साल 2020 में जो चीजें राष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रमुखता से दिखेंगी, अयोध्या में भव्य राममंदिर का निर्माण उन में सब से ऊपर होगा. वहां दुनिया का सब से बड़ा महंगा और आलीशान मंदिर बनाने की तैयारियां परवान चढ़ रही हैं. अयोध्या में जमीन के दाम दस गुना तक बढ़ गए हैं. देशभर के साधुसंत वहां डेरा डाले पड़े हैं. सुबह से पूजापाठ और यज्ञहवन वगैरह का जो सिलसिला शुरू होता है, वह देररात तक चलता रहता है. कुल जमा अयोध्या में वैदिक कालीन माहौल है.
नए साल के पहले दिन अयोध्या में खासी गहमागहमी थी. इस दिन एक लाख से भी ज्यादा श्रद्धालु यहां पहुंचे थे. इस दिन अयोध्या में राम को 56 भोग का प्रसाद चढ़ाया गया था जिसे खासतौर से वहां धूनी रमाए पड़े साधुसंतों ने चटखारे ले कर खाया. अब जायकेदार पकवानों का यह लुत्फ उन्हें जिंदगीभर मुफ्त में मिलना तय हो गया है.
9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आने के पहले ही से मंदिर निर्माण सामग्री अयोध्या पहुंचाई जा रही थी. अब हजारों मजदूर और कारीगर काम में जुटे हैं. अयोध्या से बाहर लखनऊ और दिल्ली में सूचियां बन रही हैं कि अदालत के आदेश के मुताबिक सरकार द्वारा गठित ट्रस्ट में कौनकौन होगा. इस बाबत पंडेपुजारियों में खुलेआम लठ भी चल चुके हैं, गालीगलौज का भोज भी संपन्न हो चुका है.
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भगवान राम को चढ़ावा चढ़ाने के लिए कहां से क्या लाया जाएगा, श्रेष्ठि वर्ग यह तय करने में जुटा है. राम को भोग लगाने के लिए बिहार के गांव मोकरी से गोविंद भोग चावल मंगाया जाएगा, जो सब से ज्यादा सुगंधित होता है. हलचल अयोध्या के आसपास के गांवों में भी है जिसे देख लगता है कि राममंदिर केवल सवर्णों के लिए होगा. पिछड़े और दलितों को, हालांकि, यहां आने से घोषित तौर पर रोका नहीं जाएगा लेकिन ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है कि जिस से वे खुद ही यहां आने से हिचकिचाएं.
सूर्यवंशियों की पगड़ी
अयोध्या के आसपास के कोई 105 गांवों में इन दिनों सार्वजनिक सभाएं आयोजित कर उन में पगडि़यां बांटी जा रही हैं. ये पगडि़यां सिर्फ सूर्यवंशी क्षत्रियों के लिए हैं, जिन के बारे में अप्रत्याशित कहानी फैलाई गई है कि उन्होंने 500 साल पहले प्रतिज्ञा की थी कि जब तक राममंदिर फिर से नहीं बन जाता तब तक वे सिर पर पगड़ी नहीं बांधेंगे, छाते से सिर नहीं ढकेंगे और चमड़े के जूते नहीं पहनेंगे. गौरतलब है कि अयोध्या और उस से सटे बस्ती जिले के सूर्यवंशी भी खुद को राम का वंशज मानते हैं.
जैसे ही 9 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट का फैसला रामलला विराजमान के पक्ष में आया, इन क्षत्रियों में खुशी की लहर दौड़ गई और समारोहपूर्वक डेढ़ लाख लोगों को पगडि़यां व साफे बांटे जाने लगे. सूर्यवंशी चमड़े के जूतेचप्पल पहनने लगे और अब मंदिर निर्माण की तैयारियों में यथासंभव सहयोग दे रहे हैं. एक तरह से इन्होंने अचानक ही राम और अयोध्या पर अपनी दावेदारी ठोक दी है.
यह दावेदारी कोई अप्रत्याशित या अस्वाभाविक नहीं है, बल्कि इस बात का संकेत है कि देश के लाखों मंदिर सवर्णों के होते ही हैं फिर राममंदिर की तो बात ही निराली है. अयोध्या में पंडेपुजारियों के जमावड़े का मत भी यह है कि राम भगवान के आसपास उन के अलावा अगर कोई फटक सकता है तो वे क्षत्रिय हैं जो उन के परंपरागत यजमान हैं.
यजमान संपन्न वैश्य और दीगर जातियों के सवर्ण भी होंगे जो इफरात से चढ़ावा अयोध्या में दे सकते हैं. वे द्वितीय प्राथमिकता के तहत रामलला के दर्शन के अधिकारी होंगे. लेकिन पिछड़ों और दलितों के बारे में साफ दिख रहा है कि उन्हें अयोध्या आने से रोका तो नहीं जाएगा लेकिन वहां यह एहसास उन्हें हो जाएगा और नहीं होगा तो करा दिया जाएगा कि मर्यादा पुरुषोत्तम का यह मंदिर तुम्हारे लिए नहीं है. तुम लोग अपनी जाति के देवीदेवता पूजो जो वेदपुराणों के निर्देशानुसार तुम्हें सदियों पहले ही पकड़ा दिए गए थे. कुछ नए देवीदेवता गढ़ लिए गए हैं और हर जाति को वर्णव्यवस्था में अपने स्तर के अनुसार दे दिए गए हैं.
जाति के अलावा यह बात आर्थिक आधार पर भी हर कहीं साफसाफ दिखती है कि बड़े भव्य ब्रैंडेड मंदिर पैसे वालों के लिए ही होते हैं. गरीबों के लिए गलीकूचों में इफरात से हनुमान, शनि, काली और भैरों व अनजान देवों, देवियों और माताओं वगैरह के मंदिर हैं. इन में ऊंची जाति वाले कभी नहीं जाते. हां, दक्षिणा तगड़ी मिले तो पंडेपुजारी पूजापाठ कराने के लिए एहसान करते हुए चले जाते हैं. वैसे भी, इन गरीब दलितों ने सवर्णों के बराबर दिखने के लिए अपनी ही जातियों के पंडेपुजारी पैदा भी कर रखे हैं.
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इन्होंने उठाई थी पालकी
सूर्यवंशी क्षत्रियों की पगड़ी और जूतों की आड़ में राममंदिर पर दावेदारी के काफी पहले 28 नवंबर, 2018 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजस्थान विधानसभा चुनाव के दौरान अलवर की एक रैली में साफसाफ यह कहते फसाद खड़ा कर चुके थे कि हनुमान दलित थे. यानी, जो सेवक है वह दलित है और सवर्णों की सेवा व दासता दलितों का कर्त्तव्य व धर्म है.
जन्मना क्षत्रिय और कर्मना ब्राह्मण आदित्यनाथ के बयान पर उतना ही बवाल मचा था जितना कि वे और उन के पीछे के पैरोकार चाहते थे. तब जगहजगह दलित युवाओं ने हनुमान मंदिरों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था. लेकिन, जैसा कि कट्टर हिंदूवादी चाहते थे, बाद में मान भी लिया गया कि वे भी हनुमान की तरह दलित हैं.
इसी तरह ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने भी राममंदिर पर कब्जा कर लिया है. इस के पीछे कई अहम वजहें हैं. इन में से खास है जातिवाद और वर्णव्यवस्था को बनाए रखना, जो मौजूदा भाजपा सरकार और उस के पितृ संगठन आरएसएस का घोषित एजेंडा भी है. इन की मंशा यह है कि ब्राह्मण, पुजारी और पंडे पूजापाठ कर मलाई चाटते रहें जबकि क्षत्रिय वर्ग हमेशा की तरह इस मुगालते में रहे कि वह यजमान होने के नाते जातिगत रूप से बाकी के 2 वर्णों से श्रेष्ठ है. यानी, वह ब्राह्मणों का मोहरा बने रहने को तैयार है.
यह टोटका बेकार भी नहीं गया है इन दिनों अयोध्या की दान पेटी हर 15 दिन में खुल रही है जिस के नोट उगलने की तादाद भी हैरतअंगेज तरीके से बढ़ती जा रही है. हालफिलहाल हर पखवाड़े
8 लाख रुपए के लगभग दान राशि निकाल रही है जिस के रामनवमी आतेआते 1 करोड़ से भी ज्यादा होने का अंदाजा है क्योंकि तब तक ट्रस्ट बन चुका होगा और मंदिर निर्माण का काम शबाब पर होगा. इस की तैयारियां भी शुरू हो चुकी हैं. राममंदिर परिसर यानी श्री रामलला विराजमान शहर का क्षेत्रफल 67 एकड़ से बढ़ा कर 100 एकड़ करने की कवायद भी लगभग पूरी होने को है.
राममंदिर आंदोलन का इतिहास बताता है कि यह पूरी तरह सवर्णों की अगुआई में ही हुआ है. 80 के दशक से इस आंदोलन ने जो आग पकड़ी थी उस में अग्रणी नाम आरएसएस प्रमुख बाला साहब देवरस, विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल, रज्जू भैया, के सुदर्शन और मोहन भागवत के ही थे. आरएसएस के मौजूदा मुखिया मोहन भागवत हैं. इन के अलावा महंत अवैद्यनाथ, रामचंद्र परमहंस दास, विश्वेशतीर्थ और वासुदेवानंद जैसे नामी संतों ने भी बढ़चढ़ कर राममंदिर आंदोलन को हवा दी थी.
लेकिन मंदिर अभियान में सभी की भागीदारी दिखे, इस बाबत पिछड़े वर्ग के महत्त्वाकांक्षी नेताओं उमा भारती, गोपीनाथ मुंडे, कल्याण सिंह, शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र मोदी को भी इस में शामिल किया गया था. तब नरेंद्र मोदी आज जितने बड़े नाम या व्यक्तित्व नहीं थे. पिछड़े वर्ग की आक्रामक हिंदूवादी तेवरों वाली साध्वी ऋतंभरा ने भी ‘एक धक्का और दो, बाबरी मसजिद तोड़ दो’ और ‘रामलला हम आएंगे, मंदिर वहां बनाएंगे’ जैसे भड़काऊ नारों से देश सिर पर उठा लिया था.
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देखा जाए तो यह, दरअसल, वैदिक कालीन वर्णव्यवस्था का लोकतांत्रिक संस्करण था, जिस में नेतृत्व ऊंची जाति वाले करते हैं. वैश्यों और शूद्रों का काम बाकी काम संभालना होता है. ये वे वर्ग हैं जिन्हें धर्म, राम और हिंदुत्व के नाम पर लड़ने को उकसाया जाता है और फिर धार्मिक हिंसा में मरने छोड़ दिया जाता है. इस के बाद भी राममंदिर पर इन का कोई अधिकार नहीं होता.
प्रसंगवश यह उल्लेख यहां जरूरी है कि भाजपाई राजनीति के लिए पिछड़े और दलित आरएसएस ने मंदिर आंदोलन के जरिए ही जोड़े थे. ब्राह्मणों के वर्चस्व वाली धर्म संसद में गुपचुप ऐसे षड्यंत्रकारी फैसले होते हैं. मसलन, 9 नवंबर, 1989 को जब अयोध्या में विवादित स्थल के पास राममंदिर का शिलान्यास होना था तब बिहार के एक दलित कामेश्वर चौपाल को पहली ईंट रखने का सौभाग्य प्रदान किया गया था. तब मकसद यह जताना था कि यह आंदोलन केवल सवर्ण हिंदुओं का नहीं है.
लेकिन, अब यह सब सवर्ण हिंदुओं का ही है और दलितपिछड़ों की हालफिलहाल कोई सुध नहीं ले रहा है. लेकिन संभावना इस बात की ज्यादा है कि आरएसएस और धर्म संसद दलित पिछड़ों को एकदम नजरअंदाज नहीं करेंगे. ये वर्ग तो इस बात से ही खुश हो जाने वाले हैं कि उन के वर्ग से भी किसी को प्रस्तावित ट्रस्ट में नुमाइंदगी मिल जाए. एकाध पिछड़ों को जगह मिल भी सकती है. लेकिन दबदबा ब्राह्मणों का रहेगा, यह बात साफसाफ दिख रही है.
अब होगा यह कि राममंदिर की भव्यता के तले दलितपिछड़ों की हीनता हमेशा की तरह दब कर रह जाएगी. उन्हें सीधे धकियाया नहीं जाएगा, लेकिन हालात ऐसे कर दिए जाएंगे कि वे खुद ही अयोध्या के राम दरबार का रुख न करें. महंगे मौल्स में, फाइवस्टार होटलों में और सिनेप्लैक्स में मैलाकुचैला गरीब धोखे से भी चला जाए तो उस से अपनी हीन मानसिकता उस से छिपाए नहीं छिपती और वह अपने वर्ग के दूसरे लोगों को इन जगहों पर जाने के नुकसान गिनाता व बताता रहता है.
पंडेपुजारियों का दबदबा
ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब देश के किसी कोने से यह खबर न आती हो कि दलित को मंदिर में प्रवेश से रोका न गया हो और न मानने पर माराकूटा भी न गया हो, दलित दूल्हे को मूर्ति के दर्शन न करने दिए गए हों. ऐसी खबरें आम हैं. ये हादसे और झड़पें इस बात का नवीनीकरण कर जाते हैं कि विष्णु अवतार के मंदिरों में दलितों के प्रवेश पर वैदिक काल से ही रोक है. इधर दलित भी जिद पर अड़े रहते हैं कि पिट लें, जूते खा लें लेकिन मंदिर में जरूर जाएंगे. मानो इस से उन के पाप, जो उन्होंने किए ही नहीं होते, वाकई में धुल जाएंगे और ऊंची जाति वाले उन्हें भैयाभैया कहते गले से लगा लेंगे.
पंडेपुजारियों की निगाह में दलित दलित ही है फिर चाहे वह राष्ट्रपति ही क्यों न हो. आम दलितों की बात तो छोडि़ए, खुद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी मंदिर जाने पर प्रताडि़त, तिरस्कृत और अपमानित किए जा चुके हैं. मार्च 2018 में वे पुरी के नामी जगन्नाथ मंदिर में पत्नी सविता कोविंद के साथ गए थे, तो वहां के सेवादारों ने उन से भी बदसुलूकी करते उन्हें गर्भगृह में नहीं जाने दिया था. सविता के साथ जानबूझ कर धक्कामुक्की भी की गई थी और दोनों के रास्ते में रोड़े अटकाए गए थे.
इस पर राष्ट्रपति भवन के अधिकारियों ने, दिखावे का ही सही, कड़ा एतराज जताते जगन्नाथ मंदिर प्रशासन (एसजेटीए) को कलैक्टर पुरी अरविंद अग्रवाल के जरिए पत्र लिखा था. लेकिन मामले पर जल्द ही लीपापोती कर दी गई थी. इस से साबित यह हुआ था कि मंदिरों में दादागीरी तो पंडों की ही चलेगी. उन की नजर में सर्वोच्च संवैधानिक पद की भी कोई अहमियत नहीं है क्योंकि उस पर दलित समुदाय का व्यक्ति बैठा है.
इसी तरह 17 सितंबर, 2019 को भाजपा सांसद ए नारायणस्वामी को कर्नाटक के टुमकुरु जिले के पारामनाहल्ली के गोल्लकाहट्टी स्थित एक मंदिर में नहीं जाने दिया गया था. यादव जाति के नारायणस्वामी दलित नहीं बल्कि पिछड़े समुदाय से आते हैं जिन्हें टुमकुरु में दलित माना जाता है. चित्रदुर्ग लोकसभा क्षेत्र के ये सांसद महोदय भी अपना सा मुंह ले कर रह गए थे.
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जिस देश में दलित राष्ट्रपति, मंत्री और सांसद तक मंदिर में न घुसने दिए जाते हों वहां आम दलित की हालत क्या होती होगी, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है.
अयोध्या में यह सब नहीं होगा, इस की शायद ही कोई गारंटी ले. मुमकिन है, वहां यह सब अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाए. मकसद हमेशा की तरह यह जताना होगा कि तुम लोग अपने देवीदेवताओं के मंदिरों में जाओ. बड़े मंदिरों में आने से वे अपवित्र हो जाते हैं, इसलिए उन्हें गंगाजल से धोना पड़ता है.
हिंदू धर्म का यह वीभत्स सच कभी किसी सुबूत का मुहताज नहीं रहा कि बड़े मंदिर सिर्फ ऊंची जाति वालों के लिए हैं. सदियों से चली आ रही मान्य हिंदू परंपरा को तोड़ने की कोशिश दलितों के मसीहा भीमराव अंबेडकर ने की थी. 2 मार्च, 1930 को नासिक के कालाराम मंदिर में उन्होंने एक ऐतिहासिक सत्याग्रह किया था, जिस का मकसद हिंदू दलितों को मंदिरों में प्रवेश का अधिकार दिलाना था. इस सत्याग्रह में कोई 15 हजार दलित शामिल हुए थे.
5 वर्षों से भी ज्यादा चले इस सत्याग्रह के दौरान भीमराव अंबेडकर ने तुक की एक बात यह कही थी कि हिंदू इस बात पर भी विचार करें कि क्या मंदिर प्रवेश हिंदू समाज में दलितों के सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाने का अंतिम उद्देश्य है या उन के उत्थान की दिशा में यह पहला कदम है? यदि यह पहला कदम है तो अंतिम लक्ष्य क्या है? दलितों का अंतिम लक्ष्य सत्ता में भागीदारी होना चाहिए.
अफसोस तो इस बात का है कि दलितों को सत्ता में थोड़ीबहुत भागीदारी तो आरक्षण के चलते मिली लेकिन उन की आर्थिक, सामाजिक और दूसरी किसी हैसियत में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है.
राममंदिर से भी भला सवर्णों का ही होना है. दलित तो वहां भी हमेशा की तरह मजदूरी करता नजर आ रहा है और यही काम वर्णव्यवस्था में उसे सौंपा गया है.
अफसोस तो इस बात का भी है कि भाजपा राज में कोई रोजगार और अर्थव्यवस्था सुधारने की बात या पहल नहीं कर रहा. कहीं बड़ी फैक्ट्रियां नहीं बन रहीं, पुलसड़कें, अस्पताल और स्कूल नहीं बन रहे, लेकिन मंदिर इफरात से बन रहे हैं. दिनोंदिन वीभत्स होते इन हालात को देख यही कहा जा सकता है कि भगवान कहीं होता हो तो वही भला करे. नहीं तो, नीचे वाले तो अपनी मनमानी पर उतारू हो ही आए हैं.
श्री रामलला शहर के ढांचागत विकास के लिए पैसा केंद्र सरकार देगी यह कितने अरब या खरब होगा यह अभी स्पष्ट नहीं हुआ है लेकिन यह साफ दिख रहा है कि सरकार कोई कंजूसी या कमी इस में नहीं रखेगी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कोई आर्थिक सीमा निर्धारित नहीं की गई है. अब सरकार आम जनता के खूनपसीने के पैसे से भव्य मंदिर बनवाएगी तो किसी को यह पूछने का हक भी नहीं होगा कि किस हक से और किस के लिए यह अथाह धनराशि मंदिर में जाया की जा रही है और इस से जो रिटर्न मिलेगा उस पर किस का हक होगा और क्या वह सरकारी खजाने में जाम किया जाएगा. दूसरी तरफ रामलला ट्रस्ट भी मंदिर निर्माण के लिए आम लोगों से पैसा जुटाने की बात कह चुका है यानी लूट दोहरी होगी.