उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के बीच पिता पुत्र की अनबन अब छनछन कर बाहर आने लगी है और अकबर व सलीम की अनारकली को ले कर लिखी गई कहानी की तरह ये दोनों आमनेसामने हैं. यह कोई अचरज की बात नहीं है. घर हो, व्यापार हो या राजनीति, विचारों की विभिन्नता तो रहेगी ही और इसीलिए  शशि थरूर और उन की सुंदरस्मार्ट पत्नी सुनंदा पुष्कर या उमर अब्दुल्ला और उन की पत्नी पायल का विवाद बाहर आ ही जाता है. पितापुत्र विवाद भी पतिपत्नी विवाद से अलग नहीं है और यह घर व दफ्तर के मैदान में लड़ा जाए या राजनीति के जंगे मंत्रिमंडल में, फर्क नहीं पड़ता.

अखिलेश के अपने चाचा शिवपाल यादव से संबंध मधुर नहीं हैं जबकि मुलायम सिंह यादव अपने भाई शिवपाल यादव को छोड़ने को तैयार नहीं हैं. इस चक्कर में नौकरशाही भी पिस रही है और इन दोनों नेताओं से काम कराने वाले भी. कई मंत्री और सचिव इस पारिवारिक जंग के क्रौसफायर में फंस चुके हैं. वैसे, इस तरह के मतभेदों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए. यह प्रकृति का नियम है. पारिवारिक विवाद पार्टनरशिप विवादों की तरह होते ही रहते हैं और अदालतों में इन की भी भरमार रहती है. राजनीति में उलझे परिवारों में झगड़ा होना थोड़ा गंभीर हो जाता है. जब इंदिरा गांधी का संजय गांधी की मृत्यु के बाद मेनका गांधी से विवाद हुआ था तो बहुत ड्रामे हुए थे. इंदिरा गांधी ने तो मेनका गांधी को संजय गांधी की पूरी संपत्ति भी नहीं लेने दी थी. मेनका गांधी ने एकचौथाई हिस्सा अदालतों से ही पाया था. यह बात दूसरी थी कि इंदिरा ने संजय का हिस्सा मेनका के ही बेटे वरुण गांधी के नाम कर दिया था.

इंदिरा गांधी की अपने पति फिरोज गांधी से भी अनबन हुई थी. महात्मा गांधी ने ही जवाहरलाल नेहरू पर दबाव डाल कर इंदिरा और फिरोज का विवाह करवाया था. यही महात्मा गांधी अपने बच्चों से आमतौर पर रुष्ट रहे थे. हां, मुकदमेबाजी नहीं हुई, यह उन के लिए तसल्ली की बात रही. मुलायम सिंह यादव पुरानी पीढ़ी के हैं और अखिलेश असल में 2 पीढ़ी बाद के माहौल में पलेबढ़े हैं. वे दोनों एकतरह से सोचें, हर बात पर सहमत हों और उन की असहमति सार्वजनिक न हो, यह नहीं हो सकता. यह सोचना कि हर पतिपत्नी, पितापुत्र, भाईभाई सिर्फ इसलिए गोंद से चिपके रहेंगे कि उन पर हर समय मीडिया की रोशनी रहती है, कुछ ज्यादा ही अपेक्षा करना है.

मुलायम-अखिलेश मनमुटाव को गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए, न ही इसे सुर्खियां बनाना चाहिए. पारिवारिक प्राइवेसी हरेक की होनी चाहिए. इसे मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए. मतभेद दूर हो जाएंगे और न भी हों तो भी फर्क नहीं पड़ता क्योंकि राजनीति के सफर में साथी तो बदलते रहते हैं चाहे पितापुत्र हों या भाईभाई.

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