उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेन्द्र पटेल में सबसे बडी समानता यह है कि दोनो ही नेता जूनियर नेता है. गुजरात के मुख्यमंत्री बने भूपेन्द्र पटेल पहली बार विधायक बने थे. गुजरात में भूपेन्द्र पटेल से सीनियर तमाम नेता वहां के मंत्रिमंडल में है. इनको मुख्यमंत्री ना बनाकर उनसे जूनियर भूपेन्द्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया. भूपेन्द्र पहली बार विधायक बने है. इनसे सीनियर नेताओं में नितिन पटेल, कौशिक पटेल और भूपेन्द्र चुडस्सा जैसे नेता गुजरात में है. पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणी खुद सीनियर नेता रहे है. उनको जबसे मुख्यमंत्री बनाया गया गुजरात में कोई परेशानी नहीं थी.
पहली बार विधायक बनने के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की जगह भूपेन्द्र पटेल का नाम मुख्यमंत्री के लिये चुन लिया गया. यह किसी के भी समझ के बाहर है. भूपेन्द्र पटेल को इससे पहले मंत्री पद तक संभालने तक को कोई अनुभव नहीं है. ऐसे में सीधे उनको मुख्यमंत्री बनाया जाना आष्चर्यजनक लगता है. गुजरात में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने है. गुजरात सबसे अहम प्रदेष है. क्योकि भाजपा के बडे नेता ‘मोदीशाह’ यही से आते है. जिस समय भूपेन्द्र पटेल को मुख्यमंत्री पद की षपथ राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने दिलाई भूपेन्द्र पटेल अकेले शपथ ले रहे थे. भाजपा में अब मंत्री बनने को लेकर लौबिंग शुरू हो गई है. मंत्री बनने के लिये जातिगत, राजनीतिक प्रभाव और क्षेत्र के समीकरण देखे जायेगे. जिस समय भूपेन्द्र पटेल मुख्यमंत्री की शपथ ले रहे थे केन्द्रिय गृहमंत्री अमित शाह वहां मौजूद थे. भूपेन्द्र पटेल के लिये मुख्यमंत्री की कुर्सी कांटो भरा ताज है.उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री है पुष्कर सिंह धामी
गुजरात की ही तरह से उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी दूसरी बार विधायक का चुनाव जीते थे. वह उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री है. उत्तराखंड में भाजपा ने मुख्यमंत्री को लेकर ताश के पत्तों की तरह से नेताओं को फेंट दिया. पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया फिर उनको कुछ ही दिनों में हटाकर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया. पुष्कर सिंह धामी को पहले किसी भी तरह से मंत्री पद संभालने का अनुभव नहीं है. उत्तराखंड में भी अगले साल चुनाव है. ऐसे में अनुभव हीन जूनियर पुष्कर सिंह धामी कैसे भाजपा को वापस सत्ता दे पायेगे ? यह देखने वाली बात है होगी. इसी तरह से कुछ और छोटे कद वाले नेताओं को भाजपा मे जिस तरह से तबज्जों दी जा रही है उससे साफ लग रहा है कि भाजपा को अब अपने ही बडे नेताओं से डर लगने लगा है.
पहली बार विधायक बनने के बाद ही गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की जगह भूपेन्द्र पटेल का नाम मुख्यमंत्री के लिये चुन लिया गया. यह किसी के भी समझ के बाहर है. भूपेन्द्र पटेल को इससे पहले मंत्री पद तक संभालने तक को कोई अनुभव नहीं है. ऐसे में सीधे उनको मुख्यमंत्री बनाया जाना आष्चर्यजनक लगता है. गुजरात में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने है. गुजरात सबसे अहम प्रदेष है. क्योकि भाजपा के बडे नेता ‘मोदीशाह’ यही से आते है. जिस समय भूपेन्द्र पटेल को मुख्यमंत्री पद की षपथ राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने दिलाई भूपेन्द्र पटेल अकेले शपथ ले रहे थे. भाजपा में अब मंत्री बनने को लेकर लौबिंग शुरू हो गई है. मंत्री बनने के लिये जातिगत, राजनीतिक प्रभाव और क्षेत्र के समीकरण देखे जायेगे. जिस समय भूपेन्द्र पटेल मुख्यमंत्री की शपथ ले रहे थे केन्द्रिय गृहमंत्री अमित शाह वहां मौजूद थे. भूपेन्द्र पटेल के लिये मुख्यमंत्री की कुर्सी कांटो भरा ताज है.उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री है पुष्कर सिंह धामी
गुजरात की ही तरह से उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी दूसरी बार विधायक का चुनाव जीते थे. वह उत्तराखंड के सबसे युवा मुख्यमंत्री है. उत्तराखंड में भाजपा ने मुख्यमंत्री को लेकर ताश के पत्तों की तरह से नेताओं को फेंट दिया. पहले त्रिवेन्द्र सिंह रावत को हटाकर तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया फिर उनको कुछ ही दिनों में हटाकर पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया. पुष्कर सिंह धामी को पहले किसी भी तरह से मंत्री पद संभालने का अनुभव नहीं है. उत्तराखंड में भी अगले साल चुनाव है. ऐसे में अनुभव हीन जूनियर पुष्कर सिंह धामी कैसे भाजपा को वापस सत्ता दे पायेगे ? यह देखने वाली बात है होगी. इसी तरह से कुछ और छोटे कद वाले नेताओं को भाजपा मे जिस तरह से तबज्जों दी जा रही है उससे साफ लग रहा है कि भाजपा को अब अपने ही बडे नेताओं से डर लगने लगा है.
जिस नेता की जमीन मजबूत होने लगती है उसको हटाकर कमजोर नेता को बडा पद दिया जा रहा है. चुनकर छोटेछोटे कद वाले नेताओं को मुख्यमंत्री पद दिया जा रहा है. जिससे ‘मादीशाह’ की जोडी का वर्चस्व भाजपा में बना रहे. इसके पहले 2017 में उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के सांसद रहे योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया. वह उस समय मुख्यमंत्री की रेस में चल रहे नेताओं में सबसे जूनियर थे. वह उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य भी नहीं थे. योगी आदित्यनाथ के साथ दो उपमुख्यमंत्री डाक्टर दिनेश शर्मा और केशव मौर्य को काम दिया गया. इसके बाद भी ‘मोदीशाह’ की जोडी उत्तर प्रदेश में दखल देती रहती है. 2022 के चुनाव प्रचार का जो खाका तैयार हुआ है उसके अनुसार सबसे बडे स्टार प्रचारक के रूप में ‘मोदीशाह’ को ही स्थान दिया गया है.हार का ठिकरा छोटे नेताओं पर:
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में विधानसभा के चुनाव 2022 में होने है. इन चुनाव के परिणाम देखने के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को हटाने का काम किया जा सकता है. इसके पहले भाजपा में केन्द्रीय मंत्री के रूप में काम करने वाले सीनियर नेताओं रवि शकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर और सुरेश प्रभु जैसे नेताओं को हटाया गया था. राज्यों से लेकर केन्द्र तक में प्रभाव वाले नेताओं को हटाकर उसकी जगह नये नेताओं को प्रमुखता दी जा रही है. चुनाव भले ही ‘मोदीशाह’ की जोडी के नाम पर लडा जाये पर हार की जिम्मेदारी छोटे नेताओं को ही दी जाती है. पष्चिम बंगाल चुनाव के प्रचार में ‘मोदीशाह’ का नाम सबसे बडा था. पर चुनाव में बेहतर परिणाम न आने के बाद उनको जिम्मेदार नहीं माना गया.
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गुजरात में विधानसभा के चुनाव 2022 में होने है. इन चुनाव के परिणाम देखने के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को हटाने का काम किया जा सकता है. इसके पहले भाजपा में केन्द्रीय मंत्री के रूप में काम करने वाले सीनियर नेताओं रवि शकर प्रसाद, प्रकाश जावडेकर और सुरेश प्रभु जैसे नेताओं को हटाया गया था. राज्यों से लेकर केन्द्र तक में प्रभाव वाले नेताओं को हटाकर उसकी जगह नये नेताओं को प्रमुखता दी जा रही है. चुनाव भले ही ‘मोदीशाह’ की जोडी के नाम पर लडा जाये पर हार की जिम्मेदारी छोटे नेताओं को ही दी जाती है. पष्चिम बंगाल चुनाव के प्रचार में ‘मोदीशाह’ का नाम सबसे बडा था. पर चुनाव में बेहतर परिणाम न आने के बाद उनको जिम्मेदार नहीं माना गया.
भाजपा में इस दौर के नेताओं में केवल मोदीमोदी ही दिख रहे है. यह ठीक वैसे ही है जैसे 1970 के दषक में कांग्रेस में इंदिरा इंदिरा ही दिख रहा था. 2019 में दूसरी बार लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली में बदलाव दिखा और अब पार्टी, संगठन और सरकार में कहीं भी उनके कद का कोई नेता नहीं दिखता. सीनियर नेताओं को हटाकर जूनियर नेताओं को महत्व दिया जा रहा है. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी को कमजोर प्रधानमंत्री डाक्टर मनमोहन सिंह के मुकाबले ताकतवर प्रधानमंत्री के रूप में पेष किया गया. चुनाव प्रचार में उनके ‘छप्पन इंच के सीने’ का जिक्र बारबार प्रचार के लिये किया गया.बडे मुददों को छोड छोटे मुददों पर जोर:
तकतवर होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी अपनी जिम्मेदारियों को सही तरह से निर्वाह नहीं कर पाये. ऐसे समय में जब देश तमाम तरह की चुनौतियों को सामना कर रहा वह देश किसान आन्दोलन, अफगानिस्तान, चीन, बेकारी, खाली खजाना, कोविड जैसी समस्याओ से घिरा हो प्रधानमंत्री बिना वजह मुख्यमंत्री बदलने की सोचने का समय कैसे निकाल ले रहे है. यह परेशानियां बडी हो रही है क्योकि इन पर फैसला प्रधानमंत्री को लेना है. वह इन परेशानियों से निपटने की जगह पर अपनी ही पार्टी के नेताओं को बदलने उनकी कुंडलियां खगालने में लगे रहते है. यहां तक की ऐसे बदलाव में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की भूमिका भी साफतौर पर नहीं दिखती है.
तकतवर होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी अपनी जिम्मेदारियों को सही तरह से निर्वाह नहीं कर पाये. ऐसे समय में जब देश तमाम तरह की चुनौतियों को सामना कर रहा वह देश किसान आन्दोलन, अफगानिस्तान, चीन, बेकारी, खाली खजाना, कोविड जैसी समस्याओ से घिरा हो प्रधानमंत्री बिना वजह मुख्यमंत्री बदलने की सोचने का समय कैसे निकाल ले रहे है. यह परेशानियां बडी हो रही है क्योकि इन पर फैसला प्रधानमंत्री को लेना है. वह इन परेशानियों से निपटने की जगह पर अपनी ही पार्टी के नेताओं को बदलने उनकी कुंडलियां खगालने में लगे रहते है. यहां तक की ऐसे बदलाव में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा की भूमिका भी साफतौर पर नहीं दिखती है.
भाजपा में अटल बिहारी वाजपेई के दौर में मंत्रिमंडल और सहयोगी दलों को साथ लेकर चलने का काम होता था. अब ऐेसा नहीं है. इस कारण से आपसी सलाह का अभाव दिखता है. मोदी अपनी छवि को चमकाने के लिये ही पूरी तरह से इवेंट की तरह से काम करते है. राजनीति एक तरह से इवेंट में बदल गई है. कोविड के दौरान आनाज बांटने के लिये जो झोले बनवाये गये उनमें मोदी की फोटो लगाई गई. कोविड टीकाकरण का जो प्रमाणपत्र दिया जाता है उसमें भी मोदी की फोटो लगी है. प्रधानमंत्री हर काम का श्रेय खुद लेना चाहते है. ऐसे में उनके आसपास ऐसे नेताओं को रखा जाता है जो कद में मोदी का मुकाबला न कर सके.अधिनायकवादी छवि:
यह सभी जानते है और कई मौको पर देखने को भी मिला है कि प्रधानमंत्री के तमाम कैबिनेट मंत्री तक अपने मन के काम करने को आजाद नहीं है. नोटबंदी की बात हो या कोविड के दौरान लौकडाउन की. सारा श्रेय प्रधानमंत्री ने खुद ही लिया था. सारी मंहत्वपूर्ण नीतियां प्रधानमंत्री कार्यालय से तैयार होती है फिर विभाग उनको लागू करते है. अगर काम में कुछ गलत हो जाता है तो इसका दोष दूसरों पर मढ दिया जाता है. उदाहरण के लिये जब कष्मीर से धारा 370 हटाई गई तब कहा गया कि इससे अमनचैन आ सकेगा. दो साल का समय बीत जाने के बाद भी वहां के हालात सामान्य नहीं हुये है.
यह सभी जानते है और कई मौको पर देखने को भी मिला है कि प्रधानमंत्री के तमाम कैबिनेट मंत्री तक अपने मन के काम करने को आजाद नहीं है. नोटबंदी की बात हो या कोविड के दौरान लौकडाउन की. सारा श्रेय प्रधानमंत्री ने खुद ही लिया था. सारी मंहत्वपूर्ण नीतियां प्रधानमंत्री कार्यालय से तैयार होती है फिर विभाग उनको लागू करते है. अगर काम में कुछ गलत हो जाता है तो इसका दोष दूसरों पर मढ दिया जाता है. उदाहरण के लिये जब कष्मीर से धारा 370 हटाई गई तब कहा गया कि इससे अमनचैन आ सकेगा. दो साल का समय बीत जाने के बाद भी वहां के हालात सामान्य नहीं हुये है.
ऐसे ही फैसलों में नोटबंदी का फैसला था. इसके जरीये भ्रष्टाचार, आतंकवाद और कालाधन को खत्म करने की बात कही गई थी. नोटबंदी से यह लाभ तो हुये नहीं उल्टे कारोबार बंद हो गये. ऐसे ही दावे जीएसटी लागू करते किये गये थे. जीएसटी सरल कर व्यवस्था बनाने के बजाये कठिन होती गई. केन्द्र और राज्य सरकार के बीच जीएसटी के पैसों को लेकर तमाम तरह के विवाद खडे हो गये है. कोविड के दौरान जनता कर्फ्यू और तालाबंदी से कोरोना को रोकने का दावा किया गया. 3 माह की तालाबंदी से कोरोना तो नहीं गया उल्टे उद्योग धंधे चौपट हो गये.
यह देखा जाता है कि जो प्रधानमंत्री अपनी कैबिनेट के मंत्रियों की सलाह से काम करते है उसके परिणाम बेहतर होते है. मोदी ने अपनी छवि अधिनायकवादी नेता जैसी रखी है. वह अपने पास ऐसे नेताओं को नहीं रखना चाहते जो उनको सलाह दे सके. ऐसे मंे वह सीनियर नेताओं को हटाकर जूनियर नेताओं को साथ रखते है. जिससे वह केवल मोदी की दिखाई राह पर चल सके. मोदी को सलाह देने का साहस ना कर सके.
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