लेखक- वीरेंद्र बहादुर सिंह
इंसुलिन भरे इंजेक्शन की छोटी सुई लगते ही रघुबीर के मुंह से सिसकारी निकल गई. उन्हें यह रोज सहना पड़ता था, क्योंकि इंसुलिन अब उन की जिंदगी की डोर बन गई थी. और अब तो राधा के साथ जीने की लालसा ने इस कष्ट को सामान्य कर दिया था. उन की इस सिसकारी पर राधा ने कहा, ‘‘इतने सालों से इंजेक्शन लगवा रहे हो, पर सिसकारी मारना नहीं भूले. कोई छोटे बच्चे तो हो नहीं, जो इंजेक्शन लगते ही सिस्स... सिस्स... करने लगते हो.’’
‘‘अरे राधा, तुम्हें मैं बड़ा लगता हूं,’’ रघुबीर ने हमेशा की तरह कहा. अब उन के लिए तो राधा ही सर्वस्व थी. एक मित्र, साथी और प्रेमी. हां, प्रेमी भी, इसीलिए तो... जबजब राधा अपनी चश्मा चढ़ी आंखों को फैला कर इंजेक्शन भरने लगती, रघुबीर एकटक उन के चेहरे को ताकते रहते. और जब वह इंजेक्शन लगाती, रघुबीर सिसकारी जरूर भरते.
राधा को पता था कि रघुबीर ऐसा जानबूझ कर करते हैं. फिर भी वह जरूर कहतीं, ‘‘सच में इंजेक्शन से बहुत दर्द होता है.’’
इस के बाद रघुबीर के ‘न’ के साथ शुरू हुआ संवाद राधा की जिंदगी की डोर था.
2 साल हो गए थे रघुबीर और राधा को इस वृद्धाश्रम में आए. यहां पहला कदम रखने का दुख आज हृदय के किसी कोने में दब कर रह गया है. जब ये आए थे, तब दोनों के पैर साथ चलते थे और अब हृदय की धड़कन भी साथ चलती है. जैसे एक की थम जाएगी तो दूसरे की भी.
"मैं भी यहां बैठ जाऊं?’’ राधा ने पार्क में लगे झूले पर बैठे रघुबीर से पूछा. पर, रघुबीर का ध्यान तो कहीं और था. वह सामने रखे गमले में लगे कैकटस को एकटक ताक रहे थे.