सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर में अफस्पा को ले कर जो फैसला सुनाया, उस से शर्मिला इरोम चानू की लंबी लड़ाई और उन का संघर्ष एक हद तक सफल हुआ. अफस्पा और सेना के अत्याचारों के खिलाफ पिछले 16 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी आयरन लेडी इरोम चानू शर्मिला ने भूख हड़ताल कर के चुनाव लड़ने का फैसला लिया है. सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून 1958 (अफस्पा) के तहत सेना की मनमानी और ऐक्ट के बेजा इस्तेमाल पर कोर्ट ने नाराजगी जाहिर की. मणिपुर में सुरक्षा और चौकसी बनाए रखने के लिए सेना को अफस्पा के तहत विशेषाधिकार दिए गए हैं. लेकिन समयसमय पर राज्य में शक के आधार पर किसी को भी उठा लेना और पूछताछ के बहाने बलात्कार व बेरहमी से पिटाई को ले कर असंतोष लंबे समय से पनपता रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने 2 दशकों में 1,528 फर्जी एनकाउंटर के मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र समिति बनाने को भी कहा है. यह कभी बनेगी और रिपोर्ट देगी, इस का भरोसा नहीं है.

सेना की ज्यादतियों को ले कर मणिपुर मानवाधिकार संगठन और सेना के ‘व्याभिचार’ के खिलाफ सुरेश कुमार सिंह द्वारा दायर किए गए मामले की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकार के अलावा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भी रिपोर्ट तलब की है. अदालत को सरकार यह भी बताए कि प्रभावित परिवार को हर्जाना दिया गया है या नहीं, दिया गया है तो कितना दिया गया है. साथ में, यह भी कि हर्जाना दिए जाने के बाद सरकार की ओर से और क्या कदम उठाए गए हैं. उधर, वादीपक्ष को सेना पर लगाए गए आरोप के तमाम सुबूतों को अदालत में पेश करने का निर्देश दिया गया है.

अफस्पा के खिलाफ विरोध प्रदर्शन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खियां बनता रहा है. लगभग डेढ़ दशक से नाक में राइल्स ट्यूब लगाए शर्मिला इरोम की तसवीर से दुनिया वाकिफ है. मणिपुर की एक और तसवीर दुनिया ने देखी है, जो 12 साल पुरानी बात है. मणिपुर के विख्यात कांगला फोर्ट के सामने ‘इंडियन आर्मी रेप अस’ लिखे एक सफेद बैनर के पीछे मणिपुर की मांबहनों को बगैर कपड़े दुनिया ने देखा है. मणिपुर में अफस्पा के खिलाफ यह विरोध प्रदर्शन लंबे समय से चला आ रहा है. 1958 में उत्तरपूर्व भारत में अफस्पा लागू किया गया. मणिपुर समेत असम, त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश में यह जारी किया गया था, जो आज भी जारी है.

क्या है अफस्पा कानून

यह कानून 1958 में बनाया गया था. अफस्पा कानून में सशस्त्र बल को विशेष अधिकार दिया गया है. इस कानून के प्रभाव वाले क्षेत्र में सैन्य बल किसी व्यक्ति की बिना वारंट तलाशी या फिर गिरफ्तार कर सकता है. सेना किसी के भी घर में घुस सकती है. कानून तोड़ने वालों के खिलाफ सेना फायरिंग भी कर सकती है और फायरिंग करने वाले के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्यवाही नहीं होती. भले ही इस फायरिंग से किसी निर्दोष व्यक्ति की जान ही क्यों न चली जाए.

मणिपुर के मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि पिछले 58 सालों में सेना के जवानों ने सुरक्षा के नाम पर केवल शक के बिना पर हजारों बेकुसूर लोगों की हत्या की है. राज्य की महिलाओं का बेरहमी से बलात्कार कर उन की हत्या कर दी गई है. अब तक बलात्कार की शिकार बहुत सारी महिलाओं ने आत्महत्या कर ली है. आत्महत्या करने वाली महिलाओं में शर्मिला की करीबी दोस्त भी हैं. पहली बार सेना पर ज्यादती का आरोप 2 नवंबर, 2000 में लगा. मणिपुर की इंफाल की घाटी में एक छोटा सा गांव है मालोम. असम राइफल्स के जवानों ने गांव के बस स्टौपेज में खड़े बेकुसूर लोगों को शक के आधार पर गोलियों से भून डाला. यह घटना मालोम गांव नरसंहार के रूप में जानी जाती है. इन 10 लोगों में 62 साल की एक महिला के साथ 18 साल का नौजवान शामिल था. 18 साल के सिनाम चंद्रमणि को 1988 में बहादुर बच्चे का राष्ट्रीय पुरस्कार हासिल था. इस घटना की खबर जब अगले दिन अखबार में प्रकाशित हुई तो पूरे मणिपुर में जैसे आग लग गई.

अगले दिन बृहस्पतिवार था. अखबार में प्रकाशित इस नरसंहार की तसवीर देख 28 साल की शर्मिला इरोम चानू का दिल दहल गया. नरसंहार के विरोध के तौर पर असम राइफल्स को वापस बुलाने और अफस्पा को हटाने की मांग को ले कर वे आमरण अनशन पर वह बैठ गईं. तब धारा 309 के तहत आत्महत्या करना एक अपराध था. हिरासत में शर्मिला की हालत बिगड़ती चली गई. तब पुलिस ने अस्पताल में भरती कराया. तब से शर्मिला की नाक में राइल्स ट्यूब लगी, जो 2014 में धारा 309 के निरस्त होने के बाद ही खुली. 10 जुलाई, 2014 को इंफाल के बामोन कंपू गांव की 32 वर्षीय थंगजाम मनोरमा को असम राइफल्स के जवानों ने पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की सहयोगी होने के शक पर उठा लिया. अगले दिन गोलियों से छलनी उस का शव घर से 4 किलोमीटर दूरी पर मिला. पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में उस के साथ गैंगरेप की बात कही गई थी. मनोरमा की स्कर्ट में कई लोगों के वीर्य भी पाए गए थे. बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई में जो कुछ हुआ, उस से मनोरमा की मां और उस का भाई, शर्मिला और उस का परिवार खुश हैं. दरअसल, इन सभी राज्यों में गैर हिंदू रहते हैं. ईसाई बैपिस्ट मिशनरियों के आने के पहले वे कभी बर्मी तो कभी तिब्बती राजाओं के अधीन रहते थे. वरना आमतौर पर बिलकुल स्वतंत्र कबीले में, जिन की अपनी लिखत गाथा न थी. इन का काम जंगलों से चलता था और कभीकभार असम के क्षेत्रों में लेनदेन के लिए आते थे. जिस तरह हिंदू राजा कभी दलितों, शूद्रों को अपना न बना पाए, आज के शासक भी इन्हें पुश्तैनी शत्रु ही मान रहे हैं और पूरे उत्तरपूर्व में हो रहे विद्रोह के पीछे यही वजह है.

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