जब कभी छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर क्षेत्र की बात होती है तो मनमस्तिष्क में पहली छवि यहां चर्चा में रहने वाले नक्सली उग्रवाद की उभरती है. देश का यह हिस्सा प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर है. यह देश के सब से गरीब जिलों में से भी एक है. इस के लिए यहां बनने वाली सरकारों द्वारा इस क्षेत्र की जनता की घोर उपेक्षा जिम्मेदार है. बहरहाल, जीवन के सांस्कृतिक तौरतरीकों और दुनिया द्वारा अभिकल्पित विकास के मध्य फंसे जनजातीय लोग अपनी सांस्कृतिक जड़ों को बचाने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं. इसी कड़ी में एक प्रयास है ‘बस्तर बैंड’ की स्थापना.

बस्तर बैंड एक ऐसा संगीत दल है जो छत्तीसगढ़ की प्रदर्शन, कलाओं और संगीत का प्रतिरक्षण और प्रसार करने के लिए पिछले एक दशक से जुटा हुआ है. यह ग्रुप क्षेत्र के अत्यंत खराब समकालीन माहौल के बावजूद अपने मिशन में जुटा है. यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां हर ओर गोलियों की बौछार होती रहती है और बुरी तरह से हिंसाग्रस्त है, जिस ने सामान्य जीवन व परिस्थितियों को भी अत्यंत दयनीय बना दिया है.

बस्तर बैंड की स्थापना का श्रेय छत्तीसगढ़ के ही बिलासपुर जिले के रहने वाले अनूप रंजन पांडेय को जाता है, जो रंगमंच के कलाकार रह चुके हैं. अनूप कहते हैं कि इस बैंड की स्थापना के पीछे मेरे 2 उद्देश्य थे. पहला यह कि इस के माध्यम से परंपरागत, जनजातीय संगीत और विलुप्त हो रहे स्थानीय दुर्लभ प्राचीन वाद्ययंत्रों का संरक्षण किया जा सके और दूसरा नक्सल उग्रवाद की ओर तेजी से उन्मुख हो रहे यहां के जनजातीय युवकों को प्राचीन जनजातीय संगीत व वाद्ययंत्रों का प्रशिक्षण दे कर इस क्षेत्र के लोगों में प्रेम, शांति और भाईचारे का संदेश फैलाया जा सके. इस संगीत बैंड के अधिकतर सदस्य अशिक्षित और यहीं के सुदूर गांवों के रहने वाले हैं. अपने प्रदर्शन के लिए यात्रा करने पर उन में से अधिकतर ने अपने जीवन में पहली बार अपने गांव से बाहर कदम रखा और अपनी जिंदगी में पहली बार रेल को देखा.

अनूप कहते हैं कि मैं ने बस्तर को शांत क्षेत्र से भीषण अशांत क्षेत्र में बदलते देखा है और यही इस उद्देश्य का सब से बड़ा कारण बन गया. बिगड़ती शांति व्यवस्था और प्रदर्शन कलाओं के क्षय ने इन के संरक्षण के लिए मुझे उकसाया और बस्तर बैंड की स्थापना के लिए प्रेरित किया. बैंड में इस क्षेत्र के मुरिया, दंदामी मुरिया, धुरवा, भतरा, डोरला, मुंडा और हलबा जनजातियों के कलाकार शामिल हैं. नृत्य बस्तर जिले में जनजातीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है. यहां अनेक प्रकार की नृत्य कलाएं विद्यमान हैं, जिन में सैला, सुबा और करमा नृत्य शामिल हैं. सभी लोकनृत्यों में जटिल पद संचालन होता है, जो मजबूती से यहां के जमीनी जुड़ाव को दर्शाता है. बैंड की स्थापना के लिए पांडेय ने विषम परिस्थितियों में क्षेत्र के सूदूर भागों की यात्राएं कीं और कलाकारों को बैंड के उद्देश्य के लिए राजी किया. वे कहते हैं कि बैंड की सफलता का श्रेय इस के सदस्यों को भी जाता है जिन्होंने उन पर विश्वास किया और अत्यंत कठिन और हिंसाग्रस्त परिस्थितियों में भी बैंड से जुडे़ रहे. बैंड का उद्देश्य है, ‘बंदूक छोड़ो, ढोल पकड़ो’ क्योंकि जहां बंदूक जीवन को बरबाद करती है, वहीं ढोल जीवन विस्तार देता है.

बैंड के सदस्यों का मानना है कि जोखिम तो हर काम में है. लेकिन यदि जोखिम किसी अच्छे काम जैसे सामाजिक उपचार के लिए संगीत से जुड़ा है तो यह सब को स्वीकार होना चाहिए. इस बात को पूरे दल ने अपनाया भी है.

बैंड के कलाकार अधिकतर चमकदार, रंगीन कपड़े, गहने और पगड़ी पहनते हैं, जो जनजातीय संस्कृति को परिरक्षित करता है. बैंड के कलाकार पहले से ही रंगीन सुंदर नृत्य को और आकर्षक बनाने के लिए अपने शरीर पर घुंघरुओं और छोटीछोटी घंटियों को बांधते हैं जिन का मनमोहक कलरव वातावरण को जीवंत बना देता है. वास्तव में इस ग्रुप को तैयार करने में पांडेय को 2 दशक लग गए. उन्होंने यह सारा समय वाद्ययंत्रों को एकत्र करने में गुजारा. इन वाद्ययंत्रों को जनजातीय लोग सदियों से उपयोग में ला रहे हैं और अपनी आने वाली संतति के लिए बचा कर रखते हैं.

पांडेय की यह यात्रा उन्हें जनजातियों के हृदयस्थलों रायपुर से दंतेवाड़ा और नारायणपुर से कोंडागांव और राजनंदगांव तक दूरस्थ सीमाओं तक ले गई, जहां उन्होंने इस संगीत भूमि को खोजा. उन के इस अथक शोध का अनुकरण करते हुए पुनरुत्थानवादी बस्तर जनजातियों की खोई हुई सांस्कृतिक पहचान को वापस पाने का प्रयास कर रहे हैं. अपने अनुभवों को साझा करते हुए पांडेय बताते हैं कि अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने करीब 26 साल पहले ‘जनजातीय संगीत के लिंगो देव’ की गाथा सुनी थी. उन की गाथा सुनाने में 18 प्रकार के दुर्लभ वाद्ययंत्र बजाए जाते थे. यह परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर थी क्योंकि इस का प्रदर्शन करने वाले समुदायों के कुछ बुजुर्गों के अलावा जातीय समुदायों की नई पीढ़ी में इस संगीत की कोई याद नहीं बची थी. इसलिए उन्होंने संगीत की इस शैली को जीवंत करने का निश्चय किया.

इन 110 दुर्लभ छत्तीसगढ़ीय वाद्ययंत्रों के संग्रह में से अधिकतर ताल देने वाले वाद्ययंत्र हैं, जिन में कंधे से क्षैतिज लटकता हुआ लंबा ढोल, अर्धगोलाकार स्थैतिक ढोल, छोटा ढोल, मटके पर मढ़ा हुआ सूप, जिस पर स्त्रियां एक लय में थाप दे कर पश्चिमी ड्रमों की भांति धुन बजाती हैं, प्रमुख हैं. 125 सदस्यों का यह समूह कम से कम 50 प्राचीन वाद्ययंत्रों को और लगभग 150 गीतों को सारे देश में विभिन्न स्थलों पर गाता और बजाता है. अनूप रंजन पांडेय जो प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक हबीब तनवीर के साथ विश्व प्रसिद्ध ‘हे मोर्केट’ थिएटर लेसेस्टर, इंगलैंड और ट्रांबे थिएटर लासगो, स्कौटलैंड में मुख्य नायक की भूमिका का प्रदर्शन कर चुके हैं, इस नृत्य नाटक की शैली ‘नाचा’ के भी पारंगत हैं. पांडेय बेंत से बना वाद्ययंत्र ‘चरहे’ भी बजाते हैं, जिसे इन्होंने दल के सदस्यों से सीखा.

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शन कर चुके इस थिएटर कलाकार को राज्य की मरती कला एवं संस्कृति को जीवंत बनाने के लिए अनेक पुरस्कारों जैसे ‘छत्तीसगढ़ भूषण सम्मान’ और ‘छत्तीसगढ़ दिवस सम्मान’ से भी पुरस्कृत किया जा चुका है. बस्तर बैंड की प्रस्तुतियों को देशभर में जबरदस्त सराहना मिली है. यह देश के सभी भागों में अपनी प्रस्तुति देने के अतिरिक्त भारत के महामहिम राष्ट्रपति, छत्तीसगढ़ के राज्यपाल और मुख्यमंत्री जैसे गण्यमान्य व्यक्तियों के समक्ष भी अपनी कला का प्रदर्शन कर चुका है. नई दिल्ली में 2010 के कौमनवैल्थ खेलों के दौरान इस का प्रदर्शन अद्भुत था. इस बैंड ने शांति के लिए भी एक नारा दिया है. थिएटर के लोक कलाकार कहते हैं कि छत्तीसगढ़ में ढोल से ज्यादा बंदूकें हैं. ‘हम ढोल के माध्यम से वैसी ही शांति फैलाना चाहते हैं, जैसी इस बैंड के संगीत में है.’

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