़ गई. एक नारी के दिल के भाव को, उस के दर्द को एक नारी ही समझ सकती है. बेटी के विवाह की लालसा से मां यह सब करती हैं. मन में कहीं गहरे तक पैठा है कि बेटी जल्द से जल्द किसी अच्छे घर में ब्याह दी जाए. भले ही मानसिक संतुलन खो बैठी हैं, फिर भी बेटे की कम आमदनी, उस के छोटे से कंधे पर घर का भारी बोझ, बेटी के विवाह का खर्च, यह सबकुछ महसूस कर के ही तो वह अनजाने में ऐसा कदम उठा बैठती हैं.
आरती ने पूछा, ‘‘मां, आप को औरंगजेब क्यों कहती हैं.’’
‘‘तुम ने इतिहास में पढ़ा होगा. औरंगजेब ने अपने पिता शाहजहां को कैद कर लिया था. मैं भी मां को कमरे में बंद कर देता हूं न. इसलिए मेरी पढ़ीलिखी मां मुझे औरंगजेब कहती हैं.’’
अनिल के चेहरे पर विषाद भरी मुसकराहट खिंच गई, जिस में उस के दिल का दर्द साफ झलक रहा था.
‘‘आप के नाना ने अपनी बेटी की खोजखबर नहीं ली.’’
‘‘नाना तो मां के विवाह के तीसरे वर्ष ही चल बसे थे और भाईभाभी भला किस के अपने हुए हैं,’’ अनिल ने कहा.
‘‘आप को मांजी का इलाज रांची में करवाना चाहिए. वहां के मानसिक अस्पताल में ऐसे रोगियों का बेहतर इलाज होता है.’’
‘‘सबकुछ कर के हार गया हूं, आरती. महल्ले वालों ने, रिश्तेदारों ने हजार बार कहा कि मां को पागलखाने में डाल दूं, पर मेरा मन नहीं मानता. कैसे अपनी जन्मदात्री को पागलखाने के वीरान सन्नाटे में अकेली छोड़ दूं?’’
आरती का मन भर आया. उस ने स्नेह से कहा, ‘‘आप दुखी क्यों होते हैं? आप ने तो अच्छी तरह अपना कर्तव्य निभाया है. कौन कहता है, आजकल के जमाने में श्रवण कुमार नहीं होता.’’
‘‘दुनिया चाहे जितनी भी तारीफ कर ले, श्रवण कुमार कह ले, पर मेरी मां तो मुझे औरंगजेब ही कहती हैं न. उन के दिल में मेरे लिए नफरत है, सिर्फ नफरत. उन का यह संबोधन मेरे हृदय में कील की तरह चुभता है.’’
आरती ने सोचा, ‘कौन कहता है पुरुष संवेदनशील नहीं होते? क्या हृदय की वेदना और आंखों से छलकती करुणा केवल नारी तक ही सीमित है. पुरुष भी मोम सा मुलायम दिल रखते हैं, छिपा हुआ ही सही.’
उस ने स्नेह से पति का कंधा दबाते हुए कहा, ‘‘मेरे बड़े भैया के एक दोस्त जानेमाने मनोचिकित्सक हैं. मैं मां के लिए उन से बात करूंगी. मुझे उम्मीद है सबकुछ ठीक हो जाएगा.’’
‘‘जैसा तुम उचित समझो,’’ अनिल एक ठंडी सांस भर कर उठ गया.
आरती पति और सास को साथ ले कर दिल्ली आ गई, जहां उस के भाई के दोस्त डा. अविनाश प्रैक्टिस करते थे.
आरती ने महसूस किया कि घर से बाहर निकल कर मांजी कुछ राहत महसूस कर रही हैं. चुपचाप बैठी वह गाड़ी की खिड़की से बाहर देख रही थीं. चेहरे पर शांति थी.
डा. अविनाश एक हंसमुख नवयुवक थे. उन्होंने प्रेम से मांजी की जांच की और कुछ सवाल उन से पूछे. मांजी धीमे स्वर में जवाब देती गईं. डा. अविनाश ने कुछ दवाएं लिख कर परचा अनिल को दे दिया.
आरती ने पूछा, ‘‘भैया, अब हम आप से कब मिलें?’’
‘‘आप दोनों आज शाम को मेरे घर पर मिलिए. आप दोनों को बहुत सी बातें बतानी हैं,’’ डा. अविनाश ने कहा.
शाम को मिलने पर डाक्टर ने समझाया, ‘‘मांजी को मनोरोग है, जिसे डाक्टरी भाषा में सिजोफ्रेनिया कहते हैं.’’
‘‘सिजोफ्रेनिया होने का कारण क्या है, डाक्टर.’’ अनिल ने पूछा.
डा. अविनाश ने बताया, ‘‘वैसे तो इस के पीछ कई कारण होते हैं, पर मुख्य कारण है किसी न किसी वजह से उपजा तनाव. आज के भौतिकवादी समाज में तनाव एक तरह से रचबस गया है. यही वजह है कि बहुत से रोगों की उत्पत्ति का कारण तनाव है.’’
‘‘किस तरह का तनाव, डाक्टर,’’ आरती ने पूछा.
‘‘जैसे बचपन में मांबाप का प्यार न मिलना, कोई दुर्घटना, विकलांगता या फिर वैसी स्थिति जो आप की माताजी की है. वह बचपन से जिस वैभव को देखती आई थीं, विवाहित जीवन में उस की कमी ने उन का मानसिक संतुलन ही बिगाड़ दिया.’’
‘‘डाक्टर, वैसे तो मां शांत रहती हैं, पर कभीकभी न जाने उन्हें क्या हो जाता है कि मारपीट करने पर उतारू हो जाती हैं. चित्त अशांत रहता है. कभी ठीक रहती हैं, कभी चीखने लगती हैं, कभी रोने लगती हैं, कभी गहरी उदासी में डूब जाती हैं,’’ अनिल ने मायूसी से कहा.
‘‘देखिए, जिंदगी एक सामान्य भावना है और जब जिंदगी पर भावनात्मक अंकुश नहीं रह जाता, तब व्यक्ति चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है. अकेलापन, उदासी में डूबे रहना, बोलचाल बंद कर देना या लगातार बिना बात बोलते रहना ही मनोरोग के लक्षण हैं,’’ डाक्टर ने समझाया.
‘‘मां ठीक तो हो जाएंगी न,’’ अनिल ने पूछा.
‘‘जी हां, आप बिलकुल चिंता न करें. उचित सलाह और सही दवाओं के सेवन से सिजोफ्रेनिया का मरीज ठीक हो जाता है. बस, सही देखभाल की जरूरत होती है,’’ डाक्टर ने कहा, तो आरती और अनिल के सिर से मानो बोझ उतर गया.
डा. अविनाश के इलाज से धीरेधीरे मांजी स्वस्थ होने लगीं. फिर एक दिन ऐसा आया, जब वह बिलकुल ठीक हो गईं. दोनों पतिपत्नी की खुशी का ठिकाना न रहा. आखिर, उन की सेवा रंग लाई थी.
एक रात जब पूरा परिवार साथ बैठ कर खाना खा रहा था, आरती ने खीर का कटोरा सास के हाथ में देते हुए कहा, ‘‘मांजी, जरा अपने औरंगजेब को खीर तो दे दीजिए.’’
‘‘नहीं, बहू, औरंगजेब नहीं, यह तो मेरा श्रवण कुमार है,’’ मांजी ने भीगे स्वर में कहा और स्नेह से बेटे को अंक में भींच लिया.
पूरे परिवार के चेहरे खिल उठे. अनिल की खुशी का तो पारावार नहीं था. उसे अनचाहे संबोधन से मुक्ति जो मिल गई थी.