ट्विटर पर एनडीटीवी के बिक जाने और गुजरात के उद्योगपति गौतम अडानी द्वारा खरीद लिए जाने पर बहुत रोनाधोना चल रहा है. एनडीटीवी उन चैनलों से अलग रहा है जो नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी की पिछले

8 सालों से अंधभक्ति कर रहे हैं. टीवी चैनल कड़वा सच नहीं दिखा रहे, जबकि सफेद ?ाठ को सफेद कपड़े पहना कर परोस रहे हैं और हजार आलोचनाओं के बाद भी टस से मस नहीं हो रहे.

मीडिया पर नियंत्रण आज ही नहीं, हमेशा से धर्म और सत्ता के लिए जरूरी रहा है. कोई राजा अपनी पोल खोले जाने वाले किसी शब्द को बोलने या लिखने नहीं देता था, कोई धर्म अपनी गलतियों को उजागर करने की इजाजत नहीं देता था.

लेकिन जब जनता ने चाहा है उस ने हर तरह की कट्टर और क्रूर सत्ता का विरोध किया है. कई बार सत्ताधारियों ने इसे सम?ा लिया है और समाज को ढील दे दी, कई बार नहीं सम?ा पर अपने को सुधार लिया. ज्यादातर धर्म या राजसत्ता जिन के हाथों में थीं उन्होंने तख्ता पलटने तक कोई छूट नहीं दी और आखिरकार जनता ने ?ाठा सुनने, बारबार सुनने के बाद भी ?ाठ को नकार दिया.

भारत में जो आज हो रहा है वह पिछले कई दशकों तक नहीं हुआ क्योंकि अखबार, आमतौर पर, आजादी से खुल कर सरकार की आलोचना करते रहे थे. धर्म के मामले में जरूर अखबारों ने अंधविश्वासों और धार्मिक लूट को नजरअंदाज किया. पहले जब टीवी आया वह सरकारी ही था. रेडियो भी सरकार ही चलाती थी और दोनों वही कहते थे जो सरकार कहती थी. लोकतंत्र फिर भी फलाफूला. जमीन पर कोई किसी को बोलने से रोक न पाया.

वर्ष 1947 से पहले भी कम ही अखबारों को अंगरेजों के कोप का निशाना बनना पड़ा पर अखबार निकालना बहुत ही कठिन था, सरकार की दखल इतनी थी कि ज्यादा कुछ कहने को न था. वर्ष 1947 के बाद अखबार आजाद हो गए पर आमतौर पर सूचनाएं सरकार से ही मिलती थीं. जवाहरलाल नेहरू ने कभी अखबारों को दुश्मन नहीं सम?ा. इंदिरा गांधी बहुतों से चिढ़ती या डरती थीं और लाइसैंस कोटे का इस्तेमाल करने लगी थीं. अखबारों की पहुंच बहुत नहीं थी पर उन का प्रभाव था. वे आजाद थे पर उन्होंने सरकार के खिलाफ मोरचा खोला हो, ऐसा कभी नहीं लगा.

आज चैनलों और अखबारों की भक्ति का मतलब यह नहीं कि देश में विरोध की आवाज बंद हो गई है. सरकार को आज भी सांसद में, विधानसभाओं में, मंचों पर, सभाओं में विरोध ?ोलना पड़ रहा है, अपनी करतूतों का परदाफाश होते देखना पड़ रहा है. हां, ये बातें सब चैनलों पर नहीं दिखती हैं.

असल में यह जिम्मेदारी आम जनता की है कि वह अपनी जानने की स्वतंत्रता को बरकरार रखे. आमजन सरकार समर्थक टीवी चैनल ही देख रहे हैं. उन्होंने भक्तिभाव में बह कर अपनी जानने की स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया और उन्हें एनडीटीवी के बिक जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता. जिन्हें फर्क पड़ता है वे एक तो कम हैं और दूसरे वे भी टीवी के अतिरिक्त दूसरे स्रोतों से सच पता कर लेते हैं.

सवाल यह है कि उस जनता को क्या कहें जो सच और ?ाठ के बारे में भेद करना न जानती है न इच्छुक है. जो पैदा होते ही कट्टरपंथी रीतिरिवाजों, सोचविचार, मान्यताओं की फैलती दीवारों में खुद को कैद कर लेती है. स्वतंत्र और निर्भीक पत्रकारिता के विचार उस दीवार की खिड़कियों से जितना पहुंचते हैं वह भी आमजन को मंजूर नहीं. वे इन दीवारों के अंदर पनपती बदबू, बदइंतजामी को जीवनशैली मान लेते हैं. उन्हें फर्क नहीं पड़ता कि मीडिया आजाद है या किसी की गोद में बैठा है क्योंकि वे तो खुद में न आजाद हैं, न हिम्मत रखते हैं कि अपनी बनाई गोद से बाहर निकलें.

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