2015 में रिलीज हुई कई भारतीय फिल्मों पर पाकिस्तान में प्रतिबंध लगाया गया. फिल्म ‘कलेंडर गर्ल’ पर रोक लगाई गई और फिल्म ‘फैंटम’ को सिनेमा हौल्स में दिखाने से इनकार किया गया. पाकिस्तान की इस पाबंदी की काफी चर्चा रही. चूंकि यह रोक पाकिस्तान सरकार की तरफ से लगाई गई, इसलिए सवाल पैदा हुआ कि क्या वहां के लोग भारतीय फिल्में और टीवी सीरियल्स पसंद करते हैं?
भारतीय फिल्मों के शौकीन हैं पाकिस्तानी
यह हैरानी की बात है कि पाकिस्तानी अपने देश में बनी फिल्मों और टीवी सीरियल्स से ज्यादा भारत में निर्मित हिंदी फिल्मों और टीवी पर प्रसारित होने वाले धारावाहिकों के शौकीन हैं. यह भी एक सच है कि आपसी रिश्ते सुधारने के लिए सरकारी स्तर पर भारतपाकिस्तान के बीच जिन चीजों का सहज आदानप्रदान पिछले अरसे में होना शुरू हुआ था, उन में एक हिस्सा बौलीवुड की फिल्मों का भी था, जिन के दर्शकों की एक बड़ी तादाद पाकिस्तान में मौजूद है. 1965 के भारतपाक युद्ध के बाद के 4 दशकों के दौरान जब तक इस पर पाकिस्तान की तरफ से पाबंदी थी, हिंदुस्तानी फिल्मों की पाइरेटेड सीडीडीवीडी वहां चोरीछिपे पहुंचती रही हैं. यही नहीं, जब भी मौका मिला, लाहौरइस्लामाबाद के सिनेमाघर मालिकों ने भी भारतीय फिल्मों की बदौलत खूब कमाई की. इस बीच परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में यह रोक हटा दी गई थी और वहां बौलीवुड की फिल्में पहुंचने लगी थीं, लेकिन अब यह सिलसिला एक बार फिर रुकता प्रतीत हो रहा है.
दरअसल, 2013 में पाकिस्तान के सूचना व प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन को इस दलील के साथ अनापत्ति प्रमाणपत्र देना बंद कर दिया था कि इस संबंध में नए कानून व दिशानिर्देश तैयार किए जा रहे हैं, इसलिए फिलहाल भारतीय फिल्में पाकिस्तान में प्रदर्शित करना गैरकानूनी होगा. इस बीच ‘बजरंगी भाईजान’ जैसी कुछ फिल्मों को वहां के सिनेमाघरों में दिखाने की इजाजत भी दी गई, पर अन्य फिल्मों से प्रतिबंध नहीं हटा. जैसे 2015 में रिलीज फिल्म ‘कलेंडर गर्ल’ को वहां दिखाने से इसलिए रोक दिया गया कि पाकिस्तानी सैंसर बोर्ड को इस फिल्म के एक संवाद पर एतराज था, जिस में पाकिस्तानी लड़की नाजरीन मलिक का किरदार निभाने वाली अदाकारा अवनी मोदी कहती हैं कि पाकिस्तानी लड़कियां भी उतना ही बोल्ड काम करती हैं जितना बाकी लड़कियां करती हैं, बल्कि कभीकभी उस से ज्यादा भी. इसी तरह फिल्म ‘फैंटम’ में आतंकी हाफिज सईद जैसी भूमिका निभाने वाले पात्र के संवादों को आपत्तिजनक बता कर इस के प्रदर्शन पर रोक लगाई गई.
नुकसान पाक सिनेमा मालिकों का
पाकिस्तान के इस कदम से बौलीवुड को चाहे नुकसान हो या न हो लेकिन पाकिस्तान के सिनेमाघर मालिकों को करोड़ों की चपत लग रही है. इस की वजह है कि उन का असली कारोबार हिंदुस्तानी फिल्मों की बदौलत ही चलता है. वे भी नहीं चाहते कि इस रोक की वजह से मुंबइया फिल्मों के पाकिस्तान आने के चोर रास्ते खुलें यानी चोरीछिपे सीडीडीवीडी आने लगें और उन के सिनेमाघर कंगाली की हालत में पहुंच जाएं.
इधर, पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान में भी सिनेमा उद्योग द्वारा सिनेप्लैक्स आदि के निर्माण में भारी निवेश किया गया है और उन की ज्यादातर कमाई भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर टिकी है. ऐसी स्थिति में यदि भारतीय फिल्में वहां वैध तरीके से नहीं पहुंचतीं और दिखाई जाती हैं तो इस से पाकिस्तान के सिनेमा उद्योग को भारी नुकसान हो सकता है, क्योंकि यह एक सचाई है कि पाकिस्तानी सिनेमाघरों का कारोबार लाख कोसने के बावजूद भारतीय हिंदी फिल्मों के भरोसे ही चलता रहा है. वहां के सिनेमाघर मालिक खुलेतौर पर स्वीकार करते रहे हैं कि अगर मुंबइया फिल्में न हों तो उन के सिनेमाघरों पर ताले पड़ जाएं.
पाकिस्तानी सिनेमाघरों में अकसर तभी रौनक रहती है, जब वहां कोई भारतीय फिल्म चल रही हो. ईद जैसे मौके पर भी पाकिस्तानी सिनेमाघरों को आमतौर पर कोई देसी फिल्म नहीं मिल पाती है और मजबूरी में वहां भारतीय फिल्में चलाई जाती हैं. जैसे कुछ साल पहले ईद के मौके पर ‘चेन्नई ऐक्सप्रैस’ की धूम थी, तो 2015 में ‘बजरंगी भाईजान’ छाई हुई थी. ईद पर जब कोई भारतीय फिल्म उन्हें नहीं मिल पाती है, तो उन्हें औसत दर्जे की फिल्मों से काम चलाना पड़ता है. जैसे 2012 में वहां के सिनेमाघरों को देसी फिल्म के नाम पर ‘शेर दिल’ से काम चलाना पड़ा था और 2011 में ईद के मौके पर पंजाबी फिल्में ‘शरीका’ और ‘गुज्जर दा खड़ाक’ दिखाई गई थीं.
अच्छी फिल्में न मिल पाने की हालत में चूंकि सिनेमाघर मालिकों को नुकसान होता है, इसलिए वे किसी तरह से नई भारतीय फिल्मों का जुगाड़ कर लेते हैं और उन्हें चलाते हैं. नई फिल्मों को तरसते पाकिस्तान के सिनेमाघर मालिकों को इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे हिंदुस्तानी फिल्म दिखा रहे हैं या पाकिस्तानी, क्योंकि वहां के दर्शक आसानी से हिंदी समझ लेते हैं. भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन के मामले में वहां के सिनेमाघर मालिक कहते हैं कि जिस तरह देश में अनाज की कमी होने पर उसे विदेशों से मंगाया जाता है, उसी तरह अच्छी पाकिस्तानी फिल्मों की भारी किल्लत उन्हें मुंबइया फिल्मों की तरफ मोड़ती है.
परवेज मुशर्रफ बनाम मुबशिर लुकमान
उल्लेखनीय है कि पिछली बार 2006 में परवेज मुशर्रफ के शासनकाल में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर लगी रोक हटाई गई थी. हिंदी फिल्म ‘ताजमहल : द इंटरनल लव स्टोरी’ का वहां के सिनेमाघरों में प्रदर्शन शुरू किया गया था और कुछ पुरानी फिल्मों, ‘सोहनी महिवाल’ और ‘मुगले आजम’ के व्यावसायिक प्रदर्शन की इजाजत पाकिस्तान के सैंसर बोर्ड ने दी थी. यह सिलसिला बौलीवुड हिट ‘चेन्नई ऐक्सप्रैस’ तक बदस्तूर कायम रहा है. इस के फौरन बाद पाकिस्तान की अदालत और पाक सैंसर बोर्ड की ओर से दोबारा पाबंदियां लगा दी गईं. इस के पीछे भारतीय फिल्मों के विरोधी पाक फिल्म निर्माता मुबशिर लुकमान का हाथ बताया जाता है. मुबशिर लुकमान का तर्क है कि मुंबइया फिल्मों के प्रसारण की वजह से पाकिस्तान के फिल्म उद्योग को घाटा होता है. इस से वहां की फिल्म इंडस्ट्री आगे नहीं बढ़ पा रही है.
मुबशिर की याचिका पर नवंबर, 2013 में लाहौर हाईकोर्ट ने कार्यवाही करते हुए पूरे देश में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी थी. इस बारे में कहा गया था कि पाकिस्तान के सिनेमाघर मालिक अवैध दस्तावेजों के आधार पर देश में भारतीय फिल्में चला रहे हैं, लिहाजा, इस की इजाजत नहीं दी जा सकती. कुछ राजनीतिक हस्तियां भी पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों के प्रदर्शन का विरोध यह कह कर करती रही हैं कि ये फिल्में वहां के सांस्कृतिक माहौल को बिगाड़ रही हैं. कुछ साल पहले पाकिस्तान के इलैक्ट्रौनिक मीडिया रैगुलेटर ने भी एक टीवी चैनल पर यह कहते हुए 1 करोड़ रुपए का जुर्माना ठोंका था कि वह चैनल भारतीय फिल्मों और सीरियल्स का हद से ज्यादा प्रसारण कर रहा था.
अदनान सामी और गुलाम अली
ऐसा नहीं है कि सिर्फ भारतीय फिल्में ही पाकिस्तान पहुंचती हैं, बल्कि पाकिस्तान के ऐक्टर भी बौलीवुड में आ कर अपना हुनर आजमाते और सफल होते रहे हैं. पाकिस्तानी गायक अदनान सामी से ले कर अभिनेता अली जफर तक ऐसे कई नाम हैं, जो इस बात की पुष्टि करते हैं. पाकिस्तान के मशहूर गायक गुलाम अली को चाहने वाले भारत में भी हैं. गुलाम अली अकसर भारत आते रहते हैं पर पाकिस्तान में भारतीय फिल्मों और कलाकारों के विरोध के कारण अब भारत में भी कुछ लोग उन का विरोध करने लगे हैं, जो ठीक नहीं है.
हालांकि पाकिस्तान की सरकार यह बात अच्छी तरह जानती है कि अगर बौलीवुड फिल्मों के वैध रास्ते बंद कर दिए जाते हैं, तो भी उन का वहां पहुंचना नहीं रुकेगा. तब इन फिल्मों की पाइरेटेड सीडीडीवीडी वहां चोरीछिपे पहुंचने लगती हैं और घरों, सिनेमाहौलों तक में दिखाई जाने लगती हैं. भारतपाकिस्तान की जनता के लिए एकदूसरे के टीवी प्रोग्रामों और फिल्मों को समझना मुश्किल नहीं है. नए मनोरंजन की तलाश में दोनों ओर का आम नागरिक एकदूसरे के टीवी कार्यक्रमों और फिल्मों का शौकीन रहा है. जिस दौर में भारत में ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ जैसे टीवी सीरियल चर्चित थे, उसी दौर में ये प्रोग्राम पाकिस्तान की महिलाओं के भी पसंदीदा थे. इसी तरह कुछ पाकिस्तानी हास्य टीवी सीरियल्स भी भारत में काफी चर्चित रहे हैं.
व्यावसायिक फायदे
अरबों रुपए का कारोबार करने वाली भारतीय फिल्मों को अपने पड़ोसी मुल्क में जब एक और दर्शक वर्ग मिल जाता है, तो इस का व्यावसायिक फायदा तो होता ही है. यही नहीं, तकनीक और शिल्प के मामले में हौलीवुड को टक्कर देती भारतीय फिल्मों से पाकिस्तान की फिल्म इंडस्ट्री भी काफी कुछ सीख और समझ रही है, लेकिन इस का सब से ज्यादा असर पाकिस्तान के सिनेमाघरों की कमाई पर पड़ता है. वहां के ज्यादातर सिनेमाघर मालिक मानते हैं कि उन की कमाई का अहम जरिया उन में दिखाई जाने वाली भारतीय फिल्में हैं जो भारी भीड़ खींचती हैं. यदि ये फिल्में न हों, तो उन के सामने फाका करने की नौबत आ जाए. अब तो पाकिस्तान में भी सिनेप्लैक्स बनने लगे हैं. उन में टिकट दरें भी ज्यादा होती हैं. ऐसे में यह और भी जरूरी हो गया है कि वहां हाउसफुल चलने वाली फिल्में दिखाई जाएं.
वार छोड़ न यार
जहां तक भारतीय फिल्मों पर अपसंस्कृति फैलाने और पाक विरोधी होने का सवाल है, तो इस बारे में कहा जा सकता है कि भारतीय फिल्मकार अब काफी परिपक्वता से पेश आते हैं. अपनी फिल्मों के ग्लोबल प्रसार के मद्देनजर वे यह सावधानी बरतने लगे हैं कि उन की फिल्मों की कहानी सीधे तौर पर किसी एक देश या धर्म के खिलाफ न हो. एक दौर था, जब पाकिस्तानी शासकों ने कुछ भारतीय फिल्मों, जैसे ‘गदर : एक प्रेमकथा’ और ‘सरफरोश’ आदि पर पाकिस्तान विरोधी होने का आरोप लगाया था, पर अब तो खुद भारतीय फिल्मकार, ‘वार छोड़ न यार’ जैसी कौमेडी फिल्में बना कर भारतपाक दोस्ती का ही पैगाम देने लगे हैं. इस के उलट पाकिस्तान में 2 साल पहले (2013 में) रिलीज फिल्म, ‘वार’ में भारत विरोधी माहौल दिखाया गया था. इस फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह एक भारतीय महिला जासूस पाकिस्तान में अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करती है.
अब एकदूसरे को कठघरे में खड़े करने की दलीलें घिसीपिटी मानी जाने लगी हैं. एकदूसरे से नफरत की जमीन पर राजनीतिक रोटियां सेंकने वाली बिरादरी को छोड़ कर दोनों ओर ऐसे लोग अब कम ही बचे हैं, जो सिनेमा, कला, साहित्य में भारत या पाकिस्तान को नीचा दिखाने के बजाय अपनी अंदरूनी समस्याओं को नोटिस करने की बात कहते हैं.