भेदभाव का दंश झेल रहे दलित समुदाय में इन दिनों विद्रोह का नया ट्रैंड दिखाई दे रहा है. पढ़ीलिखी नई दलित पीढ़ी सोशल मीडिया पर अपना आक्रोश व्यक्त करने के साथसाथ मंचों पर लाइव कार्यक्रमों में गीतों के माध्यम से विद्रोह के सुर तेज कर रही है. इन गीतों में स्वतंत्रता और अधिकारों के साथसाथ ललकार व एकता की गूंज भी सुनाई पड़ रही है. आजादी के समय लोगों में गीतों के माध्यम से देशभक्ति दिखाई दी थी, आज दलित समुदाय में गायकी के जरिए स्वतंत्रता, सम्मान हासिल करने का जनून नजर आ रहा है. यह नया तेवर देशभर के लाखों दलितों को बहुत भा रहा है और उन्हें एकजुट होने को प्रेरित कर रहा है. यूट्यूब पर कई दलित गायकों के हजारों समर्थक भेदभाव, छुआछूत, अत्याचार के खिलाफ खड़े दिखते हैं.
इन गीतों की गूंज खासतौर से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में अधिक है. दलितों मे सब से पहले चेतना जगाने वाले महाराष्ट्र के दलित गायकों की पौध बड़ी है पर उत्तर भारत के कुछ गायक ज्यादा लोकप्रिय रहे हैं. छुआछूत, भेदभाव के खिलाफ मानवता की अलख जगाने वाले कबीर, रविदास के भजनों और सूफी गायकों से एकदम हट कर इन नए गायकों के सुरों में, तेवरों में सीधा आक्रोश, विद्रोह और ललकार है. आज जब देशभर में दलितों पर हो रहे अत्याचार को ले कर राजनीतिक और सामाजिक माहौल गरमाया हुआ है, ऐसे में दलित गायकों के गीत दलित समुदाय में काफी लोकप्रिय हो रहे हैं. कुछ समय पहले दलित गायकों के लिए एक कैसेट निकलने में सालों लग जाते थे पर आज एलबम, वीडियो एक के बाद एक निकल व मशहूर हो रहे हैं. इस समुदाय के गायकों की एक पूरी पीढ़ी सक्रिय है. वैसे तो किशोर कुमार पगला, राजेश राजू, अंजलि भारती, रेशमा, रूपलाल धीर, जे एच तानपुरी, चमकीला, राज ददराल जैसे कई दलित गायक हैं पर उत्तर भारत में खासतौर से पंजाब की गुरकंवल भारती, जो मंचों पर गिन्नी माही के नाम से मशहूर हैं, इन दिनों लोकप्रियता के शिखर पर हैं.
जालंधर की गिन्नी माही अपने गीतों से दलित चेतना का अलख जगा रही हैं. रविदास, भीमराव अंबेडकर पर गाए उन के पंजाबी गीतों की धूम मची है. मंचों और लाइव कायक्रमों में उन के गीत खूब सराहे जा रहे हैं. महज 18 साल की गिन्नी की गायकी अनूठी है. वे अपने कार्यक्रमों में अंबेडकर के संदेश फैला रही हैं. गिन्नी की कामयाबी दबेकुचले दलित वर्ग की आवाज है. जालंधर के एचएमवी कालेज में प्रथम वर्ष (म्यूजिक) में पढ़ रही गिन्नी को यूट्यूब, फेसबुक पर मिल रहे लाखों हिट्स उन की सफलता के सुबूत हैं. गिन्नी माही का ‘चमार पौप’ पंजाब में खूब लोकप्रिय है. ‘हुंदे असले वध डेंजर चमार’ यानी हथियारों से अधिक खतरनाक चमार है. गिन्नी के ‘डेंजर चमार’ पौप में सामाजिक पक्षपात और आर्थिक रूप से दलितों को वंचित रखने वाली शक्तियों के खिलाफ समुदाय को एकजुट करने का आह्वान है. अपनी जाति पर अपमान के बजाय गर्व करने की सीख उस में है. गिन्नी कहती हैं, ‘‘मेरे गीतों में जाति, आयु और आर्थिक हालात से हट कर देखने और दलितों को खुद अन्याय व दमन के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा है. मैं ने अपनी दादी, परदादी और पुराने लोगों से सुना था कि उन लोगों के साथ भेदभाव, छुआछूत, अत्याचार होते थे, हालांकि मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ. पहले हमारे समुदाय के लोग जाति छिपाते थे, अपमान महसूस करते थे पर अब वे गर्व के साथ अपनी जाति बताने के लिए आगे आ रहे हैं. मेरा गीत ‘डेंजर-2’ जो चमारों पर है, उन्हें खुद पर गर्व करने के लिए प्रेरित करने वाला है.’’
जागरूक दृष्टिकोण
गिन्नी के अब तक 5 मल्टी एलबम आ चुके हैं. वे एक हजार से अधिक स्टेज शो वे लाइव कार्यक्रमों में भाग ले चुकी है. ‘गुरां दी दीवानी’ व ‘गुरपूरब है कांशी वाले दा’ दोनों एलबम ज्यादा लोकप्रिय हैं. जाति, धर्म के सवाल पर गिन्नी कहती हैं, ‘‘मैं मानवता को मानती हूं. अंबेडकर ने समानता का संविधान, रविदास, कबीरदास ने जातपांत से हट कर मानवता पर जोर दिया. मेरे गीतों में भी यही संदेश है.’’ गिन्नी राजनीतिक और सामाजिक तौर पर काफी परिपक्व व जागरूक हैं. वे जानती हैं कि संविधान लिखने वाले अंबेडकर की वजह से ही दलितों का उत्थान हो रहा है. अंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाली गिन्नी माही कहती हैं कि आज हमारे सभी अधिकार भीमराव अंबेडकर की देन हैं. उन पर एक गीत भी गाया है, ‘मैं फैन बाबासाहेब दी, जिने लिखिया सी संविधान.’
‘की होया जे मैं धी हां,’ गीत में गिन्नी ने कन्याभ्रूण हत्या के खिलाफ भी सुर दिया है. गिन्नी का कहना है कि उन्हें कुदरत की तरफ से दमदार आवाज मिली है तो वे अपनी आवाज से लोगों को सामाजिक पिछड़ेपन से बाहर निकालने की कोशिश करती रहेंगी. 8 साल की उम्र में पिता राकेश माही ने बेटी के अंदर गायन प्रतिभा को पहचाना था और जालंधर के कला जगत नारायण स्कूल में दाखिला करवा दिया. माही ने गुरु रविदास की स्तुति में गंभीरता से संगीत का अभ्यास किया. फिर अमर औडियो के अमरजीत सिंह ने माही के 2 एलबम ‘गुरां दी दीवानी’ व ‘गुरपूरब है कांशी वाले दा’ निकाले. इन दोनों एलबमों से माही को पहचान मिलनी शुरू हुई. पंजाब की तरह महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और आंध्र प्रदेश में भी दलित आक्रोश गीतों में प्रकट हो रहा है. महाराष्ट्र में मराठी, आंध्र प्रदेश में स्थानीय बोली में गायक सामाजिक विसंगतियों के राग अलाप रहे हैं और लोग उन्हें काफी पसंद कर रहे हैं. ‘जागो बहुजन साथियों’, ‘कह गए कांशीराम जमाना बदलेगा’, ‘काम दलितों का क्या किया साहेब’, ‘जो कुछ भी दिया है अंबेडकर ने दिया है’, ‘बाबासाहेब का मिशन दिल्ली से’, ‘सुनो सिपाही भीम के’, ‘जाग रे समाज’, ‘तेरी जय हो बाबा’, ‘मेरे बाबा भीम महान’ जैसे गीत दलित गायक मंचों से गा कर अपने समुदाय को जगाने का आह्वान कर रहे हैं. बौलीवुड में वर्सेटाइल सिंगर बनने का ख्वाब देख रही गिन्नी माही गुरु रविदास के बारे में कहती हैं कि उन्होंने केवल दलित समाज के लिए नहीं, पूरे विश्व के लिए कहा था कि वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां पर किसी तरह का भी भेदभाव न हो, सभी को समानता मिले. अपने गीतों में मैं यही संदेश दोहरा रही हूं.
क्रांति की दस्तक
आजादी के बाद पहली बार दलित समुदाय की नई पीढ़ी ने जातिगत व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाने का माध्यम गीतों को चुना है. इस से पहले की पीढि़यां चुपचाप छुआछूत, भेदभाव का दंश सहन करती आ रही थीं. यह एक नए तरह का बदलाव है, क्रांति की दस्तक है जिसे ऊंची जाति की नई पीढ़ी भी स्वीकार कर रही है, जाति और धर्म के धंधेबाजों को छोड़ कर. देश के भीतर एक नए तरह की आजादी के तराने दलित युवाओं में नया जोश व उम्मीद जगाते प्रतीत हो रहे हैं. दलित वर्ग शिक्षा, व्यापार, उद्योग, राजनीति व प्रशासन में आगे आ रहा है और वह अपनी आवाज उठाने में अब पीछे नहीं है. रोहित वेमुला आत्महत्या, उना गौकशी, मिर्चपुर मामला, पलवल, फरीदाबाद जैसी घटनाएं राष्ट्रीय सुर्खियां बनीं जो कि दलितों की जागरूकता को जाहिर करती हैं. यह सही है कि आजादी के 69 वर्षों बाद भी दलितों की दशा नहीं सुधरी है. संविधान में बराबरी के अधिकार के बावजूद सामाजिक बराबरी से यह तबका अभी दूर है. इस के पास जीवन की न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने वाली सुविधाएं नहीं हैं. गांवों में 45 फीसदी दलित परिवारों के पास जमीनें नहीं हैं. वे छोटीछोटी मजदूरी कर के गुजारा करते हैं.
सोच में बदलाव की जरूरत
भले ही देश में शिक्षा, साक्षरता का स्तर बढ़ा हो पर दलितों के प्रति सामाजिक सोच में बदलाव नहीं हुआ. हालांकि सरकार उन के स्तर को सुधारने में पैसा खर्च कर रही है पर यह धन कहां जाता है, इस का कोई हिसाब नहीं. 2016-17 में सरकार ने दलितों के लिए 38,832 करोड़ रुपए आवंटित किए. यह राशि पिछले बजट से 30 हजार करोड़ रुपए ज्यादा थी पर दलितों के उत्थान में नाममात्र का ही खर्च हुआ. देश की कुल आबादी का 16.6 प्रतिशत दलित अपने बुनियादी हकों के लिए तरस रहा है. सदियों से धर्म के आधिपत्य में रहे समाज और राज की दिशा अन्यायी धर्म द्वारा तय की जाती रही. ऐसे में समाज का निचला तबका सामाजिक, आर्थिक तौर पर गुलामी में जकड़ा रहा. दलित आज गीतों में अंबेडकर का गुणगान कर रहे हैं, इसलिए कि उन्हें जो भी अधिकार मिले हैं, ब्रिटिश उपनिवेश के बाद मिले हैं. भारतीय संविधान की प्रस्तावना से ल कर तमाम अनुच्छेद स्वतंत्रता, समानता, न्याय के मानवीय अधिकारों की रक्षा करते नजर आते हैं. अंबेडकर ने ही दलितों के लिए सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों की पैरवी की और आज वे उन के लिए गीतों की प्रेरणा बने हैं. गीत क्रांति का जरिया है तो क्या दलित गीत देश में दलितों में नई जागृति, नई क्रांति के वाहक बन रहे हैं?
गिन्नी माही कहती हैं कि कलाकार की कोई जाति नहीं होती, जातियां तो इंसानों द्वारा बनाई गई हैं. हमारा मकसद इंसानों में समानता, स्वतंत्रता का भाव पैदा करना है. दलित अब इसे पाने के लिए जाग रहा है. गिन्नी माही के पिता राकेश कुमार बेटी की कामयाबी से खुश हैं और वे दलित समुदाय के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए बेटी की गायकी को प्रोत्साहन देने में पीछे नहीं हैं. लता मंगेशकर, श्रेया घोषाल, राहत फतेहअली खान, सोनू निगम और पंजाबी गायक फिरोज खान व सुबेश कुमारी को पसंदीदा गायक मानने वाली गिन्नी माही दलित समुदाय में अस्मिता जगाने में सफल दिखती हैं. देश में भक्ति आंदोलन जैसी कई जनजागरण मुहिम चलीं, बराबरी, स्वतंत्रता, जैसे मानवीय मूल्यों की स्थापना समाज में नहीं हो पाई. दलित गीत उसी कड़ी में एक आंदोलन है जिस के जरिए वे स्वतंत्रता, समानता की अपनी वेदना जहांतहां व्यक्त कर रहे हैं. इस का कुछ तो असर पड़ेगा ही.