जब आप पहली दफा तारेक फतह से रूबरू हों, तो आप को खुद के सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस मार्कन्डेय काटजू के सामने होने की गलतफहमी हो सकती है. वजह महज यह नहीं कि एक हैयर स्टाइल को छोड़ फतह और काटजू की शक्ल सूरत नैन नक्श और चश्मा तक भी मिलते जुलते हैं, बल्कि इन दोनों मे एक अदभुद समानता मुंहफट होने की भी है. फर्क इतना है कि काटजू बिना सोचे समझे कहीं भी कुछ भी बोल सकते हैं, जबकि फतह की न केवल जुबान से बल्कि जिस्म के रोएं रोएं से पाकिस्तान के खिलाफ जहर रिस्ता रहता है.

पाकिस्तान में पैदा हुये और कनाडा में रह रहे तारिक फतह भोपाल में थे. मौका था राज्य सरकार द्वारा आयोजित जलसे लोक मंथन का, जो आम सरकारी आयोजनों की तरह तकरीबन बेमकसद और एक हद तक हिन्दू राष्ट्रवाद की अवधारणा को पुख्ता करने की मुहिम का हिस्सा था. देश के कई सरकारी और गैर सरकारी बुद्धिजीवियों ने इसमें शिरकत की पर आकर्षण का केंद्र तारेक फतह रहे, वह भी उस सूरत में जब अधिकांश को यह भी नहीं मालूम था कि उन्होंने क्या और कितना लिखा है. लोग इतना भर उनके बारे में जानते हैं कि यह पाकिस्तानी लेखक दिल खोलकर पाकिस्तानी हुक्मरानों को गाली देता है और इन दिनों मोदी भक्तों की भीड़ का हिस्सा है.

भोपाल में भी फतह ने अपना पुराना कहा नए लफ्जों में दौहराकर हाट लूटी, तो उनकी बातें और खयालात सुन हर किसी के जेहन में एक सवाल जरूर कौंधा कि खुद को लेखक कहने बाला यह शख्स जब खुद के वतन और मिट्टी का नहीं हुआ, तो हमारा या किसी और का क्या खाकर होगा. भोपाल में उन्होंने ढेर बातें कीं, जिनका सार पिछली बातों से जुदा नहीं था, लेकिन मौका देखकर चौका उन्होंने यह कहते मारा कि हिंदुस्तान में कांग्रेस की जमीन निचले लेबल पर है और राहुल गांधी के लिए खासतौर से नरेंद्र मोदी को सशक्त नेतृत्व के मामले में चुनौती देना नामुमकिन काम है.

साधारण पृष्ठभूमि से राष्ट्रीय राजनीति में आए मोदी को दूसरे नेताओं के मुकाबले जमीनी समझ ज्यादा गहरी है. पाकिस्तान पर बोलते उनकी बेबाकी कायम थी कि यह मुल्क के नाम पर बड़े झूठ नफरत की बुनियाद पर खड़ा धोखा है, जो दुनिया भर में आतंक की फेक्ट्री बन चुका है, उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता, अब बस मोदी ही उसका इलाज कर सकते हैं.

अव्वल तो हिंदुस्तानियों का दिलो दिमाग जीतने और उनसे तालियां पिटवाने इतना ही काफी था, लेकिन फतह पूरे रंग में थे, लगे हाथ उन्होंने यह सनसनीखेज सा एतिहासिक रहस्योद्घाटन यह भी कर डाला कि भारतीय मुसलमानों के पूर्वज पहले से यहीं थे और वे मुसलमान नहीं, बल्कि हिन्दू जैन और बौद्ध थे और जिस हजार साल की मुगल हुकूमत पर वे इतराते हैं, वह हमलावर थे, जिनके पुरखों ने सनातनी संस्कृति (धर्म नहीं) अपनाई थी. अगर भारत की रूह से जुड़ना है तो यहां के मुसलमानों को यह एतिहासिक भूल सुधारनी होगी.

कश्मीरियों के लिए भी उनके पास एक नेक मशवरा यह था कि वे याद रखें कि भारत ही उनका भूत था वर्तमान है और भविष्य रहेगा, वह बौद्ध और हिन्दू परम्पराओं (धर्म नहीं) का गढ़ रहा है. बेहद गंभीर समस्या और मसले पर तो इस देश के कट्टर हिंदुवादी भी नहीं बोल पाते, जितना खुलकर तारेक फतह बोले और बोले तो क्यों बोले उनकी मंशा पर गौर करें तो वह बेहद साफ है कि वे तसलीमा नसरीन की तरह भारत में बसना चाहते हैं, यहां कि नागरिकता चाहते हैं, क्योंकि जो इज्जत और हिफाजत यहां है, वह कनाडा या किसी दूसरे देश में नहीं, इसलिए वे जामवंत की तरह ह्रदय को भाने वाले वचन बोल रहे हैं.

कट्टरपंथ की आलोचना हर्ज की बात नहीं पर फतह जैसे लेखकों के साथ दिक्कत यह है कि वे इसे बढ़ा चढ़ाकर पेश करते हैं और इसका सटीक इलाज नहीं बता पाते. साहित्यिक नीम हकीमी से किसी को कुछ नहीं मिलता, लेकिन मुमकिन है फतह जो केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी से चाहते हैं, वह उन्हें मिल जाए, क्योंकि यह एक कूटनीति के तहत हर दौर में होता आया है कि दुश्मन के बुद्धिजीवी और अहिंसक दुश्मन को पनाह देना हर्ज की बात नहीं, वह भी उस सूरत में जब वह अपने धर्म संस्कृति और देश तक को आपके निजाम और हुकूमत की सामने बौना साबित कर रहा हो. अगर किसी इनाम नहीं तो बख्शीश का हकदार तो वह होता ही है, और नागरिकता का क्या है वह तो राजा के गले में पड़े हार की तरह है, जिसे उतारकर उसकी तरफ फेकने में दस सेकेंड भी नहीं लगना.

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