नरेंद्र मोदी में महात्मा गांधी को बेदखल कर दिया. शाब्दिक अर्थ में कुछ ऐसा ही हुआ है. अभी कुछ दिन पहले की बात है. कयास लगाया जा रहा था कि हो सकता है मोदी सरकार भारतीय नोट से गांधी को अवकाश में भेज दे और उनकी जगह किसी अन्य स्वतंत्रता सेनानी को दी जाएगी. बहरहाल, अभी तक यह तो नहीं हुआ. लेकिन खादी विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन ने 2017 साल का जो कैलेंडर और डायरी प्रकाशित किया है, उसमें खादी से गांधीजी की छुट्टी जरूर हो गयी. इससे देश के विभिन्न तबके की जनता में बहुत नाराजगी है.
इसे लेकर मीडिया में तो मोदी-कौआ और कौवे के अपमान की बात तक कर दी गयी है. लेकिन जहां तक देश की आम जनता का सवाल है तो जनता के एक बड़े तबके में इसको लेकर आक्रोश है. राजनीतिक पार्टी की बात अगर जाने भी दें तो खादी और खादी वस्त्र का कारोबार करनेवाले दूकानदारों से लेकर इन दूकानों में काम करनेवालों में भी नाराजगी साफ नजर आ रही है. बताया जा रहा है कि खादी कमीशन के कर्मचारियों ने मुंह पर काला कपड़ा बांध कर इस पर अपना विरोध जताया है.
आजादी के बाद से खादी के श्वेत-श्याम कैलेंडर पर धोती पहन कर अपने चिरपरिचित अंदाज में बैठे मोहनदास कमरचंद गांधी को चरखा चलाते देखा जाता रहा है. पीढ़ी दर पीढ़ी गांधीजी को इसी रूप में देखती आ रही है. गांधीजी खादी का ट्रेडमार्क बन चुके हैं. पर आज यह ट्रेडमार्क बदल गया है. ट्रेडमार्क के रंगीन होने पर एतराज नहीं होता. लेकिन गांधी की जगह नरेंद्र मोदी के ले लेने से बहुसंख्यक जनता को एतराज है.
कोलकाता के बड़ा बाजार के महात्मा गांधी रोड के दोनों तरफ कतार में बहुत सारी खादी की दूकानें हैं. खादी भंडार के एक बुजुर्ग दूकानदार का कहना था कि याद है संजय दत्त की एक फिल्म आयी थी! बुजुर्ग दूकानदार फिल्म का नाम याद करने की कोशिश करते हुए कहते हैं मुन्ना भाई करके थी. मैंने कहा ‘लगे रहो मुन्ना भाई’? बोले, हां-हां. इसमें मुन्ना भाई को मुगालता हो जाता है कि भारतीय नोट में गांधी जी के बदले उसकी तस्वीर हुआ करेगी. मुन्ना भाई के दिमाग में तो कैमिकल लोचा हुआ था, लेकिन नरेंद्र भाई मोदी को यह क्या हुआ? खादी के लिए अगर मॉडलिंग करते तो भी एक बात थी. किसी को आपत्ति नहीं होती. लेकिन गांधीजी को हटा कर उनकी जगह लेने की भला क्या जरूरत आन पड़ी मोदी जी को! कहां एक अहिंसावादी व्यक्तित्व और कहां गुजरात नरसंहार का आरोप झेल चुके नरेंद्र मोदी.
वहीं कोलकाता में हैंडलूम और खादी के मार्केट में गांधी खादी भंडार के एक विक्रेता विनोद सिंह का कहना है कि खादी का ट्रेडमार्क तो अहिंसावादी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ही हैं और वहीं रहेंगे. यह छवि भारतीय ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जन-जन के दिलोदिमाग पर बैठ चुकी है. वहां तक नरेंद्र मोदी की पहुंच कभी नहीं हो पाएंगी.
रतनलाल पासवान का कहना है कि गांधीजी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय चरखा कात कर खादी के जरिए स्वदेशी पर गर्व करने और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में देशवासियों को एक संदेश दिया था. यही नहीं, वे हर रोज नियमपूर्वक घंटा-दो घंटा चरखा चलाया करते थे. लेकिन महज तस्वीर खींचवाने के मकसद से नरेंद्र मोदी का चरखे के सामने बैठ कर चरखा कातने का पोज दिया जाना गांधी जी से जुड़ी देश की भावना को ठेस पहुंचाना है. खादी कमीशन ने ऐसा करके खादी की आत्मा को लहूलुहान कर दिया है.
आरोप यह भी है कि गांधीजी के तमाम आदर्शों को सरकार आहिस्ते-आहिस्ते धो-पोंछ कर साफ करती जा रही है. पिछले साल भी ऐसी कोशिश की गयी थी. तब भी मजदूर संगठन के विरोध के बाद अधिकारियों ने भविष्य में ऐसा कभी न होने का आश्वासन दिया था. बावजूद इसके इस साल फिर से ऐसा किया गया.
कमीशन की सफाई नहीं टिक पायी
हालांकि खादी विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन ने अपनी तरफ से सफाई दिया कि नरेंद्र मोदी लंबे समय से खादी की पोशाक पहनते आ रहे हैं. मोदी ने आम जनता के बीच खादी को लोकप्रिय बनाया है. दावा यह भी किया गया है कि विदेश में मोदी ने खादी को पहचान दी है. गौरतलब है कि हिप्पी संस्कृति के दौरान भी खादी पूरे विश्व में लोकप्रिय हो गया था. और गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन को नरेंद्र मोदी का मेन इन इंडिया नाम दिया जाना नई बोतल में पुरानी शराब ही कहलाता है. हां, गांधीजी के स्वदेशी आंदोलन में किसी तरह की मिलावट नहीं थी.
बचाव में कहा तो यह भी जा रहा है कि अमुक-अमुक सालों में भी कैलेंडर में गांधीजी की तस्वीर नहीं छपी थी. इस साल भी अगर गांधी जी कैलेंडर और डायरी में नहीं है तो इतना हंगामा क्यों बरपा है? नहीं छपी थी तो नहीं छपी थी, गांधीजी खादी के ट्रेडमार्क तब भी थे. उन्हें बेदखल नहीं किया गया था. लेकिन अब गांधीजी के बदले मोदी दिखना ट्रेडमार्क ‘हैइजैक’ होने जैसा माना जा रहा है.
ब्रांडिंग के नाम पर
खादी विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन का कहना है कि नरेंद्र मोदी युवा जनमानस के आईकॉन हैं. मोदी कुर्ता को नरेंद्र मोदी ने लोकप्रिय बनाया. दरअसल, गुजरात में पड़नेवाली गर्मी के मद्देनजर नरेंद्र मोदी के लिए फतुआ टाइप सूती कुर्ता सहूलियत वाला पोशाक रहा है. गांव-देहात में यह हमेशा से पहना जाता रहा है. हां, 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जिस तरह से ब्रांडिंग की गयी, उसमें उनका कुर्त्ते की भी ब्रांडिंग हो गयी. इस तरह मोदी द्वारा पहना जानेवाला कुर्ता मोदी कुर्ता बन गया. इससे खादी का कुछ लेना-देना नहीं है. मोदी और कुर्ते की ब्रांडिंग के साथ ओबामा के भारत दौरे के समय मोदी के दर्जी चौहान ब्रर्दर की भी ब्रांडिंग हो गयी. दरअसल, अहमदाबाद के खानदानी तौर पर दर्जी के पेशे से जुड़े चिमनलाल चौहान के यहां मोदी का कुर्ता सिला जाता था. तब यह इतना विख्यात भी नहीं था. हां, मोदी के दसलखिया सूट के सामने आने पर जेड ब्लू लाइफस्टाइल इंडिया लिमिटेड के चौहान ब्रर्दर (विपिन चौहान-जितेंद्र चौहान) लाइमलाइट में आए. इन सबमें खादी का कोई लेना-देना नहीं रहा है.
खादी में गांधी जी जगह ले चुके नरेंद्र मोदी की चर्चा तो पहले ही है. अब डीएवीपी यानि डायरेक्टोरेट ऑफ एडवरटाइजिंग एंड विजुअल पब्लिसिटी के 2017 के कैलेंडर में जनवरी से लेकर दिसंबर तक हरेक पन्ने में नरेंद्र मोदी ने जगह बना ली है. पांच राज्यों में होनेवाले चुनाव के मद्देनजर इस कैलेंडर में केंद्र सरकार की योजनाओं के बहाने मोदी का प्रचार किया गया है. जनवरी महीने के पन्ने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जम्मू-कश्मीर की महिलाओं के साथ बात करते हुए दिखाया गया है.
किसी महीने में मेक इन इंडिया का प्रचार में किसी एक फैक्टरी में मजदूर हेलमेट पहने है तो किसी महीने में अपने चुनाव क्षेत्र बराणसी में रिक्शा बांटते हुए दिख रहे हैं. कभी महिला बुनकरों के साथ तो कभी किसानों के साथ, कभी सेना के बीच तो कभी कैशलेस इकोनौमी का प्रचार करते हुए, कभी स्वच्छ भारत मिशन के प्रचार में. यहां तक कि मई में चरखा कातते हुए भी नजर आते हैं. नवंबर में संसद परिसर में तो दिसंबर में दिव्यांग जन के साथ. बहरहाल, मोदी की ब्रांडिंग में खादी हो गयी बदनाम.
लुट गए बापू
गुलाम भारत में देश की आजादी के संग्राम का एक महत्वपूर्ण अंग रहा है गांधी टोपी. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान यह टोपी लोकप्रिय हुआ और देशभक्ति का एक प्रतीक चिह्न बन गया. बाद में कांग्रेसी विचारधारा के साथ ऐसा जुड़ा कि गांधी टोपी को कांग्रेस जन का ट्रेडमार्क बन गया. इसकी लोकप्रियता का जो ज्वार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उठा था, आजादी के बाद के छठे दशक के अंत तक यह भाटा में तब्दील हो गया. लोकप्रियता का ज्वार ऐसा उतरा कि एक समय ऐसा भी आया जब बंबइया सिनेमा में राजनीतिक विलेन को गांधी टोपी धारी दिखाया जाने लगा. कह सकते हैं कि फिल्मों ने गांधी टोपी को एक बड़े हद तक बदनाम ही किया है.. याद कीजिए, अर्द्धसत्य और आक्रोश जैसी फिल्मों में खलनायक खद्दर और गांधी टोपी में दिखाई देता है.
आजादी के 65 सालों के बाद समाजसेवी अन्ना हजारे की अगुवाई में अगस्त 2011 को आम जनता ने इस टोपी पर अपनी आस्था जताया. बड़े पैमाने पर भारत के विभिन्न शहरों में इसे सिर पर धारण कर देश का आम आदमी सड़क पर उतरा और ‘मैं अन्ना हूं’ का उद्घोष करते हुए भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में शामिल हुआ. तब यह अन्ना टोपी गांधी टोपी के समानांतर खड़ा हो गया. दूसरे शब्दों में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन के दौरान एक बार फिर यह गांधी टोपी आम जनता के बीच नेकनजर से देखा जाने लगा.
लेकिन इसके बाद अरविंद केजरीवाल ने राजनीति में अपने पैर फैलाने के मकसद से इस गांधी उर्फ अन्ना हजारे की गांधी टोपी को भुनाया और इसकी ब्रांडिंग आम आदमी पार्टी के रूप में कर दी. सब जानते हैं कि अरविंद केजरीवाल कोई गांधीवादी तो है नहीं. उनका व्यक्तित्व नौकरशाह का है. आज भी वे मुख्यमंत्री कम और नौकरशाह कहीं अधिक नजर आते हैं. उनकी नौकरशाही शैली में गांधी टोपी कभी फबी भी नहीं. बहरहाल, ‘आप’ के गांधी टोपी ने जनता को खूब भरमाया.
कमोवेश खद्दर का भी राजनीति से लेकर सिनेमा में भ्रष्ट राजनीतिक व्यक्तित्व का पोट्रेट में इसी तरह इस्तेमाल किया गया है. कुल मिला कर गांधीजी के सादगीपूर्ण रहन-सहन और सादे विचार को बदनाम किया गया. आज चरखे पर भी बदनामी का चादर डाल दिया गया. महात्मा गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन व विरोध-प्रदर्शन का मूक पर जबरदस्त हथियार हुआ करता था चरखा. इतना ही नहीं, स्वतंत्रता संग्राम के दौरान चरखा को चित के शुद्धिकरण का भी जरिया माना जाता रहा है.
गांधीजी की टोपी, गांधी जी का खद्दर, गांधीजी का चरखा– सब कुछ देश की राजनीति ने लूट लिया है. राष्ट्रपिता व महात्मा कहला कर गांधी लुट गए हैं. (गनीमत है गांधीजी की धोती सलामत है) बावजूद इसके यह भी सच है कि देश का जन-जन गांधीजी की टोपी, खद्दर और चरखा के मोह से दूर नहीं हो पायी है. मार-काट, उठा-पटक, कादा-कीचड़ की राजनीति के बीच आज भी गांधीजी का हैंगओवर है. इस देश की जनता के मन में गांधीजी के लिए जगह कुछ कम नहीं हुई है. इसी कारण खादी के कैलेंडर में राष्ट्रपिता की जगह नरेंद्र मोदी को देख देश उबल रहा है.