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नरेश ने घूर कर खालिद को देखा फिर अगले ही पल माहौल देखते हुए होंठों पर वही मुसकराहट ले आया.

‘‘पारुल, चिंटू को जरा गलत नजर वालों से बचा कर रखो,’’ आशा ने जया को घूरते हुए कहा. उन दोनों की बिलकुल नहीं पटती थी. दोनों के पति एक ही दफ्तर में काम करते थे. दोनों के आपस में मिलनेजुलने वाले करीबकरीब वही लोग होते थे.इसलिए अकसर इन दोनों का मिलनाजुलना होता और एक बार तो अवश्य तूतू, मैंमैं होती.

‘‘कैसी बातें करती हो, आशा? यहां कौन पराया है? सब अपने ही तो हैं. हम ने चुनचुन कर उन्हीं लोगों को बुलाया है जो हमारे खास दोस्त हैं,’’ पारुल ने हंसते हुए कहा.

तभी अचानक उसे याद आया कि पार्टी शुरू हो चुकी है और उस ने अब तक अपनी सास को बुलाया ही नहीं कि आ कर पार्टी में शामिल हो जाएं. वह अपनी सास के कमरे की ओर भागी. यह सब सास से प्यार या सम्मान न था बल्कि उसे चिंता थीकि मेहमान क्या सोचेंगे. उस ने देखा कि सास तैयार ही बैठी थीं मगर उन की आदत थी कि जब तक चार बार न बुलाया जाए, रोज के खाने के लिए भी नहीं आती थीं. कदमकदम पर उन्हें इन औपचारिकताओं का बहुत ध्यान रहता थादोनों बाहर निकलीं तो मेहमानों ने मांजी को बहुत सम्मान दिया. औरतों ने उन से निकटता जताते हुए उन की बहू के बारे में कुरेदना चाहा.मगर वे भी कच्ची खिलाड़ी न थीं. इधर पारुल भी ऐसे जता रही थी मानो वह अपनी सास से अपनी मां की तरह ही प्यार करती है. यह बात और है कि दोनों स्वच्छ पानी में प्रतिबिंब की तरह एकदूसरे के मन को साफ पढ़ सकती थीं

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