विनोद खन्ना निसंदेह एक खूबसूरत, कामयाब और प्रतिभाशाली अभिनेता थे पर वे बहुत ज्यादा मिलनसार और सामाजिक व्यक्ति नहीं थें. अंतर्मुखी स्वभाव के विनोद खन्ना की शवयात्रा में फिल्म इंडस्ट्री के जूनियर कलाकारों की गैर मौजूदगी चर्चा का विषय रही क्योंकि जब उनकी अंतिम यात्रा निकल रही थी तब कई जूनियर कलाकार अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा की पार्टी में शिरकत कर रहे थें. इस बात पर अभिनेता ऋषि कपूर भड़के तो इससे उजागर सिर्फ एक सच हुआ कि नई पीढ़ी चाहे वह फिल्म इंडस्ट्री की हो या आम मध्यम वर्ग की रोने धोने और अनावश्यक औपचारिकताओं को निभाने में यकीन नहीं करती और इस बाबत उसे विवश भी नहीं किया जा सकता.
अपनी भड़ास में ऋषि कपूर ने यह भी जोड़ा कि उन्हें कंधा देने भी लोग (कलाकार) नहीं आएंगे तो यह अकेले उनके नहीं बल्कि देश भर के बुढ़ाते लोगों की व्यथा है जो शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा, धर्म और सामाजिक शक्ति से जोड़ कर देखते हैं. मुमकिन यह भी है कि ऋषि कपूर की एक चिंता फिल्म इंडस्ट्री की एकता की रही हो जिसका बड़ा पैमाना उसकी सुबह तक चलने वाली पार्टियां और ऐसे शोक के मौके भी रहते हैं जो विनोद खन्ना की शवयात्रा में नहीं दिखे तो वे गुस्सा उठे.
ऋषि कपूर की इस व्यथा को दूसरे नजरिए से देखा जाना भी जरूरी है कि उनके पिता शो मैन राजकपूर पार्टियों के बेहद शौकीन थें और उनकी होली पार्टी में फिल्म इंडस्ट्री के छोटे बड़े सभी कलाकार शामिल होने को अपना सौभाग्य समझते थे. यह वह दौर था जब ऋषि कपूर बच्चे थे और अपने घर जमा भीड़ को ही समाज समझते थे हालांकि यह बात गलत भी नहीं पर अब दुनिया और जमाना कितना बदल गया है यह उन्हें विनोद खन्ना की शवयात्रा से समझ आ गया है लेकिन वे इस बदलाव को पचा नहीं पा रहे हैं तो यह जरूर उनकी ही गलती है.
प्रतिष्ठा का पैमाना
दिक्कत तो यह है कि सुनहरे पर्दे पर आम लोगों के किरदार निभाने वाले कलाकारों को भी यह मालूम नहीं रहता कि इन दिनों समाज का सच क्या है वे तो डायरेक्टर के इशारे पर नाचने वाले पैड आर्टिस्ट रहते हैं जो साउंड, म्यूजिक, एक्शन, री-टेक ओके और पैक अप वाली भाषा के आदी हो जाते हैं. शवयात्रा में भीड़ की तादाद हर वर्ग के लोगों के लिए प्रतिष्ठा की बात हर दौर में रही है. जिसकी अंतिम यात्रा में जितनी ज्यादा भीड़ रहती है उसे ज्यादा लोकप्रिय और इज्जतदार मान लिया जाता है.
70 -80 के दशक तक शवयात्राओं में शामिल होना एक सामाजिक अनिवार्यता हुआ करती थी तब शहरीकरण की शुरुआत हुई थी दूसरे लफ्जों में कहें तो आज जितनी कथित संवेदनहीनता नहीं आई थी. शहर छोटे छोटे थे और लोगों के बीच बिना किसी सोशल मीडिया के एक सतत संपर्क और संवाद बना रहता था जिसे याद कर आज भी ऋषि कपूर की उम्र के लोग अतीत के मोह में खो जाते हैं कि वे भी क्या दिन थे जब किसी भी शवयात्रा में पूरा गांव या शहर उमड़ पड़ता था. हालांकि पूरा सच यह है कि शवयात्राओ में भीड़ मृतक की प्रतिष्ठा, जाति, पद, व्यवसाय और रईसी बगेरह देख कर ही उमड़ती थी और इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि मृतक के वारिसों की भी उपयोगिता भी देखी जाती थी.
बदलाव ये आए हैं कि अब सिर्फ इन वारिसों की उपयोगिता ही देखी जाती है. हालत यह है कि किसी शहर के पार्षद का पिता भी मरता है तो लोग मुंह लटकाए उसकी शवयात्रा में घुस जाते हैं और उसे अपना लटका मुंह दिखाने की ऐसी कोशिश करते हैं जैसे खुद उनका कोई सगे वाला नहीं रहा हो. यहां यह बात कोई मायने नहीं रखती कि मृतक से उनका कोई वास्ता ही कभी नहीं रही था. फिर विधायक, सांसद या किसी दूसरे अहम राजनैतिक पद पर आसीन व्यक्ति का कोई सगे वाला मरता है तो भीड़ भी उसी तादाद में बढ़ती जाती है. सरकारी अधिकारियों के घर हुई मौतों की शवयात्राओं में भी भीड़ उसके पद के हिसाब से उमड़ती है. उलट इसके व्यापारी वर्ग की हालत थोड़ी अलग है जो अपने व्यापारिक सम्बन्धों को निभाने आम तौर पर छोटे बड़े में कम ही भेदभाव करते हैं.
बढ़ते शहर सिमटती भीड़
अब शहर बड़े होते जा रहे हैं ऐसे में भीड़ हर किसी की शवयात्रा में उल्लेखनीय नहीं रहती तो इस पर समाज और संवेदनाओं को कोसना कतई तुक की बात नहीं बल्कि लोगों की मजबूरियां समझने की है कि एक शवयात्रा में शामिल होने का मतलब है एक कार्य दिवस का नुकसान उठाना, दूसरे घरों में पहले से सदस्य भी नहीं हैं जो शवयात्रा में शामिल होकर सामाजिक शिष्टाचार निभा सकें.
मिसाल भोपाल शहर की लें तो 5 किलोमीटर दूर भी मृतक के घर आने जाने वालों को हजार बार सोचना पड़ता है कि जाएं कि नहीं और जाना जरूरी हो तो घर के इंतजाम कैसे करें. किसी के यहां खुद बीमार मां बाप हैं तो किसी के बच्चों को स्कूल से लाने ले जाने वाला कोई नहीं, किसी की कामकाजी पत्नी दफ्तर में होती है तो किसी को अपने ही दफ्तर या कारोबार के जरूरी कामकाज निबटाना होते हैं. दूसरी दिक्कत श्मशान घाटों का दूर दूर होना भी है जहां आजकल लोग सीधे पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं लेकिन जिनके पास अपने वाहन नहीं है वे तो घाटों तक पहुंच ही नहीं पाते और टैक्सी या ऑटो रिक्शा करें तो खर्च तीन चार सौ रुपये से कम नहीं बैठता जाहिर है जिसके पास अपना वाहन नहीं होगा वह यह राशि एक शवयात्रा में शामिल होने खर्च नहीं कर सकता.
बी श्रेणी के शहरों की हालत यह हो चली है कि कई लोगों को तो अपने यहां हुई मौत का दुख मनाने से पहले दस लोगों को जुटाना मुश्किल हो जाता है फिर तो और बड़े शहरों की तो बात ही और है. बेंगलुरु की एक सॉफ्टवेयर कंपनी के एक इंजीनियर अर्पित अपने पिता को साथ ले गया था जहां हार्ट अटेक से उनकी मौत हुई तो वह दुख में कम बेबसी पर ज्यादा रोया था.
अर्पित बताता है, पड़ोस के फ्लैट वाले भी नहीं आए जबकि उन्हें मालूम था, कंपनी के सह कर्मियों को फोन किया तो उन्होने कहा पहुंचने में ही 2 घंटे लग जाएंगे तुम डैड की बॉडी लेकर श्मशान घाट पहुंचो हम वहीं मिलेंगे. भारी भरकम भुगतान पर ही सही शांति वाहन अपार्टमेंट के नीचे आकर खड़ा तो हो गया था पर समस्या शव को नीचे ले जाने की थी. मध्य प्रदेश में रह रहे रिश्तेदार तो पहले ही इतने जल्दी बेंगलुरु पहुंचने में स्वभाविक असमर्थता जता चुके थे. शव की हालत भी ऐसी नहीं थी कि उसे घर भोपाल ले जाया जा सके जैसे तैसे पत्नी और सिक्योर्टी गार्डों की मदद से वह शव श्मशान घाट तक ले गया और 5 सह कर्मियों की सहायता से पिता का विद्धुत शवदाह गृह में अंतिम संस्कार किया. बाद में अर्पित को मालूम हुआ कि आजकल हर बड़े शहर में कुछ एजेंसियां अंतिम संस्कार की जिम्मेदारियां लेने लगी हैं पर उसके साथ जो हुआ उसे वह शायद ही कभी भूल पाये.
धार्मिक आडंबर भी जिम्मेदार
शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा या संवेदनाओं से जोड़ कर देखने वाले ऋषि कपूर जैसे लोगों की मानसिकता दरअसल में धार्मिक पाखंडों में जकड़ी होती है जिसके तहत यह माना जाता है कि शवयात्रा में शामिल होने से पुण्य मिलता है. होता यह है कि पहले रोने धोने के बाद शव के साथ भी इतने कर्मकांड किए जाते हैं कि शवयात्रा में शामिल होने आए लोग बार बार अपनी घड़ी देख दुख में नहीं बल्कि हो रही देरी पर रो पड़ते हैं. हिम्मत वाले यानि व्यावहारिक लोग ही वहां से खिसक लेने की हिम्मत जुटा पाते हैं. चिलचिलाती धूप हो या घुमड़ते बादल हों या फिर कडकड़ाती ठंड हो मृतक के परिजनों को दुख की इस घड़ी में साथ देने आए शुभचिंतकों की परेशानियों से ज्यादा चिंता कर्मकांडों की रहती है.
पहले शव को स्नान कराया जाता है फिर तरह तरह की दूसरी रस्में अदा की जाती हैं यह प्रक्रिया शमशान घाट में भी चलती है आग और दाग देने के पहले मुंडन होते हैं. पंडित तरह तरह के मंत्रोच्चार करता है फिर कहीं जाकर अग्नि दी जाती है जिसके लिए लोग आए होते हैं. ये 4-6 घंटे भूखे प्यासे गुजारना कई लोगों पर इतना भारी पड़ता है कि वे शव यात्राओं मे जाने से कतराने लगते हैं तो इसमें हैरानी की क्या बात.
बात श्मशान घाट में ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि वहां से घर लौटने पर खुद नहाना भी एक धार्मिक वाध्यता है. क्यों है इसका तार्किक जबाब किसी के पास नहीं सिवाय इसके कि चूंकि सूतक लगे होते हैं इसलिए नहाया जाता है और तब तक कुछ खाना पीना निषिद्ध होता है. बेवकूफी की यह इंतहा ही है कि जब किसी दूसरे के यहां जाते हैं तो ये बातें लोगों को पाखंड लगती हैं पर खुद करते हैं तो धर्म लगने लगती हैं.
ध्यान रखें
सम्बन्ध निभाने की हर मुमकिन कोशिश हर कोई करता है और करना भी चाहिए खासतौर से दुख की घड़ी में लेकिन इन्हें बहुत बड़े नुकसान की शर्त या परेशानियां ढोते निभाना कतई बुद्धिमानी की बात नहीं. किसी की भी शवयात्रा में जाने से ज्यादा अगर कोई दूसरा जरूरी काम घर, दफ्तर, दुकान या कारोबार में है तो उसे प्राथमिकता से करना चाहिए, मृतक के यहां बाद में कभी भी अपनी सुविधानुसार जाया जा सकता है. जिन धार्मिक पाखंडो को हम दूसरे के यहां होते देख उन्हें कोसते हैं उन्हे अपने यहां होने से रोकने की हिम्मत करें तो यह एक अनुकरणीय पहल होगी. मृत्यु भोज के मामले में ऐसा होने भी लगा है.
मध्यम वर्ग की यह बीमार मानसिकता है कि वह शवयात्रा की भीड़ को प्रतिष्ठा मानता है और हालत यह है कि यह भी ध्यान रखता है कि जो हमारे यहां नहीं आया हम भी उसके यहां नहीं जाएंगे यानि शव यात्रा भी सामाजिक बैर का शिकार हो चली है इससे कम से कम खुद को तो बचाया ही जा सकता है संभव है जो आपके यहां नहीं आया उसकी कोई मजबूरी रही हो. रही बात राजनैतिक और फिल्मी शवयात्राओं की तो वे अपवाद हैं लोग उनमे जुनून और जज्बातों के चलते ज्यादा जाते हैं लेकिन ऋषि कपूर जैसे अभिनेता इस पर भी तिलमिलाने लगे हैं तो जाहिर है वे स्टारडम को लेकर पूर्वाग्रह और कुंठा के शिकार हैं.