सास के आगे जबान नहीं खुलती थी मेरी और जब खुद सास हूं तो बहू के आगे जबान नहीं चलती. मन की इच्छाएं पहले भी दबी थीं और आज भी जैसे दबी की दबी ही रह गई हैं. आज ये दीवारें मुझे इतनी अपनी क्यों लग रही हैं. 30 वर्षों की गृहस्थी में मैं ने इन दीवारों को कभी भी अपना नहीं समझा. लेकिन, अब महसूस हो रहा है कि इन दीवारों से ज्यादा अपना तो कोई है ही नहीं. 30 वर्षों पहले इस घर में ब्याह कर आई थी, तो इन दीवारों को अपनी सास के घर की दीवारें मान ली थीं. उस के बाद कितनी कोशिश की थी मैं ने इन दीवारों को अपना बनाने की, पर कभी भी इतना अपनापन मेरे मन में नहीं जागा था. आते ही सास ने फरमान सुना दिया था, ‘बहू, मेरे घर में ऐसा होता है,’ वैसा होता है. कोईर् भी बात होती तो वह यही कहती थीं, ‘यह मेरा घर है, इस में ऐसा ही होगा और अगर किसी को मेरी बात नहीं माननी तो वह मेरा घर छोड़ सकता है.’

लेकिन आज दोपहर को सोते वक्त ऐसा लग रहा था जैसे ये दीवारें मुझ से कह रही हैं, ‘देखा तनु, हमें ठुकरा दिया पर हम तेरा साथ कभी भी नहीं छोड़ेंगे, हम आज भी तेरी हैं, सब तुझे धोखा दे देंगे पर हम तुझे कभी भी धोखा नहीं देंगी.’ आजकल क्या दीवारों से आवाजें आनी शुरू हो गई हैं, क्यों मैं दीवारों से बातें सुनती हूं, ऐसी तो कुछ भी अनहोनी नहीं हुई है मेरे जीवन में. हर मां के जीवन में ऐसा वक्त आता ही है, फिर मैं इतना अकेलापन क्यों महसूस कर रही हूं. पहले भी तो इतनी अकेली ही थी, फिर आज यह अकेलापन इतना ज्यादा क्यों खलने लगा है. पड़ोस वाली आंटी कहने लगी हैं, ‘अच्छा किया बेटा, फ्री हो गई है. बच्चों का ब्याह कर दिया. अब आराम कर, घूमफिर, अपने शौक पूरे कर.’ पर कौन से शौक, कौन सा घूमनाफिरना, कौन सा आराम, सबकुछ तो मन से होता है और बहुत ज्यादा पैसों से. मन अगर स्वस्थ न हो तो कुछ भी नहीं होता है और अगर जेब में पैसा न हो तो कुछ हो ही नहीं सकता. यह ठीक है कि जीवन आराम से बीत रहा है, पर इतना तो कभी भी नहीं हुआ कि रोजरोज घूमने जाऊं. कोई कहता है कि अब भगवान का नाम लो, कीर्तनों में जाओ, कथाएं सुनो. पर जीवनभर मेरा घर ही मेरा मंदिर, काशी, काबा सब रहा है, तो अब 50 बरस की उम्र में यह नया शौक कहां से पालूं. काम करने की सोची, तो लोगों ने यह कह कर काम नहीं दिया कि आप की उम्र के लोगों को अब आराम करना चाहिए.

क्या 50 साल की उम्र में मैं बूढ़ी हो गई हूं. और अब सिर्फ भगवान, जो है भी कि नहीं, का ही सहारा लूं या फिर चुपचाप बैठ कर बेकार के भजनकीर्तन ही सुनूं? बेटी का फोन आया, ‘मां, आप कोई एनजीओ जौइन कर लो. आप का मन लग जाएगा और समाजेसवा करने से संतुष्टि भी मिलेगी.’ लेकिन एक मध्यवर्गीय गृहस्थन क्या जाने यह समाजसेवा क्या होती है, जिस ने सारी उम्र अपने घर से बाहर कदम न रखा हो, वह क्या समाजसेवा करेगी. बेटे का फोन आया, ‘4 घंटे का सफर है, मम्मी. जब आप को जरूरत होगी, आ जाऊंगा.’ पर जब बहुत ज्यादा बीमार पड़ी थी. तब भी बेटे का फोन ही आया, ‘मम्मी, आ तो जाऊं पर छुट्टी नहीं मिल रही है.’ ‘नहीं बेटा, मत आओ, मैं कर लूंगी और तुम्हारे पापा तो हैं ही न,’ भरे मन से कहना पड़ा था. उस वक्त भी तो सिर्फ ये दीवारें मुझ से कह रही थीं कि कोई बात नहीं, हम हैं न तेरा खयाल रखने के लिए, तू आराम कर, हम तेरा खयाल रखेंगी, हम हैं न तेरे साथ, जब तू थक कर सो जाएगी तो हम तेरा पहरा देंगी. सारा जीवन मैं इन दीवारों से इतने अपनेपन का एहसास नहीं कर सकी. सारा जीवन सोचती रही कि कब इन दीवारों से पीछा छूटेगा और कब अपनी नई दीवारें बनेंगी. यह तो बहुत ही छोटा सा घर है. चलो, पति ने नया घर नहीं बनवा कर दिया, उन की आमदनी इतनी नहीं थी कि एक नया घर ले लें. बहनभाइयों की जिम्मेदारी उठाते रहे. फिर अपने बच्चों की. इतना समय और पैसा ही नहीं बचा था कि अपना नया घर बनवा लेते. बेटे की बहुत अच्छी नौकरी लगी थी. मन में एक उम्मीद जगी थी कि अब तो नया घर बनवा ही लेंगे, कुछ जमापूंजी हम लगाएंगे और कुछ बेटे से लेंगे और मैं स्वयं की खड़ी हुई दीवारों में जाऊंगी. पर अपने शहर से दूर अच्छी नौकरी लगते ही बेटे के ऊपर मक्खियों की तरह लड़कियां भिनभिनाने लगी थीं. आखिर, एक लड़की के प्यार में मेरा बेटा फंस ही गया और आननफानन शादी का फैसला भी हो गया. ‘बहुत अच्छी लड़की है, फिर घराना भी अच्छा है,’

पति ने समझाया. ‘मम्मी, अभी तो भाई को लड़की पसंद है, फिर बाद में ढूंढ़नी पड़ेगी,’ बेटी ने समझाया. ‘हां ये ठीक ही तो कह रहे हैं. कुछ अनहोनी तो नहीं हो रही है. सब बेटों की शादी होती है. तो फिर, मैं इतनी परेशान क्यों हूं.’ बड़े लाड़ से बहू को घर में ब्याह कर लाईर् थी. लेकिन आते ही बहू ने न सिर्फ बेटे को हथिया लिया था बल्कि सारे गहने भी अपने कब्जे में कर लिए थे. मैं अपनी खामोशी की आदत के कारण कुछ बोल ही नहीं पाई थी. ‘मम्मीजी, यह तो बहुत ही सुंदर हार है. मैं इसे ले लूं अपनी सहेली की शादी में डालूंगी.’ एक बार भी तो न नहीं कर पाई थी. मन में खीझती रहती थी. पर ऊपर से कुछ नहीं कह पाती थी. धीरेधीरे बहू प्यार से काफी गहने ले गई थी. पति भी उसी का साथ देते थे, ‘उसी के लिए तो बनवाया है. फिर उसे देने में क्या हर्ज है.’ कैसे बताती कि सारी उम्र मैं ने कभी अपनी सास से यह तक नहीं पूछा था कि मम्मीजी, मेरे गहने कहां रखे हैं. और आज मैं अपनी बहू से यह नहीं कह पा रही हूं कि बेटे, ये गहने मेरे पास ही रहने दो. हमारी पीढ़ी की सासों की यही विडंबना है कि अपनी सासों से भी सारी उम्र डरती रही और अब पढ़ीलिखी सास होने के कारण बहुओं को कुछ कह नहीं पातीं. शायद मैं ने बेटे से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगाई थीं. तभी हमेशा उस पर विश्वास कर के अपने घर का सपना देखती रही थी.

आखिरकार, वह मुबारक दिन आ ही गया था. लेकिन जमीन की रजिस्ट्री होने लगी, तो बेटे ने कहा, ‘मम्मी रजिस्ट्री तो सुनंदा के नाम से करवाते हैं, लोन लेने में आसानी होगी. वह नौकरी करती है न.’ ‘लेकिन, पैसा तो पापा का भी लग रहा है,’ सोच ही सकी पर मुंह से बोल नहीं पाई, क्योंकि उस से पहले ही पति बोल पड़े, ‘कोई बात नहीं. किसी के नाम भी करवाओ. घर तो बन ही रहा है न. वैसे भी, हमारा जो है वो इसी का तो है.’ ‘मेरा मन चीखने लगा, मेरी दीवारें कहां हैं?’ सालों तक इंतजार करने के बाद भी मेरे हाथ कुछ नहीं आया, दीवारें तक नहीं. घर बन कर तैयार हो गया था. मैं स्वार्थी नहीं थी और न ही अपने बेटे के बारे में कुछ बुरा सोच सकती थी. पर इस मन का क्या करती जो बरसों से एक ही आस मन में लगाए बैठा था कि मेरी भी अपनी दीवारें होंगी और उन दीवारों को मैं अपने हिसाब से सजा सकूंगी. लेकिन बेटे के लिए मन की सारी कुंठाएं मिटा कर उस का घर बनने का इंतजार करती रही. मुझे वह दिन याद आ रहा था जब मैं ने इस घर में बदलाव लाना चाहा था. तब मेरी सास ने साफ इनकार कर दिया. ‘इस घर में कुछ भी बदलाव नहीं होगा, यह मेरा घर है और इस में वही होगा जो मैं चाहूंगी.’ उन की वह रोबीली आवाज आज तक मेरे कानों में गूंज जाती है और उन के मरने के इतने सालों बाद भी मैं इस घर में कुछ भी नहीं बदल सकी. कुछ दिनों पहले सोफे बदलने चाहे थे तो पति ने मना कर दिया, ‘अरे, अब इस पुराने घर में पैसा लगाने का क्या फायदा. नया घर बनवाएंगे, तो फिर सोफे भी बनवा लेना.’ मन फिर से उलझ गया, ठीक ही तो है, पुराने घर में पुराने सोफे ही तो चलेंगे. नए घर में नए सोफे की बात करनी चाहिए.’ ठीक है, पर यह नया घर कब बनेगा और मुझे नई दीवारें कब मिलेंगी. अब तो जीवन की संध्या आ गई है.

बेटे का घर बन कर तैयार हो गया था. बेटे का इसलिए क्योंकि इस घर में कुछ पैसों के अलावा मेरी पसंद का कुछ भी नहीं था. सबकुछ बेटे और बहू ही पसंद कर के लाते थे. मैं मां थी, अपने ही बच्चे से ईर्ष्याभाव कैसे रख सकती थी. पर इस मन का क्या करूं जो सदा से कुछ अपनी दीवारें चाहता था. गृहप्रवेश का समय तय हो गया था. ‘मम्मा, आप जल्दी आना. आप को ही पहले घर में प्रवेश करना है,’ बेटे का मान करना अच्छा लगा था. पर गाड़ी लेट हो गईर् थी. घर में सुनंदा की मां प्रवेश कर चुकी थी. ‘आप देर से आईं, तो किसी बुजुर्ग को घर में प्रवेश करना था, सो, मोहित जिद कर के मुझे पहले ले आया था,’ उस की बात मुझे कांटे की तरह चुभी थी. पता नहीं वह व्यंग्य कर रही थी या शायद ऐसे ही कहा था पर मेरा मन ऐसा रोया कि पूरे समय मैं व्याकुल ही रही थी. ‘कैसा लगा घर, मम्मी,’ रात को मोहित पूछ रहा था. एक कमरा मेरा भी बनाया गया था, उसे ही देख कर खुश हो रही थी. ‘बहुत अच्छा बना है, बेटा,’ मैं खुश हो कर बोली थी. ‘यह घर आप का है, आप ही इस घर की मालकिन हैं, यह कमरा आप का है. जब आप आएंगी तो इस में रहेंगी.’ मैं खुश हो गई थी. अभी भी बेटे और बहू को मेरी परवा है, ऐसे ही गलत सोच रही हूं मैं, कभी नाखून भी मांस से जुदा होते हैं.’ ‘क्या सोच रही हो, मम्मी, आप का जब तक मन करेगा, यहीं रहें न,’ बेटे ने फिर से कहा. उदास हो गई थी मैं. क्या यह कहना जरूरी था. हां बेटा, ये दीवारें तू ने बड़ी मेहनत से खड़ी की हैं और अब इन दीवारों पर मेरा हक कहां, ‘नहीं बेटा, ज्यादा नहीं रह पाऊंगी, तुम्हारे पापा तो चले जाएंगे और फिर उन्हें अकेला भी तो छोड़ा नहीं जा सकता.’ कनखियों से देखा बहू और बेटे के चेहरे पर सुकून की रेखा नजर आई. सच ही तो है, जितना भी चुप रहो, पास बैठ कर कुछ तो मुंह से निकल ही आता है, ‘सुनंदा, हाथ धो कर रसोई में जाया करो.’ सुनंदा ऐसे मुंह बनाती जैसे मुझ पर एहसान कर रही हो. मन मायूस हो जाता. ‘सुनंदा रात को कपड़े बाहर से उठा लिया करो इतनी मेहनत से धुलते हैं और रात को ओस से गीले हो जाते हैं,’ फिर बोल पड़ी थी. ‘जी मम्मी’ पर लगता है यह बात भी उसे पसंद नहीं आई थी.

तभी तो सुबह तक कपड़े बाहर ही पड़े थे. फिर मन कह उठा, चुप रहा कर ज्यादा मत बोला कर. ऐसे ही कई छोटीछोटी बातें थीं. जिन्होंने मन को छलनी कर दिया था. हफ्ताभर भी न रह पाई थी बच्चों के पास. शायद, मैं ज्यादा ही दखलंदाजी करने लगी थी. पर मेरी सास भी तो करती थी और मेरी हिम्मत नहीं होती थी उन्हें कुछ कहने की और उन की बात तो जैसे मेरे लिए पत्थर की लकीर होती थी. अगर कभी कुछ मना करने की सोचो भी, तो पति से डांट अलग पड़ती थी. पर वो ही पति अपनी बहू के लिए कैसी अलग सोच रखने लगे हैं. शायद जमाना बदल गया है. पर मेरे लिए क्यों नहीं बदला. शायद, मैं ही नहीं बदल पाई हूं या फिर मैं ने सब से कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा रखी हैं या फिर पता नहीं क्यों. लेकिन कुछ तो है जो मुझे तकलीफ देता है और मैं उस तकलीफ से बाहर आना भी नहीं चाहती. हफ्ते बाद ही मेरे जाने का समय आ गया था. ‘मम्मी, जा कर फोन कर देना,’ बेटे ने चिंता व्यक्त की. ‘हां जरूर, अपना खयाल रखना.’ अब मैं वापस अपनी दीवारों के पास जा रही थी.

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