अब का जमाना ई पेमैंट का है. अब बहुतेरे लोग घर बैठेबैठे अपने सारे जरूरी पेमैंट करते रहते हैं, ट्रेन, हवाईजहाज के टिकट बुक कर लेते हैं. चाहे बिजली का बिल हो या टैलीफोन का हो, बीमा की किस्त हो, सब का पेमैंट औनलाइन हो रहा है. आदमी घर में कैद रह गया है. बहुत सी निजी कंपनियों के कार्यालय घर आधारित होते जा रहे हैं.
यह सिस्टम हम आम हिंदुस्तानियों की फितरत के हिसाब से बिलकुल भी ठीक नहीं है. लोग कई कदम आगे बढ़ते चले जा रहे हैं बिना पीछे की सोचे हुए.
अब खाने का और्डर भी औनलाइन हो रहा है, दैनिक जरूरतों व विलासिता की चीजें भी औनलाइन और्डर पर कूरियर से घर पहुंच रही हैं. अब कोई ऐसी चीज नहीं है जो आप को औनलाइन न मिल सकती हो. प्यार तो बहुत पहले से चैटिंग मैसेजिंग द्वारा औनलाइन हो चुका है? औनलाइन फुटबौल व बैटिंग मतलब क्रिकेट का गेम भी खेला जा रहा है.
इस नए सिस्टम से पुराने सिस्टम का बड़ा नुकसान हो रहा है. पहले एक आदमी अपना काम करने जाता था तो चार लोगों से बतिया लेता था. जैसे, रेलवे की आरक्षण खिड़की, कितना जीवंत माहौल रहता था थोड़ीथोड़ी देर में लाइन में शांति भंग होती रहती थी.
2 आदमियों में पहले कौन आया, इस पर विवाद हो जाता था या कोईर् नया आदमी लाइन में न लग कर सीधे खिड़की में तांकझांक करने की कोशिश करता तो लाइन में एकदम से एकतारूपी करंट का संचार उसी तरह हो जाता जैसे कि हीटर का बटन औन करने पर हो जाता है. कई लोग एकसाथ उस पर सुंदरसुंदर शब्दों के प्रहार कर बैठते कि हम क्या यहां घास चरने आए हैं? हमारा समय क्या धूल है? एक तुम्हीं फूल हो यहां, बाकी सब मिट्टी? पूरी की पूरी लाइन गुस्से में लाल हो जाती थी. कितना उच्च ऊर्जा स्तर रहता था. ऊर्जावान समाज है हमारा. लेकिन औनलाइन सिस्टम इसे लील जाएगा.
सोचें उस दृश्य को जो भूतकाल की बात हो जाएगी, जब लोग आरक्षण खिड़की में बाकायदा खाना व बिस्तरा, किताब, रेडियो साथ ले कर रात 12 बजे ही आ कर जम जाते थे कि सुबह 8 बजे सब से पहला तत्काल का टिकट उन्हीं को मिलेगा.
देश की समस्याओं पर कितनी सार्थक चर्चा लाइन में लगेलगे हो जाती थी. लड़भिड़ कर लोग फिर दादा, भैया भी करने लगते थे. पतिपत्नियों को इस से कुछ सीखना चाहिए जो कि जराजरा सी बात पर मुंह फुला कर कई दिनों तक आपस में बात नहीं करते हैं. नेताओं को सामूहिक रूप से कोसने का यह सब से अच्छा स्थल होता था.
एक दिन ऐसा आएगा इस औनलाइन सिस्टम के कारण कि यह सब लुप्तप्राय हो जाएगा. अगर हम जल्दी नहीं चेते तो अपनी पुरातन संस्कृति का एक महत्त्वपूर्ण अवयव हमेशा के लिए खो चुके होंगे?
पहले बच्चे पासपड़ोस में दिन के
4 बजते ही खेलने चले जाते थे. अब घर बैठे औनलाइन गेम खेल रहे हैं. वे पिज्जा, बर्गर की डिलीवरी देने से ले कर इस के घर पहुंचने तक हर स्टैप की मौनीटरिंग अपने कमरे में बैठेबैठे ही कर रहे हैं.
ई पेमैंट में वह मजा ही नहीं आता है जो नकदनारायण से आता है. जब जेब से खरेखरे नोट निकाल कर किसी दुकानदार को पेमैंट करते हैं तो मोलभाव का आनंद ही कुछ और होता है और बड़े से बड़ा आदमी यदि 10-12 रुपए भी कम करवा ले तो असीमानंद महसूस करता है. इस सब का क्या होगा?
हां, एक नई बात और भी हो रही है कि आदमी औनलाइन अच्छे से होने के लिए भी घर से बाहर निकल कर लाइन पर लगने के लिए तैयार है, वह भी रातभर के लिए और इस में पढ़ेलिखे ज्यादा हैं. ऐप्पल के आईफोन 6 लौंच के समय तो यही हुआ था. लोगों में जनून सवार हो गया था, यहां जैंडर इक्वैलिटी भी देखने को मिली, लड़केलड़कियां बराबरी से रातभर स्टोर खुलने के लिए डटे रहे. यह सोचते हुए कि एक बार लाइन में लग लो, सौदा घाटे का नहीं है, पूरी जिंदगी लाइन में लगने से मुक्ति मिल जाएगी. अब तो सिनेमा के टिकट भी औनलाइन बुक हो रहे हैं. अरे कम से कम सिनेमा को तो छोड़ कर रखना था. सुरक्षा बलों में भरती हुए नए रंगरूटों को अपने जौहर दिखाने का मौका कैसे मिलेगा जो रविवार के दिन 2 घंटे पहले से टिकट खिड़की पर आ कर बलात कब्जा कर लेते थे और किसी ने उफ की तो उस की हुई तबीयत से धुलाई.
कालाबाजारी से टिकट बेचने वालों का तो ध्यान रखना था और पत्नी का वह कुप्पा सा फूला मुंह कहां देखने को मिलेगा, यह इतिहास की बात हो जाएगी. जब पतिपत्नी व 2 बच्चे सिनेमा के टिकट खिड़की पर 2 घंटे पहले से आ कर लगते थे और पता चलता था कि सारे टिकट उन की बारी आने पर खत्म और बिना सौरी बोले ही पीछे बैठा खलनायक लगता आदमी सटाक से टिकट खिड़की का कपाट बंद कर देता था.
अब तो 15 दिन पहले से ही प्लानिंग हो जाती है और सिनेप्लैक्स में कहां बैठना है, यह भी तय हो जाता है. तो यह सिस्टम तो गंगू की नजर में बहुत बुरा है, समाज को जीने के समृद्ध अंदाज का तानाबाना लीलता जा रहा है. हम हिंदुस्तानी ऐसे नहीं रह पाएंगे? ये तकनीक ईजाद करने वाले यह समझने की कोशिश क्यों नहीं करते?
यह क्या बात हुई कि दुकान गए ही नहीं, कपड़े के 10 थान या 20 साडि़यां या सलवारकुरते या पैंटशर्ट निकलवा कर नहीं देखे वह भी 2-3 दुकानों में कम से कम घूम कर, और यहां औनलाइन कैटलौग देख कर और्डर कर दिया? ऐसा तो कपड़ा पहनने में ही मजा न आए. मजा तो तब आता था जब कपड़ा मोलभाव कर के, 4 दुकानें घूम कर लाएं फिर अपने पसंदीदा टेलर के यहां नाप दिया. उस ने उसे सिला और यहां हम अपना गिलाशिकवा ले कर पहुंच गए कि कमर की जगह कमरा समझ के सिल दिया है या फुलशर्ट की बांहें इतनी छोटी बनी हैं कि अब हाफशर्ट ही बना दो.
औनलाइन पतलून और्डर करो तो इतने छोटे से पैक में हलका सा कपड़ा आता है कि लगता है कि कहीं रूमाल तो नहीं भेज दिया है. फिर भी लोग खुश हैं और औनलाइन कारोबार करने वाली कंपनियां भी, क्योंकि उन का टर्नओवर अंकगणितीय अनुपात में बढ़ता जा रहा है.
लाइन में लगना, मोलभाव करना हमारी सांस्कृतिक धरोहर है, कृपया इसे लुप्त होने से बचाने में आप अपना योगदान दें.