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लेखिका- छाया श्रीवास्तव

‘‘तो ठहरिए साहब, हम बाजार से दूसरे ले कर आते हैं, तब तक ठहरना होगा,’’ मुकेश उठता हुआ बोला.

‘‘नहीं, भाईसाहब. आप बैठिए, अंदर से तो आ रहे हैं थाल.’’

‘‘अरे, ये सब तो शगुन के थाल आदि लड़की वाले के यहां से ही आते हैं, थोड़ा रुक लेते हैं.’’

‘‘नहीं भैया, मैं यह सब अब न ले सकूंगा. जो लिस्ट आप लोगों ने बना कर भेजी थी और जो ये लोग देने वाले हैं. आप जानते ही हैं कि लड़कियों को अपने मायके की एकएक चीज कितनी प्यारी होती है, परंतु जिस घर में ऐसी उदारमना स्त्री हो जो खुशी से अपना सारा दहेज खुद दान कर रही हो उसे ले कर मैं उस उदार स्त्री से छोटा नहीं बन सकता. इस से मैं इन कपड़ों आदि के अलावा अब कोई कोई चीज स्वीकार नहीं करूंगा. मैं अब इस के अलावा आगे कुछ नहीं लूंगा. बिना दहेज के ही उस घर की बेटी ब्याह कर लाऊंगा.

‘‘मैं तो पहले ही भैया, जीजाजी से अनुरोध कर रहा था कि इतना लंबाचौड़ा दहेज मांग कर कन्यापक्ष को आफत में न डालें. अब जो हुआ सो हुआ, आगे कोई मु झे विवश न करे. बस, ये लोग साथ गए बरातियों का अच्छा स्वागत कर दें, वही काफी होगा.’’ पिताजी, बड़े भाई और बहनोई ने यह सुना तो सन्न रह गए. परिवार के अन्य सदस्य भी दौड़े आए. हर प्रकार सम झाया, परंतु संजय अपनी प्रतिज्ञा से नहीं डिगा. घर वालों को कोपभाजन बनने पर उस ने धमकी दे दी कि वे यदि तंग करेंगे तो वह कोर्टमैरिज कर सब की छुट्टी कर देगा. विवशता में उन सब को पीछे हट कर अपनी स्वीकृति देनी पड़ी.

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