उस ने घड़ी की ओर दृष्टि घुमाई. 9 बजने को आए थे. प्रारूप के दफ्तर जाने का समय हो गया था. यह सोच वह नाश्ता बनाने के लिए उठने लगी तो उन्होंने सबल रोक दिया, ‘‘जब से बीमार हुआ हूं, गरिष्ठ भोजन सुबहसुबह पचता नहीं है. शीतला को मां सब समझा गई हैं. वही बना कर ले आएगी, तुम आराम से बैठो.’’ मेज पर रखे बरतनों की खनखनाहट सुन कर उस की नजर उस ओर चली गई थी. इलायची का छौंक लगा कर बनी खिचड़ी की सोंधी महक कमरे में फैल गई थी. नाश्ता कर के दफ्तर जाते समय प्रारूप उस से कहते गए, ‘‘जो भी काम हो, शीतला से कह देना. यह सब काम बड़े सलीके से करती है.’’ अनायास कहे पति के वाक्य उसे अंदर तक बींध गए. वह खुद पर तरस खा कर रह गई थी. ब्याह के बाद कुछ ही दिनों में पतिपत्नी के बीच संबंधों की खाई इसी बात पर ही तो गहराती गई थी. प्रारूप ऐसी सहभागिता, सहधर्मिणी चाहते थे जो ढंग से उन की गृहस्थी की सारसंभाल करती, उन की बूढ़ी मां की सेवा करती और जब वे थकेहारी दफ्तर से लौटे तो मृदु मुसकान चेहरे पर फैला कर उन का स्वागत करती. लेकिन सपनों की दुनिया में विचरण करने वाली, स्वप्नजीवी सुरभि के लिए ये सब बातें दकियानूसी थीं. वह तो पति और सास को यही समझाने का प्रयत्न करती रही कि औरत की सीमाएं घरगृहस्थी की सारसंभाल और पति व सास की सेवा तक ही सीमित नहीं हैं. नौकरी कर के चार पैसे कमा कर जब वह घर लाती है, तभी उसे पूर्णता का एहसास होता है.
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