चिकित्सा के उन्नत कहे जाने वाले युग को ऐसा कहा भी जाए या नहीं, कुछ घटनाएं घटते समय यह प्रश्न खड़ा कर देती हैं. वे घटनाएं आएदिन घट कर चिकित्सकों को तो अपना अभ्यस्त बना देती हैं लेकिन उन की कसमसाहट मिनटों, घंटों या कुछ दिनों तक ही सीमित रह जाती है. हद से हद फुरसत के क्षणों में कोई इक्कादुक्का डाक्टर उन्हें अपनी डायरी के पन्नों पर उतार लेता है. परंतु जिन के साथ वे घटी होती हैं उन के सीने में तो दर्द की स्थायी कील गाड़ देती हैं. विद्या दी अदने से मच्छर के कारण हुए डेंगू में अपने 10 वर्षीय बेटे को खो कर अपने सीने में दर्द की ऐसी ही अनगिनत कीलें गाड़ लाई थीं.

विवाह के कई वर्ष बाद, ऐलोपैथी, होम्योपैथी, गंडेतावीज, झाड़फूंक और निरी मन्नतों की बैसाखियों पर चढ़ कर पैदा हुआ था वह. दुख का उत्पीड़न सहती विद्या दी अपना मानसिक संतुलन लगभग खो ही बैठी थीं. 3 बहनों में सब से बड़ी विद्या दी की ऐसी अवस्था देख मझली सारिका ने अपना नवजात शिशु, जो उस की दूसरी संतान था, विद्या दी की गोद में डाल कर उन्हें उन के करोड़ों के व्यवसाय का उत्तराधिकारी दे दिया. बेटे को खो देने के दुख को, बेटा पा कर विद्या दी तहखानों के ढीठ अंधेरों में धकेल आईं. आरंभिक उदास, संकोची सी खुशी कुछ ही दिनों में उन के बुझे हुए चेहरे पर उन्मुक्त हो कर खिलखिला उठी.

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इसे विडंबना ही कहेंगे कि तीनों बहनों में छोटी जूही के विवाह के 10 बरस बाद भी संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था. ताउम्र निसंतान रह जाने से पतिपत्नी ने किसी बालक को गोद ले लेना बेहतर समझा. घर वाले विद्या दी की तरह ही किसी नातेदार के बच्चे को गोद लेने पर जोर देने लगे. परंतु उस दंपती के विचार में उस बच्चे को जिस दिन से उन रिश्तेदारों का अपने मातापिता होना पता चलेगा उसी दिन से वे दोनों उस के नाममात्र के ही मातापिता रह जाएंगे उन्होंने किसी ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेने का निश्चय किया जो उन की गोद में आने के बाद किसी और का न रह जाता हो.

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