लेखक-विनोद प्रसाद
कहते हैं कि बहुत खुशनसीब हैं, वे लोग, जिन्हें अच्छा पड़ोसी मिल जाए, पर मेरे कुल 30 सालों में से 27 कुंआरे सालों को निकाल दिया जाए, तो शादी के बाद महज 3 सालों के कड़वे तजरबे पर मैं यह जरूर कह सकता हूं कि कितने अभागे होते हैं वे पति, जिन्हें अच्छी पड़ोसन मिल जाती है, क्योंकि अच्छी पड़ोसन की अहमियत तो शादी के बाद ही सम झ में आती है. इन 3 सालों में मैं ने 3 मकान बदले हैं, पर पड़ोसी चाहे जैसा भी मिला हो, लेकिन पड़ोसन अच्छी ही मिली. शादी से पहले मैं जिस मकान में रहता था, उस की मालकिन की बेटी मु झ पर बहुत मेहरबान थी और वह मेरा बहुत खयाल रखती थी. वैसे कहने को तो मैं होटल में खाना खाता था, लेकिन होटल में खाने की नौबत कम ही आती थी. अब भला बाप की मौजूदगी में किस भारतीय बेटी में इतनी हिम्मत होगी कि एक कुंआरे नौजवान किराएदार को घर से छिपा कर खाना खिलाए.
मतलब यह कि मेरी मकान मालकिन की खूबसूरत और दयावान बेटी का खूसट बूढ़ा बाप जिस दिन घर पर पहरेदारी करता, उस दिन मजबूरी में मु झे होटल का खाना गले के नीचे उतारना पड़ता था. शादी के बाद खाने की समस्या का समाधान तो हो गया, पर बातबेबात मकान मालकिन की बेटी का मेरे कमरे में आना और मु झ में दिलचस्पी लेना शायद मेरी पत्नी को नागवार गुजरा. तभी तो एक दिन मौका पाते ही मेरी पत्नी ने कहा, ‘‘सुनिए, कोई दूसरा मकान नहीं मिल सकता है क्या?’’ ‘‘क्यों, यहां क्या परेशानी है?’’ मैं ने हड़बड़ा कर पूछा. ‘‘यह भी कोई मकान है…’’ उस ने मुंह बनाते हुए कहा, ‘‘एक ही तो कमरा है. इसे मैं ड्राइंगरूम कहूं, डाइनिंग रूम या बैडरूम. अब धीरेधीरे परिवार बड़ा होगा तो क्या इसी एक कमरे में काम चल जाएगा?’’ ‘‘अरे हां… इस पर तो मैं ने कभी सोचा ही नहीं,’’ मैं ने चुटकी लेते हुए कहा. ‘‘सोचिएगा कैसे, आप को तो उस चुड़ैल के बारे में सोचने से फुरसत मिले तब न,’’ पत्नी ने ताना मारते हुए कहा. ‘‘कैसी बातें करती हो तुम. अरे, वह कितनी अच्छी लड़की है,’’ मैं ने सफाई देते हुए कहा, ‘‘तुम शायद नहीं जानती हो कि शादी से पहले वह मेरा कितना खयाल रखती थी.
ये भी पढ़ें- आइडिया : रश्मि की कौन सी आदत लोगों को पसंद थी
’ ‘‘हांहां… जानती नहीं तो क्या सम झती भी नहीं हूं,’’ पत्नी ने कहा. ‘‘ठीक है, बदल लेंगे मकान,’’ मेरे आश्वासन पर ही वह सहज हो पाई. मैं ने सोचा कि चलो बात टल गई, लेकिन दूसरे ही दिन से उस ने मकान बदलने की जो जिद ठानी, तो महीनेभर के अंदर मकान बदलवा कर ही दम लिया. नया मकान… नया पड़ोसी… नई पड़ोसन… पड़ोस में बहुत भले सज्जन थे मिश्राजी और उन की खुबसूरत पत्नी यानी मेरी नई पड़ोसन. कुछ ही दिन नए मकान में गुजरे होंगे, मैं ने महसूस किया कि मिश्राजी की खूबसूरत पत्नी मेरी पत्नी से बहुत घुलमिल गई है और मेरी पत्नी को दीदी कहने लगी है. मेरी पत्नी भी छोटी बहन के रूप में पड़ोसन पा कर खुश थी और श्रीमती मिश्रा की बहुत तारीफ करती. मेरी पत्नी को ‘दीदी’ कहने के नाते वह मु झे भी ‘जीजाजी’ कहने लगी और मैं भी उन्हें साली के रूप में देखनेसम झने लगा. धीरेधीरे यह जीजासाली का रिश्ता मेरी पत्नी की आंखों में सौत की तरह खटकने लगा. और एक दिन… फिर वही मुसीबत… पत्नी ने मकान बदलने के लिए अनशन कर दिया. मैं ने लाख सम झाना चाहा कि किराए का मकान कोई फिल्मी पति तो है नहीं कि जब जी चाहा बदल लिया,
लेकिन कोई असर न पा कर आननफानन में नए मकान में शिफ्ट होने के लिए मजबूर होना पड़ा. बारबार मकान बदलने में मु झे कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, इस से मेरी पत्नी को क्या मतलब, इसलिए सिक्योरिटी के नजरिए से इस बार मैं ने बहुत सोचसम झ कर ऐसी जगह मकान किराए पर लिया, जहां पड़ोसी के नाम पर थे एक 62 साल के बनर्जी बाबू और पड़ोसन थीं उन की 55 साला पत्नी. मैं ने चैन की सांस ली कि चलो अब पड़ोसन का खतरा नहीं यानी बारबार मकान बदलने की समस्या से छुट्टी. लेकिन पता नहीं कहां से बनर्जी बाबू के बेटे और बहू के मन में बूढे़बुढि़या के प्रति प्यार उमड़ आया और वे उन्हें अपने साथ रखने के लिए लेने आ पहुंचे. बनर्जी बाबू मकान खाली करने के बाद जाने से पहले मु झ से मिलने आए और बोले, ‘‘बहुत खुशी हुई थी जब आप लोग यहां आए. अब तो हम बच्चों के साथ रहने के लिए जा रहे हैं. आप लोग कभी उधर घूमने जरूर आइएगा,
’’ उन्होंने अपना नया पता मु झे देते हुए कहा, ‘‘अच्छा नमस्कार.’’ मैं डर रहा था कि अब इस खाली मकान में फिर कोई अच्छी पड़ोसन न आ जाए और हुआ भी वही, जिस का मु झे डर था. एक दिन पड़ोस की बालकनी में मैं ने एक चांद का टुकड़ा देखा. मैं सम झ गया कि मुसीबत फिर मेरे गले पड़ने वाली है. अब पड़ोसी से कितना बचा जा सकता था, सो धीरेधीरे हम में जानपहचान हुई और हम ने अच्छे पड़ोसी का संबंध स्थापित कर लिया. मैं कोशिश करता था कि जब भी नई पड़ोसन मेरे यहां आए तो मैं कमरे में न रहूं, ताकि मेरी पत्नी को कोई गलतफहमी न हो. मैं भूल से भी कभी पड़ोसन की खिड़की की ओर देखता तक नहीं था, क्योंकि 2 मकानों को बदलने में मैं ने तकरीबन सारे शहर का सर्वे कर लिया था, इसलिए अगर फिर मकान बदलना पड़ा तो क्या होगा, यही सोच कर डर लगता था. कुछ दिन तक तो ठीकठाक चला, लेकिन एक दिन जब मैं दफ्तर से लौटा तो दरवाजे पर पत्नी की मीठी मुसकान के बदले रोता हुआ ताला नजर आया यानी पत्नी नदारद. यह देख मेरा दिल धक से रह गया.
ये भी पढ़ें- पटखनी : समीर और अनीता की मुलाकात कहा हुई थी
मैं परेशान था कि आखिर वह गई कहां. यह सोच कर डर भी हुआ कि किसी पड़ोसी के लिए मेरी पत्नी भी तो अच्छी पड़ोसन साबित हो सकती है. सोचा कि पुलिस में रिपोर्ट लिखवा दूं, लेकिन किस पड़ोसी पर शक करूं. सभी तो बेचारे सीधेसादे भले लोग थे. तभी मेरे पड़ोसन के पति यानी शर्माजी ने पीछे से मेरी पीठ पर हाथ रखा. मेरी परेशानी देख कर हंसते हुए बोले, ‘‘भाई साहब, क्या सोच रहे हैं. दरअसल, भाभीजी और मेरी पत्नी आज फिल्म देखने चली गई हैं, अब तो आती ही होंगी.’’ मैं ने चैन की सांस लेते हुए उन से चाबी ले कर दरवाजा खोला. इतने में मेरी पत्नी भी आ गई. मेरा उखड़ा हुआ मूड देख कर मु झे मक्खन लगाते हुए बोली, ‘‘मिसेज शर्मा बहुत मिन्नतें करने लगीं, तो मैं उन के साथ फिल्म देखने चली गई थी.’’ मैं ने सोचा कि ठीक ही है, बेचारी घर में अकेली दिनभर बोर होती होगी.
फिल्म वगैरह देखने से मन बहल जाएगा. पर मु झे क्या पता था कि उन दोनों की दोस्ती कोई नया गुल खिलाएगी. मेरे मौन को स्वीकृति सम झ कर मेरी पत्नी का हौसला बढ़ गया. धीरेधीरे लगभग रोज ही कोई न कोई नया गुल खिलने लगा. कभी मेरी पत्नी नई साड़ी दिखाती हुई कहती, ‘मिसेज शर्मा के पास ऐसी ही साड़ी थी, मैं ने भी खरीद ली.’ कभी नए सैंडल तो कभी विदेशी लिपस्टिक, कभी महंगे परफ्यूम तो कभी जेबरात. महीनेभर में ही मैं ने महसूस किया कि मेरा बजट चरमराने लगा, पर बजट से मेरी पत्नी को क्या मतलब. उन्होंने तो मिसेज शर्मा से दो कदम आगे रहने की ठान ली थी. शर्माजी की तरह मैं कोई ऊपरी आमदनी वाले पद पर तो था नहीं कि झूठी शान के लिए बेमतलब और बेजरूरत की चीजें खरीदता रहूं. मेरी पत्नी पर मिसेज शर्मा के दिखावटीपन का भूत इस कदर सवार हो चुका था कि उन के खिलाफ वह एक शब्द भी सुनना पसंद नहीं करती थी, इसलिए उन्हें सम झाना भी मु झे उचित नहीं लगा. अपने दिमाग के सारे दरवाजों को खोल कर मैं अंत में इसी नतीजे पर पहुंचा कि आने वाली बरबादी से बचने के लिए मु झे मकान ही नहीं, बल्कि यह शहर ही छोड़ देना होगा.
और दूसरे ही दिन मैं ने औफिस जा कर अपने ट्रांसफर की अर्जी लगा दी. अब तक तो मैं यही सम झता था कि अच्छी पड़ोसन पत्नियों के लिए ही सौत होती है, पर अब सम झ में आया कि अच्छी पड़ोसन पतियों के लिए भी कितनी सिरदर्द होती है… द्य सच्ची सलाह मैं छोटी जाति का सरकारी नौकरी करने वाला एक नौजवान हूं और अपने पड़ोस की एक ऊंची जाति की लड़की से प्यार करता हूं. लड़की के मांबाप को मेरी सरकारी नौकरी के चलते यह रिश्ता मंजूर है, पर पड़ोस के कुछ लोग भांजी मार रहे हैं. वे इसे जातिवाद से जोड़ रहे हैं और नाक कटने की दुहाई दे कर यह रिश्ता तोड़ देना चाहते हैं. वे लड़की के परिवार का हुक्कापानी बंद कर चुके हैं. हमें क्या करना चाहिए? लड़की के मांबाप आप की जाति से नहीं, बल्कि नौकरी से लड़की की शादी के लिए तैयार हुए हैं, जो हर्ज की बात इस लिहाज से नहीं कि आप दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं, इसलिए जिंदगी अच्छे से कट जाएगी. बीच वालों की परवाह न करें, उन का तो काम ही टांग अड़ाना होता है. आप इन टांगों को मरोड़ते हुए अपना घर बसाइए और इतमीनान से रहिए. कुछ दिनों में वे लोग खुद रास्ते पर आ जाएंगे.
जिन की मंशा यह है कि ऊंची जाति वाली लड़की नीची जाति वाले लड़के से ब्याह कर घरसमाज में उन की नाक न कटाए. लड़की के घर वालों का हुक्कापानी बंद कर देना सदियों पुराना टोटका है. उन से कहिए कि वे डरे नहीं, बल्कि अपनी लड़की का सुख देखें. द्य मैं 12वीं क्लास का छात्र हूं. कोरोना के चलते इस बार स्कूल तो बिलकुल ठप हो गया है. औनलाइन क्लास तो होती है, पर उस से लिखने की आदत बिलकुल छूट गई है. अगर कल को बोर्ड के इम्तिहान होंगे तो उन में लिखना तो पड़ेगा न. इसी बात को सोचसोच कर मैं तनाव में रहता हूं. मु झे सही सलाह दें. यह आप की ही नहीं, बल्कि करोड़ों छात्रों की समस्या है कि कोरोना के चलते पढ़ाईलिखाई डगमगा गई है. आप औनलाइन पढ़ाई के बाद बचे वक्त में लिखने की प्रैक्टिस करते रहें. इस से इम्तिहान में लिखने की परेशानी नहीं आएगी. द्य मैं 19 साल की लड़की हूं और इस बार 12वीं क्लास में कौमर्स से पढ़ रही हूं.
लौकडाउन के दौरान मु झे मोबाइल पर ब्लू फिल्में देखने की लत लग गई है, जिस के कुछ सीन कभी भी मेरे रोंगटे खड़े कर देते हैं. अब तो कौपीकिताबों में भी वही सब दिखता है. इस से पढ़ाई का नुकसान हो रहा है. मम्मीपापा सोचते हैं कि लड़की मोबाइल में पढ़ रही है. मु झे इस बात का भी दुख होता है कि मैं उन्हें धोखा दे रही हूं, लेकिन यह आदत छोड़ नहीं पा रही हूं. आप सलाह दें कि मैं ऐसा क्या करूं, जिस से फेल भी न होऊं और ब्लू फिल्मों का भी मजा ले सकूं? आप दोनों काम एकसाथ कर सकती हैं, लेकिन इस के लिए आप को धीरेधीरे पढ़ाई में ज्यादा वक्त देना होगा. ब्लू फिल्मों का चसका नुकसानदेह है. कोशिश कर के इस से छुटकारा पाएं. शौकिया ये फिल्में देखना हर्ज की बात नहीं, लेकिन इम्तिहान में यह सब नहीं पूछा जाएगा. आजकल लड़के तो लड़के, स्कूलकालेज की बहुत सी लड़कियां मोबाइल का इसी तरह इस्तेमाल कर रही हैं. इस की अति उन का ही नुकसान कर रही है. फेल होने के बाद इस लत को कोसें, उस से तो बेहतर है कि अभी से इसे कम करें.