अमेरिका में रंगभेद विवाद अब फिर तूल पकड़ रहा है. पिछले कई सालों से गोरे पुलिस वाले काले युवाओं को, केवल शक पर, गोली मारते रहे हैं और अमेरिकी जेलें कालों से भरी पड़ी हैं. हर 3 अश्वेतों में से 1 अश्वेत जीवन में कभी न कभी जेल में रह आता है. ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ आंदोलन तेजी से जोर पकड़ रहा है और लाखों गोरों का सहयोग मिलने के बावजूद गोरे पुलिस वाले हर काले युवा को गुंडा, हत्या का इरादा करने वाला मान रहे हैं.

पुलिस के प्रति बढ़ती घृणा अब गहरे प्रतिशोध की जगह लेने लगी है. एक पूर्व सैनिक ने अकेले डलास शहर में उस समय 5 गोरे पुलिस वालों को गोली मार डाली जब वहां ‘ब्लैक लाइव्ज मैटर’ प्रदर्शन हो रहा था. मिका जेवियर जौनसन पुलिस की गोलियों से मारा गया. पुलिस को शक है कि उस के साथ 3 और अश्वेत आतंकवादी थे जिन्हें गिरफ्तार कर लिया गया है.

अमेरिका में डेढ़ सौ साल पहले हुए गृहयुद्ध में कालों को गुलामी से मुक्ति दिलाई गई थी पर सच यह है कि अमेरिकी समाज ने उसी तरह कालों के साथ व्यवहार किया जैसा हमारे यहां दलितों के साथ होता है. आज भी श्वेत पुलिस वाले हर अश्वेत युवा को पैदाइशी गुंडा मानते हैं और यदि न्याय की मांग करते हुए अश्वेत युवा ने कुछ कह दिया तो उसे गोली मारने से हिचकते नहीं हैं.

अमेरिका में अश्वेतों की आबादी 12.43 फीसदी है पर जेलों में बंद 35 फीसदी कैदी अश्वेत हैं. अमेरिका के 30-39 वर्ष की आयुवर्ग के 1 फीसदी श्वेत जेलों में हैं जबकि अश्वेत 6 फीसदी हैं. 2010 से 2012 के दौरान 1,217 अश्वेत पुलिस अफसरों द्वारा गोली से मारे गए थे. हर 20 लाख युवाओं और किशोरों में से 62 काले पुलिस की गोली के शिकार हुए जबकि हर 20 लाख गोरों में से केवल 3 गोरे ही पुलिस द्वारा मारे गए.

डलास में हुए हत्याकांड ने गोरे-कालों का भेद और ज्यादा गंभीर बना दिया है. वैसे ही दुनिया बारूद के ढेर पर बैठी है, जिहादियों ने जता दिया है कि लोकतांत्रिक अधिकारों से ज्यादा जोर की आवाज तो बंदूकों की होती है. जिस तरह से लाखों युवाओं ने पश्चिमी एशिया में तकनीकी आधुनिक सुविधाओं के बदले जान को जोखिम में डालने वाले जिहादी कैरियर को खुशीखुशी और अकारण अपनाया है उस से साफ है कि आज का युवा इस समाज से बुरी तरह खफा है.

भारत में कश्मीर में बुरहान वानी की सैनिकों द्वारा हत्या किए जाने के बाद जो उफान आया है उस की हवा वही है जो पश्चिमी एशिया में है या अमेरिका में है. दुनिया की बुढ़ाती पीढ़ी आज की नई पीढ़ी का रोष नहीं समझ पा रही. उस पीढ़ी ने पैसे पर भी कब्जा कर रखा है और पावर पर भी. अब एक और युवा क्रांति की लपटें उठने लगीं हैं अलगअलग देशों में अलगअलग तरह से.

युवाओं को सही पाठ पढ़ाने वाला अब कोई नहीं बचा. जो समाजसेवा कर सकते थे, ऊंचे कैरियर के चक्कर में वे कंपनियों में जा बैठे हैं. पैसा, बड़े मकान, बड़ी गाडि़यां कुछ के जीवन के ऐसे अंग बन गए हैं कि घर के बाहर उग रही जहरीली घास उन्हें दिख ही नहीं रही, हिंसा का फैलता व्यापार उन्हें महसूस नहीं हो रहा. उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर से ले कर डलास तक बात एक ही है. युवाआक्रोश काबू से बाहर है.

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