सब चले गए तो अरुणा बिखरा घर सहेजने लगी और आलोक आरामकुरसी पर पसर गया. उस ने कनखियों से अरुणा को देखा, क्या सचमुच उसे सुघड़ और बहुत अच्छी पत्नी मिली है? क्या सचमुच उस के दोस्तों को उस के जीवन पर रश्क है? उस के मन में अंतर्द्वंद्व सा चल रहा था. उसे अरुणा पर दया सी आई. 2 माह होने को हैं. उस ने अरुणा को कहीं घुमाया भी नहीं है. कभी घूमने निकलते भी हैं तो रात को.
अरुणा ने हैरानी से उसे देखा और फिर खामोशी से तैयार होने चल पड़ी. थोड़ी देर में ही वह तैयार हो कर आ गई. जब वे नरेश के घर पहुंचे तो अंदर से जोरजोेर से आती आवाज से चौंक कर दरवाजे पर ही रुक गए. नरेश चीख रहा था, ‘‘यह घर है या नरक, मेरे जरूरी कागज तक तुम संभाल कर नहीं रख सकतीं. मुन्ने ने सब फाड़ दिए हैं. कैसी जाहिल औरत हो, कौन तुम्हें पढ़ीलिखी कहेगा?’’
‘‘जाहिल हो तुम,’’ सोनिया का तीखा स्वर गूंजा, ‘‘मैं तुम्हारी नौकरानी नहीं हूं जो तुम्हारा बिखरा सामान ही सारा दिन सहेजती रहूं.’’
बाहर खड़े अरुणा और आलोक संकुचित से हो उठे. ऐसे हालात में वे कैसे अंदर जाएं, समझ नहीं पा रहे थे. फिर आलोक ने गला खंखार कर दरवाजे पर लगी घंटी बजाई. दरवाजा सोनिया ने खोला. बिखरे बाल, मटमैली सी सलवटों वाली साड़ी और मेकअपविहीन चेहरे में वह काफी फूहड़ और भद्दी लग रही थी. आलोक ने हैरानी से सोनिया को देखा. सोनिया संभल कर बोली, ‘‘आइए... आइए, आलोकजी,’’ और वह अरुणा का हाथ थाम कर अंदर ले आई.