रूस यूक्रेन युद्ध एक छोटे देश के अस्तित्व की लड़ाई का ही मामला नहीं है, इस का व्यापक असर हर समाज पर पड़ेगा जैसा द्वितीय विश्व युद्ध का पड़ा था. यह लड़ाई एक छोटे देश के एक विशाल देश की फौज के सामने खड़े होने की हिम्मत की है. इसका संदेश है कि हर देश का नागरिक अगर अपनी सही बात को मनवाना चाहता है या अपने हकों की रक्षा करना चाहता है तो उसे तन कर सब कुछ जोखिम में डाल कर अड़ जाना चाहिए.
यूक्रेन यदि 20 मार्च को सरेंडर कर देता और कहना कि यह तो उस का भाग्य है तो रूस अब तक सरकार बदल चुका होता और उस के टैंक पाटकिया, लिथूनिया, कजागिस्तान, किॢगस्तान की ओर बढ़ रहे होते. यूक्रेन की जनता के घर बचे होते, 30-35 लाख लोग देश छोड़ कर पनाह नहीं ले रहे होते पर एक यूक्रेन विशाल जेल में बदल चुका होता जिस के सारे 4 करोड़ निवासी 9 लाख की रूसी सेना के गुलाम होते.
हमारे अपने देश में क्या होता रहा है. हर संघर्ष में हर हक के लिए हमें यही पाठ पढ़ाया गया है कि आप को वही मिलेगा जो आप के भाग्य में है. गीता बारबार यही कहती है कि हर पल आप का पूर्व निर्धारित है. आप जो चाहे कर लें आप का वर्तमान तो आप के पिछले जन्म के कर्मों से क्या है, हमारी आज की सरकार हर मौके पर कांग्रेस को कोसती है कि उस के कर्मों के फल भारतीय जनता पार्टी की सरकार को भोगने पड़ रहे हैं. व्लादिमीर जेलेंस्की ने न इतिहास का नाम लिया न ईश्वर का. उस ने सिर्फ कहा कि हमें अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है, जान पर खेल कर. कहीं कम साधन होने पर भी वह रूस से भिड़ गया. पूरा देश उस के पीछे हो गया. दिनों में पूरा यूरोप और अमेरिका उस के समर्थन में खड़ा हो गया.
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यूक्रेन को तुरंत सैनिक शस्त्र मिलने लगे. खाना दवाइयां मिलने लगीं. रूस पर आॢथक प्रतिबंध लग गए. लोकतंत्र की रक्षा यानी हर नागरिक के हकों की रक्षा तभी हो सकती है जब अपने हकों के लिए खड़ा होने का जोखिम लिया जाए और यह पाठ जेलेंस्की ने पढ़ा दिया.
रूस यूक्रेन युद्ध ने यह भी जता दिया है कि रूसी भी पश्चिमी देश जो उत्पादन करते हैं, नारेबाजी नहीं, जो व्यक्ति के हकों का सम्मान करते हैं, तानाशाही का नहीं, जो अपने यहां विविधता अपनाते हुए और्थोडोक्स क्रिश्चियन होते हुए भी एक ज्यू को राष्ट्रपति बनाने की हिम्मत रखते हैं, वे हकों का लाभ जानते हैं, जो समाज अपने चर्च के लिए नहीं अपने लोकतांत्रित हकों के लिए जान जोखिम में डालते हैं, उन्हें किसी से भी डरने की जरूरत नहीं.
यूक्रेन में चर्चों में घंटे नहीं बजे, पादरियों के प्रवचन नहीं हुए, चर्च को दान देना शुरू नहीं हुआ, सब ने मिल कर विशाल रूस से 2 हाथ करने का फैसला किया और हर सडक़ को रोका गया, हरहाल में बमों की बचने की फैक्ट्री बना डाला गया. हर टैंक की मोलोटोव कोकटेक या शराब की जलती बोतल का सामना करना पड़ा. शहर तहसनहस हो गए है पर दमखम पचासों मंजिल और ऊंचा हो गया है.
यूक्रेन जीने या हारे, रूस को एक सबक मिल गया है. रूसियों को यूक्रेन पर आक्रमण पर उसी तरह बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी जैसे अफगानिस्तान की जनता को कट्टरपंथी इस्लामी तालिबानी शासकों के घर में और सिर पर बैठाने की पड़ रही है. रूसी अपने धाॢमक राजनीतिक तानाशाह के मनमाने फैसले का फल भोगेंगे, अफगान (और उस जैसे और जैसे बहुत दूसरे देश के निवासी) अपने धाॢमक तानाशाहों के फल भोग रहे हैं. फल पिछले जन्म के कर्मों से नहीं इसी जन्म के कर्मों के फल से मिलता है. यूक्रेन का यह पाठ समझ लें.