मुझे घूमने का बेहद शौक है. नईनई जगह घूमना, वहां के बारे में जानना और तरहतरह के व्यजंन खाना मुझे अच्छा लगता है. अपनी इस आदत के मुताबिक मैं बस से शिमला जा रही थी. बस में भीड़ थी लेकिन कुछ दूर जाने के बाद बस में नाममात्र के यात्री बचे थे. रात के सफर में मैं घबराई लेकिन घबराहट का कोई भी भाव अपने चेहरे पर न आने दिया. बस में एक 35 वर्षीय सज्जन पीछे की सीट से मेरी सीट की बगल में आ बैठे. उन्होंने मुझे देख कर कहा, ‘‘मैडम, आप अकेली जा रही हैं?’’ मेरे ‘हां’, कहने पर उन्होंने सफर के दौरान मेरे सामान की निगरानी की. वहां देखने योग्य स्थान के बारे में बताया. जब बस रुकी तो ढाबे में खाने का बिल भी उन्होंने दिया.

अगले दिन सुबह जब उन का ठिकाना आ गया तो उतरते हुए उन्होंने बाय कहा और चले गए. मुझे उस अनजान व्यक्ति के इस व्यवहार पर आश्चर्य होने के साथसाथ यह सोच कर अच्छा भी लगा कि आज भी इंसानियत जिंदा है.

रेनु तिवारी

*हम सपरिवार दिल्ली गए थे. किसी कारणवश लौटने का आरक्षण रद्द करा कर नया आरक्षण कराना पड़ा. निश्चित तिथि पर स्टेशन पहुंचे और ‘सियालदह राजधानी’ प्लेटफौर्म पर लगते ही उस में जा कर अपनी सीट पर बैठ गए. अभी सामान व्यवस्थित करने ही जा रहे थे कि अन्य यात्री के कहने पर कि ये बर्थ उन के लिए आरक्षित है, हम ताज्जुब में पड़ गए. फिर हम ने अपना टिकट देखा और निश्ंिचत हो गए. मन ही मन उन यात्रियों पर हंसने लगे कि अभी टीटी आएगा तो उन्हें नीचे उतरना पड़ेगा. तभी वहां टीटी आ गया और टिकट देख कर जब हम से सामान उतारने को कहा तो हम हक्केबक्के रह गए. ट्रेन अब चलने ही वाली थी. उस से पहले हम उतर गए. हम सोच रहे थे कि अब वे यात्री हम पर हंस रहे होंगे.

दरअसल, आरक्षण कराते समय हम ने यह ध्यान नहीं दिया कि तिथि अगले माह की लिख दी गई थी. किसी कारण ‘हावड़ा राजधानी’ उस दिन बहुत लेट जा रही थी, थोड़ी भागदौड़ करने पर हमें उस का आरक्षण टिकट मिल गया और हम अपनी यात्रा पूरी कर पाए. कभी उस घटना की बेबसी याद आती है तो सोचती हूं कि थोड़ी सी लापरवाही कितनी बड़ी मुसीबत बन जाती है. यदि हम ने टिकट कराते समय टिकट में तिथि देख ली होती तो शायद ऐसी समस्या से दोचार न होना पड़ता.      

– अमिता जैन

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