बरसों से इस देश में पंडित, मुल्ला, पादरी, पुरोहित जैसे काम मर्द ही संभालते आए हैं. वैसे, अब बहुत से मंदिरों में औरतें पुजारी भी दिखती हैं. बहुत सी साध्वियां भी आप देख सकते हैं. साधुसंन्यासी औरतों ने अपना एक अलग अखाड़ा भी बना लिया है, जिस का नाम ‘परी अखाड़ा’ है.

आप को याद होगा इलाहाबाद कुंभ स्नान के दौरान इस अखाड़े को बाकायदा बनाया गया था और इस को बनाने में साध्वियों को बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा था, क्योंकि मर्द साधुसंन्यासी इस की सख्त खिलाफत कर रहे थे.

यहां काबिलेगौर बात यह है कि दुनियाभर की चमकधमक से वास्ता खत्म कर चुका संन्यासी समाज भी मर्दवादी सोच से अपना वास्ता खत्म नहीं कर पाया है. अभी हाल ही में कुछ मुसलिम औरतों ने काजी बनने की इच्छा जाहिर की. इस के लिए उन्होंने इसलाम की जरूरी जानकारी ली और वे काजी बन गईं. यह पहल मुंबई, जयपुर और कानपुर की कुछ औरतों ने की थी.

उन का इतना करना था कि जैसे मुसलिम समाज में हलचल मच गई. यह मुद्दा देश में चर्चा का विषय बन कर उभर आया. टैलीविजन चैनलों में बाकायदा इस पर चर्चा चलने लगी. अखबारों में लेख छपने लगे. देश में इस बहस में जो बातें औरतों के खिलाफ कही जा रही थीं, उन में से कुछ का जिक्र करना जरूरी है.

सब से पहले तो यह कि औरत को काजी बनने की इजाजत इसलाम धर्म में नहीं है. वे काजी नहीं बन सकतीं, क्योंकि ये कयामत के आसार हैं. दुनिया खत्म हो जाएगी. उन को माहवारी आती है, इसलिए वे काजी नहीं बन सकतीं.

शबरीमाला मंदिर हो या शनिशिंगणापुर या फिर हाजी अली की दरगाह हो, हर जगह औरतों की माहवारी अचानक सामने आ गई और उन्हें इन इबादतगाहों में दाखिल होने से मना कर दिया गया.

अचानक उभरी इस बहस के पीछे की सियासत को समझना भी मुश्किल नहीं है. यह मर्दवादी सोच की बौखलाहट भी है, जो औरत को काबू में करने के लिए तरहतरह के बहाने ढूंढ़ रही है.

अब यहां यह जानना भी जरूरी है कि आखिर काजी है क्या? ज्यादातर लोगों ने तो बस एक कहावत सुनी होगी कि मियांबीवी राजी तो क्या करेगा काजी. इस के आगे कुछ नहीं.

काजी का मतलब है वह न्यायाधीश, जो मुसलिम समाज के इसलामिक कानून के आधार पर इंसाफ कर सके और धार्मिक रीतिरिवाजों, वैवाहिक परंपराओं का पालन व धार्मिक अनुष्ठानों को पूरा करा सके.

काजी के सवाल पर भारत में एक अधिनियम भी बना हुआ है, जिसे काजी अधिनियम या काजी ऐक्ट कहते हैं. साल 1864 का एक प्रस्ताव था, जिस के तहत शहर, कसबे या परगने में मुसलिम समुदाय की रीतियों, विवाह के अनुष्ठानों और दूसरे मौकों के अनुष्ठानों को कराने के लिए काजी का होना जरूरी है.

अंगरेज सरकार ने इस के लिए एक अधिनियम पास किया था, जो ‘काजी अधिनियम 1880’ कहलाया था. इस अधिनियम के तहत किसी स्थानीय क्षेत्र के लिए भी जहां मुसलिम समुदाय की तादाद यह इच्छा करती है कि एक या ज्यादा काजियों को उक्त क्षेत्र में रखा जाए, तो राज्य सरकार स्थानीय लोगों की सलाह पर ऐसा कर सकती है. ऐसी नियुक्तियां राज्य सरकारों द्वारा काफी लंबे समय तक की जाती रही हैं.

भारत के सभी मुसलिमों पर यह ऐक्ट तब तक लागू माना जाएगा, जब तक कि यह ऐक्ट खत्म नहीं कर दिया जाता है. अब यहां दूसरा सवाल यह उठता है कि उस काजी ऐक्ट 1880 को अगर गौर से देखें, तो पाएंगे कि कहीं भी उस ऐक्ट में यह नहीं लिखा है कि काजी के पद पर औरतें नहीं आ सकतीं और न ही औरत की माहवारी पर कुछ कहा गया है.

हम जिस ऐक्ट से गवर्न होते हैं, किसी बहस के लिए उसे ही आधार माना जाएगा और कोई न्यायिक वाद भी उसी के दायरे में निबटाया जाएगा, इसलिए किसी औरत के काजी बनने के खिलाफ जो भी बहस है, वह अधिनियम के खिलाफ है, जिसे भारत में स्वीकारा नहीं जा सकता.

दूसरी बात, हर साल लाखों की तादाद में औरतें हज करने मक्का जाती हैं. हज की गाइडलाइन में भी माहवारी के बारे में नहीं लिखा है और न ही वहां इस किस्म की कोई रुकावट है.

अगर इस मुद्दे के दूसरे पहलू पर गौर करें, तो देखेंगे कि आज के जमाने में काजी ऐक्ट पूरी तरह से अप्रासंगिक हो चुका है. यह उस जमाने की जरूरत थी, जब कानून और प्रशासनिक अमला इतना मजबूत नहीं था. हर शहर के कुछ समझदार लोग मिलबैठ कर किसी ईमानदार और पढ़ेलिखे आदमी को आलिम या फाजिल चुन लेते थे, जो शहर के तमाम धार्मिक और पारंपरिक रीतिरिवाजों से जुडे़ मामलों को समझता और पूरा कराता था. आज काजियों के पास कोई काम नहीं है, न ही कोई कानूनी पावर. सरकार ने भी साल 1982 के बाद से काजी की नियुक्ति बंद कर दी है.

इस सब के बावजूद अगर कोई औरत काजी, मौलवी, आलिम या फाजिल बनना चाहती है, जो उस के फायदे की बात भी नहीं है, फिर भी उसे किसी आधार पर रोका नहीं जा सकता है. भारत का संविधान भी इस की इजाजत नहीं देता है.

जैसे मर्दों को इन ओहदों से कुछ खास हासिल नहीं हुआ, उन की सोच का लैवल ऊंचा नहीं उठ सका, वैसे ही औरतों की सोच इन ओहदों से ऊंची तो नहीं उठ सकती, उन्हें कुछ नहीं मिलेगा. हां, काजी बन कर कम से कम समाज के हर क्षेत्र में वे अपनी मौजूदगी तो दर्ज करा पाएंगी.

पर मजहब को जानने और उस पर बोलने का एकाधिकार उलेमा अपने हाथ में ही रखना चाहते हैं. उन्हें इस बात का खतरा है कि औरतें अगर इस क्षेत्र में भी आ गईं, तो उन की बात सुनने वाला कोई नहीं रह जाएगा.

दुनिया बहुत आगे जा चुकी है. जिस सऊदी अरब को उलेमा अपने हर काम का रोल मौडल मान कर चलते हैं, वह भी बदल रहा है.

साल 2015 के नगरपरिषद के चुनाव में औरतों ने वहां भी अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. 978 महिला उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरीं, उन में से कई जीत भी गईं. पहली महिला नेता बनने का खिताब मक्का प्रांत की सलमा बिन हिजाब अल ओतिबी को मिला.

यह नहीं पता कि भारत के उलेमा इस जीत को किस नजरिए से देखते हैं, लेकिन दुनिया के नक्शे पर सऊदी अरब के चुनाव को औरतों की आजादी का ‘फाइनल फ्रंटियर’ माना जा रहा है.

जब वहां इतना बड़ा बदलाव स्वीकार हो रहा है, तो हमारे देश में किसी औरत को काजी स्वीकार करने में इतनी तकलीफ क्यों?

पर्सनल ला बोर्ड नामक एक एनजीओ के जनरल सैक्रेटरी वली रहमानी बयान देते हैं कि देश में बढ़ती असहनशीलता के खिलाफ वे मुहिम चलाएंगे. यह बात अहम है. ऐसी मुहिम चलाने का उन्हें पूरा हक है, लेकिन उस के साथ ही मुसलिम औरतों की तरक्की के खिलाफ उन की और उन की कौम की बढ़ती असहनशीलता भी गाहेबगाहे देश के लोगों को देखने और सुनने को मिलती है. उम्मीद है, इस के बारे में भी वे जरूर सोचेंगे और उस के खिलाफ भी कोई न कोई मुहिम जरूर चलाएंगे. यह भी कौम की बड़ी खिदमत होगी.

इस से मुसलिम कौम और भारत देश दोनों का ही फायदा होगा और फिर यह दोहराना लाजिमी हो जाता है कि आदमी काजी बन सकते हैं, तो फिर औरतें क्यों नहीं?

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