परिवार में होने वाले  झगड़ों की सब से बड़ी वजह वसीयत विवाद होता है. वसीयत विवाद हर दूसरे घर का मसला है. वसीयत में किसे कितना मिला, यह ?ागड़े की जड़ होती है. ऐसे में वसीयत बनाते समय क्याक्या ध्यान में रखा जाए, जानें.

अयोध्या के राजा दशरथ से उन की रानी कैकेई ने 2 वरदान मांगे थे. पहला वरदान यह था कि दशरथ के सब से बड़े बेटे राम को राज्य का उत्तराधिकारी न बनाया जाए बल्कि उन की जगह भरत को उत्तराधिकारी बनाया जाए. दूसरा वरदान यह था कि राम को 14 साल का वनवास दिया जाए. कैकेई ने राजा दशरथ से ये 2 वरदान इसलिए मांगे ताकि उन का अपना बेटा भरत राजा बन सके. सवाल उठता है कि जब बात केवल राजा बनने तक थी तो 14 साल का वनवास क्यों मांगा? असल में उस समय जो भी आदमी 14 साल के लिए घर से बाहर रह लेता था उस का उत्तराधिकार खत्म हो जाता था. कैकेई को लग रहा था कि राजा दशरथ अपने जीवनकाल में जो भी दे जाएंगे वही उन को मिलेगा.

किसी विवाद को खत्म करने का सब से अच्छा तरीका यह होता है कि उस मसले को जीवनकाल में ही निबटा दिया जाए. यहां दिक्कत यह होती है कि जीवनकाल में लिए फैसले दूसरों के हित में भले ही हों पर उस इंसान के लिए भारी पड़ सकते हैं. राजा दशरथ ने कैकेई की बात भले ही मान ली पर दोनों वरदान देने के बाद वे खुद जिंदा नहीं रह पाए.

उस काल में घरेलू विवादों को निबटाने के लिए किसी तरह का कानून नहीं बना था. मरने से पहले अपनी जमीनजायदाद, घर और धन के बंटवारे को ले कर की जाने वाली वसीयत भी इसी तरह से होती है. अगर वसीयत बनाने में बंटवारा बराबर का होता है तो विवाद कम होते हैं. लेकिन जैसे ही किसी को कम, किसी को ज्यादा दिया जाने लगता है तो विवाद खड़ा हो जाता है.

जीतेजी नाराजगी लें या नहीं

सवाल उठता है कि वसीयत बनाने में बराबरी किस हद तक की जाए? वसीयत के 2 पहलू होते हैं. पहला पहलू कानूनी होता है. दूसरा पहलू पारिवारिक. कानून कहता है कि वसीयत करने वाला अपनी जायदाद की वसीयत अपनी मरजी से कर सकता है. पारिवारिक पहलू कहता है कि वसीयत इस तरह से हो कि जिस से परिवार में ?ागड़े न हों. यह बात मानने के लिए जरूरी है कि वसीयत करने वाले को अपनी राय से अधिक परिवार की राय को ध्यान में रखना पड़ता है.

कई फिल्मों में दिखाया जाता है कि वसीयत करने वाला जब मर जाता है तो उस का वकील आता है और परिवार के लोगों को यह बताता है कि मरने के बाद वसीयत करने वाले ने क्या किस के नाम छोड़ा है. इस हालत में जायदाद के बंटवारे को ले कर जो भी ?ागड़ा होता है वह मरने के बाद होता है.

वसीयत करने वाले के पास 2 विकल्प होते हैं. पहला विकल्प है कि जायदाद के बंटवारे के बारे में वह मरने के बाद वाले विकल्प को चुने, जिस में उस की वसीयत मरने के बाद किसी वकील के जरिए सार्वजनिक की जाए. दूसरा विकल्प होता है कि वयीयत करते समय परिवार के सभी सदस्यों की राय ली जाए, उन को बता कर वसीयत की जाए. इस में मरने के बाद ?ागड़ा होने की संभावना खत्म हो जाती है पर इस में मरने के पहले ही ?ागड़ा हो सकता है. दूसरे विकल्प को तभी अपनाया जा सकता है जब घर के सभी सदस्यों का बराबर बंटवारा किया जाए.

झगड़े की जड़ है हिस्से का कमज्यादा होना

दिक्कत वसीयत की नहीं, हिस्से में कमज्यादा होने से होती है. वसीयत करने वाला यह जानता है कि किसे कम देना है और किसे ज्यादा. लेकिन वसीयत के जरिए हक पाने वाले यह मानते हैं कि सब को बराबर मिलना चाहिए, खासकर, वे लोग जो अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाना चाहते. इस प्रकार वसीयत लिखने से पहले भी ?ागड़ा हो सकता है और मरने के बाद भी. मरने के बाद होने वाले ?ागड़े में परिवार के लोग ?ागड़ते हैं जबकि मरने से पहले होने वाले ?ागड़े में वसीयत करने वाले के सामने ही ?ागड़े होते हैं. उसे खुद भी बुढ़ापे में संबंधों के बिखरते रूप को देखना पड़ता है.

वसीयत करने वाले की कोशिश यह होनी चाहिए कि वह अपने सामने आपसी सहमति से अपनी जायदाद का बंटवारा कर दे, जिस से मरने के बाद होने वाले विवाद से परिवार को बचाया जा सके. अगर परिवार के किसी सदस्य को कम या ज्यादा जायदाद देनी है तो तर्क के साथ यह बताना चाहिए कि कम और ज्यादा क्यों दिया जा रहा है. आपसी सहमति से कम या ज्यादा का फैसला ?ागड़े में नहीं बदलता. अगर बिना परिवार को भरोसे में लिए वसीयत के जरिए जायदाद का बंटवारा हो जाता है तो मरने के बाद ?ागड़ा होने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं.

क्या होती है वसीयत

वसीयत एक बौंड है जिस के माध्यम से व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद अपनी संपत्ति की व्यवस्था करता है. भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 3 में वसीयत अर्थात इच्छापत्र की परिभाषा दी गई है. उस के अनुसार, वसीयत का अर्थ वसीयतकर्ता का अपनी संपत्ति के संबंध में अपने अभिप्राय का कानूनी प्रख्यापन है जिसे वह अपनी मृत्यु के पश्चात लागू किए जाने की इच्छा रखता है.

वसीयत अपने जीवन में कई बार की जा सकती है पर वह लागू तभी होती है जब उसे करने वाला आदमी मर जाता है. एक आदमी अपनी संपत्ति की कई बार वसीयत कर सकता है पर जो वसीयत उस के जीवन में सब से बाद की होती है वही महत्त्वपूर्ण होती है. वसीयत का पंजीकरण जरूरी नहीं है पर वसीयत की प्रामाणिकता को बढ़ाने के लिए इस का रजिस्ट्रेशन करा लिया जाता है.

इच्छापत्र सादे कागज पर लिखा जाता है और इस के लिए स्टांप नहीं लगता है क्योंकि यह स्टांप से मुक्त होता है. लेकिन आजकल स्टांप की महत्ता इतनी बढ़ गई है कि कहीं भी अगर बड़ों के स्थान पर अपना नाम चढ़वाना हो तो वहां स्टांपयुक्त कागज को ही पक्के सुबूत के रूप में लिया जाता है. इसलिए सावधानी बरतते हुए वसीयतकर्ता अपने प्रतिनिधियों को आगे की परेशानियों से बचाने के लिए स्टांप का प्रयोग करते हैं.

रजिस्ट्रेशन अधिनियम की धारा 41 के अनुसार, इच्छापत्र वसीयतकर्ता की मृत्युपरांत भी पंजीकृत कराया जा सकता है. वसीयतकर्ता या दाता द्वारा रजिस्ट्रीकरण करने के लिए उपस्थापित की गई विल या दत्तकग्रहण प्राधिकार, किसी भी अन्य दस्तावेज के रजिस्ट्रीकरण की रीति को वैसी ही रीति से रजिस्ट्रीकृत किया जाता है.

वसीयत 2 गवाहों की उपस्थिति में की गई हो और उन गवाहों का उस संपत्ति में कोई हित न हो और मृत्युपरांत वसीयत वसीयतकर्ता की मृत्यु के बाद 3 माह के अंदर रजिस्ट्रार के समक्ष प्रस्तुत कर दी गई हो. वसीयतकर्ता के सभी विधिक प्रतिनिधियों को समन भेज कर आपत्ति दाखिल करने का अवसर दिया जाता है और आपत्ति दाखिल करने का समय समाप्त होने के पश्चात ही वसीयत रजिस्ट्रीकृत की जाती है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...