लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका चौथे स्तंभ की है. मीडिया पर जनता को भरोसा होता है कि वह सरकार की कारगुजारियों से उसे अवगत कराए ताकि सहीगलत का मूल्यांकन किया जा सके. मीडिया सरकारी भोंपू बन कर रह जाए तो यह लोकतंत्र के लिए घातक साबित होगा. मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है. देश की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए संविधान में 3 स्तंभों को जिम्मेदारी दी गई थी. इन में पहला व्यवस्थापिका यानी सांसद और विधायक जो देश की जरूरत के हिसाब से कानून और मूलभूत ढांचा बनाते हैं.

दूसरा कार्यपालिका जिस में औफिसर व्यवस्था के हिसाब से काम करते हैं. तीसरा न्यायपालिका जो न्याय व्यवस्था को बनाए रखने का काम करती है. मीडिया को चौथा स्तंभ कहा गया क्योंकि जनता मानती थी कि मीडिया ही बाकी तीनों स्तंभों पर नजर रखेगी. मीडिया की व्यवस्था को चलाने के लिए 2 माध्यम थे. एक जनता द्वारा मीडिया का भुगतान कर या व्यावसायिक विज्ञापनों के सहारे मीडिया को सहयोग करना. दूसरा, सरकार द्वारा विज्ञापन देना. विज्ञापन वह होता है जिसे सरकार बताती है, खबर वह होती है जिसे सरकार छिपाती है. सरकारी बदलते दौर में मीडिया जनता को खबर नहीं बता रही, केवल विज्ञापन दिखा रही है. इस से चुनाव के समय जनता को सरकार के कामों के बारे में सही जानकारी नहीं मिल पाती और वह सही पार्टी व प्रत्याशी का चुनाव नहीं कर पाती है.

इस का लाभ मौजूदा सरकार और मीडिया दोनों को हो रहा है पर नुकसान जनता को हो रहा है. उसे यह पता ही नहीं चल पा रहा कि सरकार और मीडिया आपस में मिल कर उसे किस तरह से बरगला रही हैं. सत्ताधारी पार्टी अपना सच बाहर नहीं आने दे रही, जिस से चुनाव के समय जनता अपना सही फैसला नहीं ले पा रही. भारत में मीडिया का बड़ा आधारभूत ढांचा है. इस के बाद भी वह सरकार के कदमों में पड़ी दिखती है. हाथी सा शरीर, चूहे सा दिल भारत में कुल अखबार और पत्रिकाओं की संख्या 99 हजार 660 है. पत्रिकाओं की संख्या 85 हजार 899 और अखबारों की संख्या 13 हजार 761 है. इन में से सब से अधिक उत्तर प्रदेश में 15 हजार 209 और दूसरे नंबर पर महाराष्ट्र में 13 हजार 375 हैं. देशभर में करीब 800 टीवी चैनल हैं. इन में आधे से अधिक खबरिया चैनल हैं.

इतना बड़ा आधारभूत ढांचा होने के बाद भी मीडिया ताकतवर नहीं है. वह पिछलग्गू बनी हुई है. मीडिया में बढ़ रहे खतरों और आर्थिक सुरक्षा न होने के कारण मीडिया से अच्छे पत्रकारों का तेजी से पलायन हो रहा है. अब वे मीडिया में काम करने की जगह पर मल्टीनैशनल कंपनियों में पब्लिक रिलेशन के काम देखने लगे हैं. कई लोग मीडिया पढ़ाने वाले प्राइवेट कालेजों में नौकरी करने लगे हैं. तमाम लोग सलाहकार की भूमिका में आ गए हैं. मुख्यधारा की मीडिया से लोग काम को छोड़ते जा रहे हैं. राज्यों की सरकारें और केंद्र सरकार केवल उन पत्रकारों के लिए सुविधाओं व सामाजिक सुरक्षा का प्रबंध करती हैं जो विधानसभा और संसद में सरकारी कार्यक्रमों को कवर करते हैं.

उन को सरकारी मान्यताप्राप्त पत्रकार की श्रेणी में रखा गया है. उन को सरकार सुविधाएं देती है ताकि ये सरकारी खबरों को उन के इशारे पर कवर करें. यह एक तरह से पत्रकारिता को कमजोर करने वाला काम है. सरकारी सुविधा पाने वाले ये पत्रकार कभी सरकार के खिलाफ खबर नहीं लिखते, सरकार की कमियों को छिपाने का काम करते हैं. मीडिया को कमजोर करने के लिए सरकार चुनिंदा पत्रकारों को खास सुविधाएं देती है और सच बोलने वाले पत्रकारों को दबाने का काम करती है. उन के खिलाफ मुकदमे कर के जेल भेज कर डराया जाता है.

ज्यादातर पत्रकार अपने से ही डर कर सरकार की शरण में रहते हैं. वर्ष 2014 के बाद पत्रकारों पर धार्मिक गैंगों के हमले भी बढ़े हैं. मुसीबत में पत्रकार मई 2019 से अगस्त 2021 तक की घटनाओं के आधार पर एक सर्वे रिपोर्ट बताती है कि भारत में पत्रकारों को फर्जी मामलों में गिरफ्तारी से ले कर हत्या तक कई तरह की हिंसा ?ोलनी पड़ी है जिस कारण भारत में पत्रकारिता एक खतरनाक पेशा बन गया है. इस रिपोर्ट में अलगअलग विषयों की कवरेज के दौरान हुई घटनाओं को जमा किया है. रिपोर्ट के मुताबिक जम्मूकश्मीर में 51, सीएए कानून के विरोध प्रदर्शनों के दौरान 26, दिल्ली दंगों के दौरान 19 और कोविड मामलों की कवरेज के दौरान 46 घटनाएं हुईं.

किसान आंदोलन के दौरान पत्रकारों के खिलाफ हिंसा की अब तक 10 घटनाएं हो चुकी हैं. बाकी 104 घटनाएं पूरे देश में अलगअलग विषयों व समय से जुड़ी हैं. 228 पत्रकारों पर हिंसात्मक वारदात की घटनाएं घटीं. भारत में इस समय कई पत्रकार जेलों में बंद हैं. केरल के पत्रकार सिद्दीक कप्पन को पिछले साल अक्तूबर में उस वक्त गिरफ्तार कर लिया गया था जब वे उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुए एक बलात्कार और हत्या के मामले की खबर के सिलसिले में यूपी गए थे. कप्पन को आईपीसी की धारा 153ए (समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देना), 295ए (धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना), 124ए (देशद्रोह), 120बी (साजिश), यूएपीए के तहत जेल में रखा गया था.

यहां तक कि जब उन की 90 वर्षीय मां का निधन हुआ तब उन को अपनी मां से मिलने के लिए जेल से बाहर जाने की इजाजत नहीं मिली. 228 पत्रकारों को हिंसा का सामना करना पड़ा. तमाम पत्रकारों को सरकार द्वारा ही अलगअलग तरीकों से काम करने से रोका गया. सरकार भारत में पत्रकारों को धमका कर, गिरफ्तारी या फर्जी मामले दर्ज कर या किसी तरह की पाबंदियां लगा कर चुप करवा रही है. जो सरकार के खिलाफ बोलते हैं उन पर देशद्रोह जैसे मुकदमों और गिरफ्तारी का खतरा लगातार बना रहता है. उत्तर प्रदेश में नकल माफियाओं और सरकारी खाने यानी मिड डे मील में खराब भोजन दिखाने वाले पत्रकार को जेल भेज दिया गया.

भारत को पत्रकारिता के लिए दुनिया के सब से खतरनाक देशों में गिना जाता है. वर्ल्ड प्रैस फ्रीडम इंडैक्स 2021 में भारत को 180 देशों में 142वां स्थान मिला है, जो मीडिया स्वतंत्रता की खराब स्थिति को जाहिर करता है. एक अध्ययन में दुनिया के 37 ऐसे नेताओं की सूची जारी की गई जो मीडिया पर लगातार हमलावर रहते हैं. उन में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी नाम शामिल है. भारत में लगातार दमन और बढ़ती पाबंदियों ने मीडिया की आजादी को बड़ा खतरा पैदा कर दिया है. जो पत्रकार सरकार से सवाल करते हैं उन के खिलाफ सोशल मीडिया पर नफरत फैलाने का अभियान चलाया जाता है.

कई बार तो बलात्कार या हत्या जैसी धमकियां भी दी जाती हैं. किसान आंदोलन की कवरेज कर रहे एक स्वतंत्र पत्रकार मनदीप पूनिया को 30 जनवरी को दिल्ली के सिंघु बौर्डर से गिरफ्तार कर लिया गया था. उन पर आईपीसी की धारा 186 (सरकारी काम में बाधा पहुंचाना), धारा 353 (सरकारी अधिकारी पर हमला करना), धारा 332 (लोकसेवक को चोट पहुंचना) और धारा 34 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया. मुकदमा कायम कर पत्रकारों को डराया जाता है जिस से वे सरकार के खिलाफ न बोल सकें. सरकार के डर और लोभलालच में फंस कर तमाम पत्रकारों ने घुटने टेक दिए. सरकार के इन समर्थकों को ‘गोदी मीडिया’ कहा जाने लगा. संपत ने बताई मीडिया की हकीकत राजस्थान के रहने वाले कवि हैं संपत सरल. मीडिया के बारे में उन का व्यंग्य बेहद सटीक होता है. इस दौर के वे सब से लोकप्रिय व्यंग्यकार हैं.

सरकार के विरोध में टिप्पणियां करने के कारण सोशल मीडिया पर उन को ट्रोल भी खूब किया जाता है. मीडिया पर उन का एक विमर्श बहुत लोकप्रिय है, लोग बारबार उन को सुनते हैं. कवि सम्मेलनों में उन को हजारों की संख्या में लोग सुनते हैं. सोशल मीडिया पर तमाम फोरम पर उन की कविताएं सुनी जाती हैं. संपत सरल का अपना यूट्यूब चैनल भी है, जिस के 1 लाख 39 हजार सब्सक्राइबर हैं. संपत सरल गद्य के रूप में अपने व्यंग्य पढ़ते हैं. मीडिया की भूमिका पर वे कहते हैं, ‘‘मीडिया का काम बुनियादी मुद्दों की तरफ जनता और सरकार का ध्यान खींचने का होता है.

मीडिया इस काम में पीछे है. मीडिया जनता की मदद कम, उसे भ्रमित अधिक कर रही है. मीडियामैनों को कैमरा और कलम दी भले गई है पर उन के हाथ बंधे हुए हैं. इस के पीछे मीडिया हाउस चलाने वाले लोग हैं जिन का राज्यसभा का लालच होता है. मीडिया तो टीवी पर बहस चलाता है, उस में मुद्दा गरीबी की रेखा होता है पर बहस रेखा की गरीबी पर होती रहती है. ‘‘मीडिया का काम स्थायी विपक्ष का होता है. इसे वह भूल चुका है. सरकार की गलती पर वह सवाल विपक्ष से करती है. प्रधानमंत्री कदमताल करते हैं तो मीडिया उस को मार्चपास्ट बताती है. मीडिया का बड़ा तबका दिखता भले ही दीये के साथ है पर होता वह हवा के साथ है.’’ संपत सरल को जनता जिस तरह से सुनती है, उस से साफ लगता है कि जनता को मुद्दों पर सरकार का विरोध करने वाले पसंद हैं.

हर कवि सम्मेलन में संपत सरल मीडिया पर अपनी ये लाइनें सुनाते हैं. जनता खूब ताली बजाती है. सोशल मीडिया पर ऐसे तमाम पत्रकार हैं जिन को लाखोंकरोड़ों लोग सुनते हैं. परेशानी की बात यह है कि ऐसे लोगों को सत्ताधारी भाजपा की आईटी सैल की ट्रोल सेना द्वारा सोशल मीडिया पर ट्रोल किया जाता है. इस की वजह से ऐसे पत्रकारों को मानसिक परेशानी का सामना करना पड़ता है. एनडीटीवी के रवीश कुमार और द वायर के पत्रकारों सहित तमाम ऐसे लोग हैं जो ट्रोल सेना का शिकार होते हैं. इन को मानसिक प्रताड़ना के दौर से गुजरना पड़ता है. ‘गोदी मीडिया’ का सच ट्रोल सेना और सरकार अभिव्यक्ति की आजादी व पत्रकारिता की आवाज को दबाने का काम कर रही हैं.

जो लोग सरकार के पक्ष में बात करते हैं, उस की तारीफ करते हैं, उन को सरकारी सहयोग दिया जाता है. ऐसे में अपने लाभ के लिए और कहीं फंस न जाएं, इस की वजह से मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा सरकार के साथ खड़ा हो गया. इस को यह कहा गया कि मीडिया का यह हिस्सा सरकार की गोद मे बैठ गया है, गोद में बैठने की वजह से ही ‘गोदी मीडिया’ का शब्द चलन में आया. इन में टीवी चैनलों की भूमिका सब से बड़ी है. मोदी सरकार के पक्षधर चैनलों में जिन का नाम प्रमुखता से लिया जाता है उन में रजत शर्मा का इंडिया टीवी, आजतक, नैटवर्क 18, अरनव गोस्वामी का रिपब्लिक भारत प्रमुख हैं. एनडीटीवी और रवीश कुमार को मोदी का विरोधी माना जाता है.

इस कारण उन को ट्रोल भी किया जाता है. एनडीटीवी और रवीश कुमार को ट्रोल करने वाले तब से बहुत खुश हैं जब से उन को यह पता चला है कि एनडीटीवी के शेयर गौतम अडानी ने खरीद लिए हैं. ट्रोल करने वाले इसलिए खुश हैं कि अब देखते हैं कि रवीश कुमार किस तरह से मोदी के विरोध में बोल सकते हैं. प्रिंट मीडिया में दैनिक जागरण को मोदी और भाजपा का कट्टर समर्थक माना जाता है. हिंदुस्तान और अमर उजाला ने सरकार से विरोध की धारा बदल दी है. दैनिक भास्कर को मोदी और भाजपा का विरोधी माना जाता है. असल में ट्रोल करने वाले लोग ही मीडिया को 2 पक्षों में खड़ा कर के देखते हैं. बजट सत्र के समय एक मैसेज वायरल हुआ था जिस में कहा गया कि ‘अगर बजट की खूबियां देखनी हैं तो इंडिया टीवी देखो और खामियां गिननी हैं तो एनडीटीवी देख लो.’

सोशल मीडिया पर मीडिया को ले कर ऐसे ही तमाम मैसेज चलते रहते हैं. ऐसा नहीं है कि गोदी मीडिया से पहले की सरकारों में मीडिया आजाद रहा हो. बीते जमाने की सरकारों के दौर में मीडिया केवल ?ाकता दिखाई देता था, आज के दौर में यह नतमस्तक दिखाई दे रहा है. इस ने न केवल सरकार से सवाल पूछना बंद कर दिया बल्कि कई बार सरकार को बचाने वाली खबरें और स्टोरी भी गढ़ने लगा है. अब वह विपक्ष से कहता है कि तुम्हारे जमाने में भी ऐसा होता रहा है तो इस में खास बात क्या है? लखनऊ में ‘4 पीएम’ अखबार और ‘न्यूज नैटवर्क’ पोर्टल चला रहे संजय शर्मा ट्रोल सेना और सरकार के दबाव का शिकार हो गए. इस के बाद भी वे बिना ?ाके अपना काम करते हैं.

मीडिया की भूमिका पर वे कहते हैं, ‘‘आजाद भारत में पहली बार मीडिया का ऐसा चेहरा देखने को मिला है जहां वह अपना ही मकसद भूल चुकी है. ऐसे में उस की चौथे स्तंभ की पहचान खत्म होती दिख रही है.’’ खतरें में अभिव्यक्ति की आजादी संविधान का अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है. अनुच्छेद 19 (1) (क) के तहत कहा गया है कि सभी नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार होगा. आज के दौर में इस का दुरुपयोग हो रहा है. यही नहीं, धर्म की सचाई को बताने पर भी खतरा बढ़ गया है. धार्मिक रूप से कट्टर वर्ग द्वारा तुरंत थाने और कोर्ट में यह शिकायत की जाती है कि उस की आस्था को ठेस लगी है. इस के आधार पर ही लिखने या बोलने वाले के खिलाफ मुकदमा हो जाता है. यह केवल पत्रकारों के साथ ही नहीं हो रहा, बहुत सारी फिल्मों और लेखकों के साथ भी हो रहा है. फिल्मों का बायकौट से ले कर मुकदमे और उन के रिलीज पर रोक लगाने का काम भी होता है. पुलिस और कोर्ट भी इन के विरोध को आधार मान कर कई बार पत्रकारों के खिलाफ ही कड़े कदम उठा लेती हैं.

1950 में रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामले में सर्वौच्च न्यायालय ने पाया कि सभी लोकतांत्रिक संगठनों की नींव पर प्रैस की स्वतंत्रता आधारित होती है. प्रैस की स्वतंत्रता असीमित नहीं होती है. संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत भारत की संप्रभुता और अखंडता के हितों से संबंधित मामले, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या न्यायालय की अवमानना के संबंध में, मानहानि या अपराध माना जा सकता है. यह सच है कि कई बार मीडिया अपनी सीमाएं लांघने का काम करती है. ऐसे मामले अपवादस्वरूप ही होते हैं पर उन को आधार बना कर मीडिया की आजादी को खत्म करने का काम नहीं किया जाना चाहिए. प्रिंट मीडिया कम होने से कमजोर हुई पत्रकारिता भारत के 80 फीसदी घरों में टैलीविजन हैं. इन की वजह से इलैक्ट्रौनिक मीडिया की घुसपैठ घरघर हो गई है. इलैक्ट्रौनिक मीडिया यानी टीवी चैनलों को चलाने के लिए एक बड़े बजट की जरूरत होती है. इस का प्रचारप्रसार होने से टीवी चैनलों की तादाद तेजी से बढ़ी.

इन में से अधिकतर को चलाने के लिए जिस पूंजी की जरूरत होती है उस के लिए बिना सरकार की सहायता के संभव नहीं है. यही वजह है कि टीवी चैनल या तो पूंजीपतियों के नियंत्रण में हो गए या सरकार के. अब इन का यह काम हो गया कि ये सरकार द्वारा प्रायोजित मुद्दे को घरघर इस तरह फैलाएं कि जमीनी मुद्दों की जनता को याद न आए. इतिहास की तरफ देखें तो पता चलता है कि हर देश की आजादी की लड़ाई में मीडिया की भूमिका अहम रही है. इस की सब से बड़ी वजह यह थी कि पढ़ने से विचार मिलते हैं और विचारों से आजादी मिलती है. 18वीं शताब्दी के बाद से, खासकर अमेरिकी स्वतंत्रता आंदोलन और फ्रांसीसी क्रांति के समय से, जनता तक पहुंचने और उसे जागरूक कर सक्षम बनाने में मीडिया ने अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. वहीं भारत की स्वतंत्रता में भी मीडिया की भूमिका बेहद अहम रही है. उस दौर में मीडिया के रूप में समाचारपत्र और पत्रिकाएं ही थीं.

रेडियो पर सरकार का नियंत्रण था. मीडिया अगर अपनी सकारात्मक भूमिका अदा करे तो किसी भी व्यक्ति, संस्था, समूह और देश को आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक रूप से समृद्ध बनाया जा सकता है. वर्तमान समय में मीडिया की उपयोगिता, महत्त्व व भूमिका निरंतर बढ़ती जा रही है. दिक्कत की बात यह है कि मीडिया की उपयोगिता के साथसाथ इस के दुरुपयोग भी बढ़ रहे हैं. मीडिया को नियंत्रण में करने के लिए इस की आजादी को खत्म करने का काम किया जा रहा है. इस में राजनीतिक दलों की भूमिका सब से प्रमुख है. वे लालच और साम, दाम, दंड व भेद से मीडिया की आजादी और निष्पक्षता को खत्म कर रहे हैं. यही वजह है कि आज जनता का मीडिया पर पहले जैसा भरोसा नहीं रह गया है. इस में जनता यानी समाज का भी अहम रोल है.

उस ने जिस तरह से पढ़ना छोड़ा है, मीडिया कमजोर हुई है. मीडिया निष्पक्ष तभी हो सकेगी जब वह मजबूत हो सके. कैसे कमजोर हुई पत्रकारिता 90 के दशक में देश में जब आर्थिक सुधार की नीतियां लागू हुईं तो हर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूंजी निवेश किया जाने लगा. मीडिया भी इस का शिकार हुई. प्रिंट मीडिया में अखबार और पत्रिकाएं बदलने लगीं. टीवी चैनल आने लगे. मीडिया की सादगी और जिम्मेदारी वाला भाव कम होने लगा. मीडिया में चकाचौंध बढ़ने लगी. मीडिया भी बाजार के चकाचौंध में डूबने लगी. उस के खर्चे बढ़े तो विज्ञापन का दौर शुरू हुआ. महंगाई बढ़ने से मीडिया के अपने खर्च बढ़ने लगे थे. खर्चे पूरे करने के लिए मीडिया की नैतिकता पीछे छूटने लगी. विज्ञापन के लिए ही नहीं, अब तो पेड न्यूज जैसे उपाय भी होने लगे. इस वजह से खबरें देख या पढ़ कर लोग यह नहीं सम?ा सकते थे कि कौन सी खबर है और कौन सी पेड न्यूज. मीडिया अब ऐसे मालिकों के कब्जे में हो गई थी जो बिजनसमैन थे. मीडिया का वह 2 तरह से उपयोग करने लगे. पहला, मुनाफे के लिए, दूसरा. उस के प्रभाव की आड़ में कोई दूसरा बिजनैस करने के लिए. मीडिया समूहों के मालिकों ने इस के जरिए राजनीति में जाने का काम भी किया. यही नहीं, अपनी टीआरपी और पाठकों की संख्या को बढ़ाने के लिए धर्म की आड़ लेने में भी मीडिया समूहों को कोई गुरेज नहीं रहा.

धीरेधीरे मीडिया अपने मूल उद्देश्य से भटकने लगी. बिजनैस का पक्ष उस पर हावी होने लगा. 2022 तक देश के सब से बड़े कारोबारी घराने अंबानी और अडानी समूह भी मीडिया के क्षेत्र में उतर आए. जगाने की जगह बरगलाने लगा मीडिया मीडिया की जिम्मेदारी होती है कि वह सरकार के हर अच्छेबुरे फैसले के पीछे का सच बताए. जनता भी मीडिया की बात पर भरोसा कर के उसे वोट देने का फैसला करती है. कोई भी समाज, सरकार, वर्ग, संस्था, समूह व्यक्ति मीडिया की उपेक्षा कर आगे नहीं बढ़ सकता है. आज के जीवन में मीडिया आम जनमानस के जीवन की एक अपरिहार्य आवश्यकता बन गई है. रिपोर्टिंग बंद, बहस शुरू आज टीवी चैनलों में रिपोर्टिंग बंद हो गई है. अब एक नई विधा बहस की शुरुआत हुई है. इस में एक एंकर होता है और एक बुद्धिजीवी होता है,

अलगअलग राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि होते हैं. बहस के इन कार्यक्रमों के नाम भी ऐसे हैं जिन से लड़ाई?ागड़े का आभास होता है. ‘मुकाबला’, ‘महामुकाबला’, ‘ताल ठोक कर’, ‘महाबहस’ और ‘महायुद्ध’ जैसे नाम बताते हैं कि बहस का स्वरूप कैसा होता होगा. टीवी के सामने बहस में ही ?ागड़े और लड़ाई तक होने लगती है. राजनीतिक दल टीवी के इन कार्यक्रमों को हिट कराने में मदद करते हैं. टीवी पर बहस में हिस्सा लेने वालों के नाम हर दल ने तय कर रखे हैं. इस बहस के मुद्दे वे होते हैं जिन का जनता से मतलब नहीं होता है. महंगाई, बेरोजगारी, अपराध, शहरों का खराब रहनसहन, सड़क जाम और प्रदूषण पर बहस की जगह पाकिस्तान पर होने वाली बहसों की संख्या अधिक होती है. पाकिस्तान पर बहस वहां से प्रेम के कारण नहीं की जाती.

इस बहस के सहारे भारत में हिंदूमुसलिम की राजनीति को भड़काने का काम किया जाता है, जिस से चुनाव के समय जनता महंगाई, बेरोजगारी पर वोट न दे कर हिंदूमुसलिम पर वोट करे. इन मुद्दों पर महीनों बहस चलाई जाती है जिस से वोट देने के समय केवल इसी मुद्दे पर ही वोट डाले जाएं. मार्गदर्शक की भूमिका छोड़ता मीडिया मीडिया की भूमिका समाज को सही सूचना देने वाली एजेंसी की होती है. मीडिया द्वारा समाज को विश्वभर में होने वाली घटनाओं की जानकारी मिलती है. इसलिए मीडिया का यह प्रयास होना चाहिए कि जानकारियां सही और समाज के हित में होनी चाहिए. सूचनाओं को तोड़मरोड़ कर या दूषित कर आम जनमानस के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं होना चाहिए. समाज के हित एवं देशदुनिया में होने वाली घटनाओं की जानकारी के लिए सूचनाओं को यथावत एवं विशुद्ध रूप में जनता के समक्ष पेश करना चाहिए.

मीडिया अपनी सामग्री को इस तरह से पेश करे कि समाज का मार्गदर्शन हो सके. खबरों और घटनाओं का प्रस्तुतीकरण इस प्रकार हो जिस से जनता का मार्गदर्शन हो सके. उत्तम लेख, संपादकीय, ज्ञानवर्धक, श्रेष्ठ मनोरंजन आदि सामग्रियों का खबरों में समावेशन होना चाहिए, तभी हमारे समाज को सही दिशा प्रदान की जा सकती है. लेकिन वर्तमान में हम मीडिया की आम जनमानस के समक्ष प्रस्तुतीकरण की बात करें तो भारतीय मीडिया छोटेछोटे भागों में बंटा हुआ है. संवेदनशील बने मीडिया मीडिया का संवेदनशील होना बेहद जरूरी है. आजकल मीडिया की संवेदनशीलता को ले कर अनेक प्रश्न खड़े होते हैं. मीडिया को हर वर्ग के प्रति संवेदनशील रहना पड़ता है. मीडिया का मतलब केवल राजनीतिक रिपोर्टिंग हो गया है. जबकि मीडिया को हर वर्ग के प्रति सजग और संवेनदनशील होना चाहिए. अखबार हो या चैनल अब वहां पर नेताओं के मसले ही दिखाई देते हैं.

बच्चों और महिलाओं के मुद्दों, उन के अधिकारों, उन से संबंधित योजनाओं पर लिखनापढ़ना बंद हो गया है. नेताओं ने बड़ी चतुराई से मीडिया को पूरी तरह से अपनी तरफ कर रखा है. बाल साहित्य पढ़ने से बच्चों में पढ़ने की आदत पड़ती थी. आज करीबकरीब सारी बाल पत्रिकाएं बंद हो गई हैं. दिल्ली प्रैस द्वारा प्रकाशित बच्चों की पत्रिका ‘चंपक’ हिंदी के साथ ही साथ 7 दूसरी भाषाओं में भी प्रकाशित होती है. दिल्ली प्रैस अपने अथक प्रयासों से बच्चों के प्रति पूरे देश में जागरूकता और संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए चंपक को गांवगांव तक पहुंचाने का प्रयास कर रहा है. आज जरूरत इस बात की है कि प्रत्येक पंचायत में पुस्तकालय बनें. सरकार उन में पत्रिकाएं और अखबार रखे.

स्कूलों में भी इस की जागरूकता पैदा की जाए. लड़केलड़कियों दोनों को ही पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाए. तभी युवाओं में विचारों का जन्म लेना शुरू होगा. युवा और बच्चों को भी समाज में अपनी भूमिका को सम?ाते हुए मीडिया के साथ जुड़ना चाहिए. जब तक युवा और बच्चे स्वयं की भूमिका को नहीं सम?ोंगे, तब तक मीडिया एक अच्छी मीडिया नहीं बन सकती. आज के दौर में सोशल मीडिया के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता है. सोशल मीडिया को जागरूक और संवेदनशील बनाने की जरूरत है. सोशल मीडिया को ले कर समाज में नैगेटिव धारणा बनी हुई है.

आज अगर देखा जाए तो सोशल मीडिया ही ऐसा है जो काफीकुछ सरकार के दबाव से मुक्त है. किसान आंदोलन के समय मुख्यधारा की मीडिया ने जब केवल सरकार का पक्ष रखना शुरू किया तो सोशल मीडिया ने ही सच को दिखाया. सोशल मीडिया का सच दिखाना सरकार को पसंद नहीं आ रहा है. इस वजह से वह सोशल मीडिया पर नियंत्रण के लिए तरहतरह के उपाय सोच रही है. खतरनाक होता है मीडिया ट्रायल मीडिया ने खबरों के संतुलन को छोड़ कर तमाम मामलों में मीडिया ट्रायल शुरू कर दिया है, जिस में मीडिया अनेक घटनाओं में या तो पीडि़त परिवार के प्रति संवेदनशील नहीं रहेगा या आरोपियों के प्रति तीव्र हो जाएगा. फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या मामले में अभिनेत्री रिया चक्रवर्ती को ले कर जिस तरह का मीडिया का रुख दिखा वैसा कोई पहली बार नहीं हुआ था. मीडिया का काम रिपोर्टिंग कर जनता को सच बताने का होता है. मीडिया अब सच बताने के साथ ही साथ फैसला भी करने लगी है जिस का प्रभाव यह होता है कि कई बार कोर्ट भी प्रभावित हो जाती है. कोर्ट का फैसला मीडिया से अलग हो तो लोग कोर्ट को गलत मानने लगते हैं.

ऐसे मामलों में मीडिया का ट्रायल खतरनाक हो जाता है. यही वजह है कि अब उच्चतम न्यायालय महसूस करता है कि इलैक्ट्रौनिक मीडिया के रैगुलेशन की जरूरत है क्योंकि अधिकांश चैनल सिर्फ टीआरपी की दौड़ में लगे हुए हैं और यह ज्यादा सनसनीखेज की ओर जा रहा है. न्यायमूर्ति धनंजय वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति इंदू मल्होत्रा और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की पीठ ने स्पष्ट किया कि मीडिया पर सैंसरशिप लगाने की बात नहीं है पर मीडिया में किसी न किसी तरह नियंत्रण होना चाहिए जिस से वह अपनी जिम्मेदारी को सही तरह से निभाए. कोर्ट मानता है कि प्रिंट मीडिया की तुलना में इलैक्ट्रौनिक मीडिया ज्यादा ताकतवर हो गया है.

आज लोग भले ही अखबार न पढ़ें लेकिन इलैक्ट्रौनिक मीडिया जरूर देखते हैं. समाचारपत्र पढ़ने में हो सकता है मनोरंजन न हो लेकिन इलैक्ट्रौनिक मीडिया में कुछ मनोरंजन भी होता है. जब पत्रकार काम करते हैं तो उन्हें निष्पक्ष टिप्पणी के साथ काम करने की आवश्यकता है. आपराधिक मामलों की जांच देखिए, मीडिया अकसर जांच के एक ही हिस्से को केंद्रित करता है. मीडिया का बदलना आवश्यक था, लेकिन इस का मतलब यह कतई नहीं है कि मीडिया अपनी शक्तियों के चक्कर में अपना मूल कार्य व सामाजिक कर्तव्य भूल जाए. जिस प्रकार से आज भारतीय मीडिया का कुछ अंश अपनी लापरवाही से अनैतिक भाषा का उपयोग करता है, उस की समीक्षा की जानी जरूरी है.

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