लेखन की दुनिया में खुशवंत सिंह एक बहुत बड़े लेखक थे. वे इसलिए भी बड़े लेखक थे क्योंकि वे अंगरेजी भाषा में लिखते थे. अंगरेजी में लिखना और पढ़ना हमेशा से ही एक प्रकार से स्टेटस सिंबल तो रहा ही है. अंगरेजी में लिखने वाले लेखकों को हिंदी में लिखने वाले लेखकों के मुकाबले पैसे भी बहुत ज्यादा मिलते हैं. अंगरेजी में लिखने वाले खुशवंत सिंह से एक बार सवाल किया गया था कि उन को सिर्फ अंगरेजी में ही लिखना क्यों पसंद था तो उन्होंने बड़े साफ शब्दों में कहा था कि पैसों के लिए. उन का कहना था कि हिंदी में किसी लेख के लिखने पर उन को जितने पैसे मिलेंगे, अंगरेजी में लिखने पर उस से दस गुना ज्यादा मिलेंगे. खुशवंत सिंह की बात में जो सचाई थी वह आज भी अपनी जगह पर कायम है, जबकि प्रकाशन की दुनिया में बहुतकुछ बदल चुका है. जब हिंदी के उपन्यासों का जमाना था उस समय देश के लगभग सभी छोड़ेबड़े प्रकाशक खूब उपन्यास छापते थे. उपन्यास केवल छपते ही नहीं, बड़ी संख्या में बिकते भी थे. हिंदी में पढ़ने वाले पाठकों की तादाद भी बहुत बड़ी थी. उपन्यास छापने के मामले में मेरठ जैसा शहर मानो दिल्ली से भी आगे निकल गया. हिंदी के प्रकाशकों ने जम कर उपन्यास छापे और खूब पैसे भी कमाए.
उस दौर में जबकि उपन्यास खूब छपते और बिकते थे और प्रकाशकों की खूब चांदी थी तब भी चंद लेखकों को छोड़ कर बाकी लेखक मुफलिसी के शिकार थे. बहुत लिख कर भी उन का गुजारा बड़ी मुश्किल से चलता था. किंतु प्रकाशकों ने मोटी कमाई की. वक्त बदला. टीवी, सैटेलाइट चैनलों और केबल्स प्रसारणों का युग आया. इस के साथ ही सिनेमाघरों के साथसाथ लेखकों के भी जैसे बुरे दिन शुरू हो गए. हिंदी के पाठकों की रुचि उपन्यासों में कम होने लगी. हिंदी के पाठकों की उपन्यासों में रुचि कम हुई तो उपन्यासों की बिक्री भी घटने लगी. लाखों में बिकने वाले हिंदी के मशहूर लेखकों के उपन्यासों की प्रतियां कुछ हजार में ही सिमटने लगीं. बुकस्टौलों से हिंदी के उपन्यास एकएक गायब होने लगे. हमेशा कमाई करने वाले प्रकाशक घाटे का सौदा क्यों करते? उपन्यासों की बिक्री घटी तो प्रकाशकों ने उपन्यास छापने कम कर दिए. इस समय हिंदी के प्रकाशक 2-3 बैस्टसैलर लेखकों को ही छाप रहे हैं, मगर बैस्टसैलर माने जाने वाले इन लेखकों की किताबों की बिक्री अब लाखों में नहीं, हजारों में ही रह गई है.
हिंदी के लेखकों का जमाना भले ही लद गया हो किंतु अंगरेजी में लिखने वाले लेखक आज पहले से भी अधिक मालामाल हो रहे हैं. जब हिंदी लेखकों का जमाना था, तब भी अंगरेजी में लिखने वाले उन से ज्यादा कमाई करते थे. आज जबकि लोगों को इंटरनैट की मायावी दुनिया से ही फुरसत नहीं और सैकड़ों पृष्ठों वाले भारीभरकम उपन्यासों को पढ़ने का साहस करने वाले पाठकों की संख्या गिनती की ही रह गई है, अंगेरजी में लिखने वाले लेखक पहले से भी कहीं अधिक मोटी कमाई कर रहे हैं. किसी बड़े से बड़े बैस्टसैलर कहे जाने वाले हिंदी लेखक ने शायद करोड़ों कमाने का ख्वाब भी न देखा हो, मगर अंगरेजी लेखक बड़ी शान और आराम से करोड़ों कमा रहे हैं. उन की कमाई का सीधा अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पौराणिक पात्रों पर आधारित 3 उपन्यास लिख कर बैस्टसैलर बने एक अंगरेजी में लिखने वाले लेखक को एक प्रकाशन संस्थान ने उस के अगामी उपन्यासों को छापने के लिए 5 करोड़ रुपए एडवांस में ही दे दिए. मजे की बात यह भी थी कि जिन उपन्यासों के लिए इतनी भारीभरकम रकम एडवांस में दे दी गई थी, उन्होंने अभी अपना आकार भी नहीं लिया था.
अंगरेजी में लिखने वाले भारतीय लेखक अच्छा लिखते हैं, इस में शक की गुंजाइश नहीं. मगर उन का लिखा हुआ सबकुछ इसलिए भी अच्छा समझा जाता है क्योंकि उन्होंने अंगरेजी में लिखा है. अंगरेजी आज भी हम भारतीयों की दृष्टि में उच्चता और स्टेटस की प्रतीक है. अमीष त्रिपाठी इस दौर के सब से सफल और चर्चित लेखक हैं. उन्होंने शिव पर 3 उपन्यास (ट्राइलौजी) लिखे हैं जिन की अब तक 22 लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकी हैं. अब वे राम को ले कर उपन्यास लिख रहे हैं जिस के लिए प्रकाशक ने उन को एक भारीभरकम रकम (संभवतया करोड़ों में) एडवांस में दे दी है. अमीष त्रिपाठी अंगरेजी में लिखते हैं, इसलिए उन का लिखा खास महत्त्व रखता है. बुकस्टौल पर सजे उन के उपन्यासों को खरीद कर अपने घर के ड्राइंगरूम में सजाने में लोग शान और फख्र महसूस करते हैं. ऐसा नहीं है कि हिंदी लेखकों ने पौराणिक पात्रों पर अच्छे उपन्यास नहीं लिखे, मगर उन को इस के लिए न तो उपयुक्त सम्मान मिला और न ज्यादा पैसा ही.
हिंदी में लिखे गए उपन्यासों को बुक स्टौल से उठाने में उन लोगों ने परहेज किया जो सोसायटी में दूसरों से कुछ खास और अलग दिखना चाहते हैं. पौराणिक पात्रों पर लिखे गए हिंदी उपन्यास को अपने ड्राइंगरूम के बुकशैल्फ में सजाना उन के स्टेटस के खिलाफ है. राष्ट्रभाषा होने के बाद भी हिंदी को आज भी छोटे लोगों की भाषा ही समझा जाता है. शायद इसीलिए ही तो हर दौर में 1-2 लेखकों को छोड़ कर बाकी लेखक बदहाली के शिकार रहे. कुछ लोग यह दलील भी देते हैं कि अंगरेजी में लिखने वाले लेखक इसलिए मालामाल हैं क्योंकि अंगरेजी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है और इसलिए अंगरेजी में लिखी किताबें विदेशों में भी कमाई कर लेती हैं. ऐसी दलीलें गले नहीं उतरतीं. जापानी, फ्रांसीसी, रूसी और जरमनी लेखकों के मामले में तो ऐसी कोई दलील नहीं दी जाती. उन को अपनी भाषा में लिखने में पूरा सम्मान और पैसा मिलता है. वे अपनी भाषा में ही लिख कर पहले नाम और पैसा कमाते हैं और बाद में अपनी रचनाओं के अनुवाद के जरिए अंगरेजी की तरफ रुख करते हैं. अंगरेजी में छपना उन के लिए कोई स्टेटस सिंबल नहीं, बल्कि बाकी दुनिया से जुड़ने का माध्यम है.
हिंदी लेखकों का तिरस्कार इस देश में तब तक होता रहेगा जब तक अंगरेजी के लिए गुलामों वाली हमारी मानसिकता कायम है. अंगरेजी में बात करना, अंगरेजों वाली ड्रैस पहनना, अंगरेजों के खानपान को अपनाना स्टेटस सिंबल था ही, अंगरेजी में पढ़ना भी अब स्टेटस सिंबल बन चुका है. अंगरेजी में लिखने वाले मालामाल लेखकों के सामने हिंदी लेखकों की बेचारगी पर अफसोस ही किया जा सकता है.