Religion : हिंदू मंदिरों के पास भी पैसा, सोनाचांदी और तमाम जमीने हैं. जिस का उपयोग या तो मंदिर का पुजारी कर रहा है या फिर मंदिर चलाने वाला ट्रस्ट कर रहा है. आखिर मुसलिम वक्फ बोर्ड की ही तरह हिंदू वक्फ बोर्ड क्यों न बने?

वक्फ एक व्यवस्था है. जिस का उद्देश्यों धार्मिक संस्थाओं को दान में मिली संपत्ति का प्रबंधन करना होता है. केंद्र की सरकार ने इस कानून में संशोधन पारित किया है. जिस के जरिए वह बता रही है कि यह कानून कितना अहम है. जिस तरह से वक्फ संपत्ति के प्रबंधन के लिए कानूनी ढांचे की आवश्यकता होती है. उसी तरह से हिंदू मंदिरों की संपत्तियों के प्रबंधन के लिए भी वक्फ कानून की जरूरत है.

हिंदू मंदिरों के पास भी पैसा, सोनाचांदी और तमाम जमीने हैं. जिस का उपयोग या तो मंदिर का पुजारी कर रहा है या फिर मंदिर को चलाने वाला ट्रस्ट कर रहा है. जिस से देश का हित नहीं हो रहा है. मुसलिम वक्फ की ही तरह से हिंदू मंदिरों के लिए भी वक्फ कानून बनना चाहिए.

इस वक्फ बिल का उद्देश्य हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों के लिए एक समान कानूनी ढांचे का निर्माण करना होगा. ताकि उन की संपत्तियों का प्रबंधन सही ढंग से किया जा सके और उन्हें धार्मिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जा सके. कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को धार्मिक उद्देश्यों के लिए दान करता है. इस संपत्ति का उपयोग धार्मिक संस्थाओं को चलाने, धार्मिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने, या धार्मिक संस्थाओं के लिए शिक्षा और कल्याण के कार्यों में किया जाता है.

भारत में वक्फ मुख्य रूप से मुसलिम धर्म से जुड़ा हुआ है. हिंदू धर्म में वक्फ जैसी प्रथा नहीं है. हिंदू वक्फ बिल का उद्देश्य हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों के लिए एक समान कानूनी ढांचे का निर्माण करना होगा. हिंदू वक्फ बिल हिंदू धर्म के वक्फ ट्रस्टों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करेगा. जिस से उन की संपत्ति सुरक्षित रहेगी. उन का प्रबंधन सही ढंग से किया जा सकेगा. हिंदू वक्फ बिल वक्फ ट्रस्टों के प्रबंधन में पारदर्शिता लाने का काम करेगा. जिस से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि संपत्ति का उपयोग धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जा रहा है. कोई भी अनियमितता नहीं हो रही है.

हिंदू वक्फ बिल हिंदू वक्फ ट्रस्टों के प्रशासन में सुधार लाने का काम करेगा. जिस से उन की कार्यप्रणाली अधिक कुशल और प्रभावी हो जाएगी. मंदिरों की संपत्ति का प्रयोग कल्याणकारी कार्यों जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, और गरीब लोगों की मदद में किया जा सकेगा. अभी तक हिंदू मंदिरों की संपत्तियों के प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय संस्था नहीं है. अलगअलग तरह से मंदिरों की संपत्तियों का प्रबंधन किया जा रहा है.

मंदिरों की संपत्तियों पर किस का अधिकार

मंदिरों की संपत्ति में मंदिर का ही अधिकार होता हैं क्योंकि वह यह दान हैं जो भगवान को एक जीवित इंसान मान कर भक्तों द्वारा चढ़ाया जाता हैं. सर्वोच्च अदालत के रामलला केस के इस आदेश से ले सकते है. जिस में भारत में हिंदुओं के देवीदेवताओं को जूरिस्टिक पर्सन यानी लीगल व्यक्ति माना जाता है. इन को आम लोगों की तरह सभी कानूनी अधिकार होते हैं. मंदिरों में देवीदेवताओं को संपत्ति अर्जित करने, बेचने, खरीदने, ट्रांसफर करने और न्यायालय केस लड़ने समेत सभी कानूनी अधिकार होते हैं. मंदिर की संपत्ति पर लोगों की नजर रहती है.

मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक आदेश के खिलाफ राज्य सरकार की याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने राज्य सरकार द्वारा एमपी लौ रेवेन्यू कोड 1959 के तहत जारी किए गए दो परिपत्रों को रद्द कर दिया. इन परिपत्रों में पुजारी के नाम राजस्व रिकौर्ड से हटाने का आदेश दिया गया था, ताकि मंदिर की संपत्तियों को पुजारियों द्वारा अनधिकृत बिक्री से बचाया जा सके.

उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि ‘पुजारी को मंदिर की जमीन का मालिक नहीं माना जा सकता है, मंदिर से जुड़ी जमीन के मालिक देवता ही हैं. पुजारी केवल मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन का काम कर सकता है. न्यायमूर्ति हेमंत गुप्ता और न्यायमूर्ति एएस बोपन्ना की एक पीठ ने कहा कि पुजारी केवल मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन के उद्देश्य से भूमि से जुड़े काम कर सकता है.

अदातल ने कहा ‘स्वामित्व’ वाले स्तंभ में केवल देवता का नाम ही लिखा जाए. देवता एक न्यायिक व्यक्ति होने के कारण भूमि का स्वामी होता है. भूमि पर देवता का ही कब्जा होता है. जिस के काम देवता की ओर से सेवक या प्रबंधकों द्वारा किए जाते हैं. इसलिए, प्रबंधक या पुजारी के नाम का जिक्र स्वामित्व स्तंभ में करने की आवश्यकता नहीं है.

पीठ ने कहा कि इस मामले में कानून स्पष्ट है कि पुजारी काश्तकार मौरुशी, खेती में काश्तकार या सरकारी पट्टेदार या मौफी भूमि राजस्व के भुगतान से छूट वाली भूमि का एक साधारण किराएदार नहीं है, बल्कि उसे औकाफ विभाग देवस्थान से संबंधित की ओर से ऐसी भूमि के केवल प्रबंधन के उद्देश्य से रख जाता है. पीठ ने कहा पुजारी केवल देवता की संपत्ति का प्रबंधन करने की एक गारंटी है और यदि पुजारी अपने कार्य करने में जैसे प्रार्थना करने तथा भूमि का प्रबंधन करने संबंधी काम में विफल रहे तो इसे बदला भी जा सकता है. इस प्रकार उन्हें भूमिस्वामी नहीं माना जा सकता.

हिंदू मंदिरों पर हो हिंदुओं का अधिकार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने देश में कुछ मंदिरों की स्थिति पर कहा कि मंदिरों की संस्थाओं के संचालन के अधिकार हिंदुओं को सौंपे जाने चाहिए और इन की संपत्ति का उपयोग केवल हिंदू समुदाय के कल्याणार्थ किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत के मंदिरों पर पूरी तरह राज्य सरकार का नियंत्रण है जब कि देश में कुछ हिस्सों में मंदिरों का प्रबंधन सरकार व कुछ अन्य का श्रद्धालुओं के हाथ में है.

भागवत ने सरकार द्वारा संचालित माता वैष्णो देवी मंदिर जैसे मंदिरों का उदाहरण देते हुए कहा कि इसे बहुत कुशलता से चलाया जा रहा है. उन्होंने कहा कि इसी तरह महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के शेगांव में स्थित गजानन महाराज मंदिर, दिल्ली में झंडेवाला मंदिर, जो भक्तों द्वारा संचालित हैं, को भी बहुत कुशलता से चलाया जा रहा है.

भागवत ने कहा, ‘लेकिन उन मंदिरों में लूट है जहां उन का संचालन प्रभावी ढंग से नहीं हो रहा है. जहां ऐसी चीजें ठीक से काम नहीं कर रही हैं, वहां एक लूट मची हुई है. कुछ मंदिरों में शासन की कोई व्यवस्था नहीं है. मंदिरों की चल और अचल संपत्तियों के दुरुपयोग के उदाहरण सामने आए हैं.’

भागवत ने कहा ‘हिंदू मंदिरों की संपत्ति का उपयोग गैर हिंदुओं के लिए किया जाता है. जिन की हिंदू भगवानों में कोई आस्था नहीं है. हिंदुओं को भी इस की जरूरत है, लेकिन उन के लिए इस का इस्तेमाल नहीं किया जाता है.’ मंदिरों के प्रबंधन को ले कर उच्चतम न्यायालय के कुछ आदेश हैं शीर्ष अदालत ने कहा कि ईश्वर के अलावा कोई भी मंदिर का स्वामी नहीं हो सकता. पुजारी केवल प्रबंधक है. इस ने यह भी कहा कि सरकार प्रबंधन उद्देश्यों से इस का नियंत्रण ले सकती है लेकिन कुछ समय के लिए. लेकिन उसे स्वामित्व लौटाना होगा. इसलिए इस पर उचित ढंग से निर्णय लिया जाना चाहिए.’

भागवत ने कहा ‘इस संबंध में भी फैसला लिया जाना चाहिए कि हिंदू समाज इन मंदिरों की देखरेख कैसे करेगा?’ भागवत ने कहा कि जाति और पंथ के बावजूद सभी भक्तों के लिए मंदिर में भगवान के दर्शन, उन की पूजा के लिए गैर भेदभावपूर्ण पहुंच और अवसर भी हर जगह अमल में नहीं लाए जाते, लेकिन इन्हें (गैर भेदभाव पूर्ण पहुंच और अवसर) सुनिश्चित किया जाना चाहिए.

भागवत ने कहा कि यह सभी के लिए स्पष्ट है कि मंदिरों की धार्मिक आचार संहिता के संबंध में कई निर्णय विद्वानों और आध्यात्मिक शिक्षकों के परामर्श के बिना ‘मनमौजी ढंग से’ किए जाते हैं.

यह साफ है कि मंदिरों के संचालन की कोई एक व्यवस्था नहीं है. ऐसे में कई तरह के विवाद है. इन विवादों को हल करने के लिए जरूरत है कि मंदिरों के लिए भी वक्फ बोर्ड बने. अदालतों में सालोंसाल ऐसे विवाद लटकते रहते हैं. मुसलिम वक्फ बोर्ड की ही तरह से हिंदू वक्फ कानून बने और इस का अलग ट्रिब्यूनल कोर्ट बने जहां ऐसे विवाद जल्दी से जल्दी हल हो जाए.

इस बोर्ड में भी शामिल होने वालों के लिए चुनाव हो. जो लोग इस बोर्ड में शामिल हो उन का समयसमय पर चुनाव हो. जिस तरह से गुरूद्वारा प्रबंधन कमेटी का होता है.

पूजा स्थलों के प्रबंधन को ले कर क्या है कानून?

अधिकांश हिंदू मंदिरों का प्रबंधन राज्य के नियमों के तहत किया जाता है. कई राज्यों ने ऐसे कानून बनाए हैं जो मंदिर प्रशासन पर सरकार को अधिकार प्रदान करते हैं. तमिलनाडु का हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग मंदिर प्रबंधन की देखरेख करता है जिस में वित्त और मंदिर प्रमुखों की नियुक्तियां शामिल हैं. आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा तिरुपति मंदिर के प्रबंधन हेतु उत्तरदायी, तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम के प्रमुख की नियुक्ति की जाती है.

राज्य को मंदिरों में हस्तक्षेप की ताकत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25(2) से प्राप्त होती है. 2011 की गणना के अनुसार भारत में लगभग 30 लाख पूजा स्थलों में से अधिकांश हिंदू मंदिर हैं. मुसलिम और ईसाई पूजा स्थलों की देखरेख आमतौर पर समुदाय आधारित बोर्डों या ट्रस्टों द्वारा की जाती है, जो सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र हो कर कार्य करते हैं.

सिख, जैन और बौद्ध मंदिरों का प्रबंधन राज्य स्तर सामुदायिक भागीदारी की इन के प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका है. धार्मिक बंदोबस्त और संस्थाओं को संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में सूचीबद्ध किया गया है जिस से केंद्र और राज्य दोनों को इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार है.

जम्मू और कश्मीर ने श्री माता वैष्णो देवी श्राइन अधिनियम, 1988 के तहत व्यक्तिगत मंदिरों के लिए विशिष्ट कानून बनाए हैं, जो उन के प्रशासन एवं वित्तपोषण की रूपरेखा तैयार करते हैं. 1810 और 1817 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल, मद्रास और बौम्बे में कानून बनाए, जिस से आय के दुरुपयोग को रोकने के लिए मंदिर प्रशासन में हस्तक्षेप की अनुमति मिल गई.

धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1863 के तहत ब्रिटिश सरकार के इस अधिनियम का उद्देश्य मंदिर के नियंत्रण को समितियों को हस्तांतरित कर के मंदिर प्रबंधन को धर्मनिरपेक्ष बनाना था लेकिन नागरिक प्रक्रिया संहिता और धर्मार्थ तथा धार्मिक ट्रस्ट अधिनियम 1920 जैसे विधिक ढांचों के माध्यम से सरकारी प्रभाव को बनाए रखा गया.

मद्रास हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम 1925 के तहत हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती बोर्ड की स्थापना की गई, जो एक वैधानिक निकाय था. इस के साथ ही प्रांतीय सरकारों को मंदिर के मामलों पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया, जिस में आयुक्तों के एक बोर्ड को निरीक्षण की अनुमति दी गई. 1950 में भारतीय विधि आयोग ने मंदिर के धन के दुरुपयोग को रोकने के लिए कानून की सिफारिश की, जिस के परिणामस्वरूप तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1951 को बनाया गया.

इस में मंदिरों और उन की संपत्तियों के प्रशासन, सुरक्षा और संरक्षण के लिए हिंदू धार्मिक तथा धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग के गठन का प्रावधान था. लगभग उसी समय धार्मिक संस्थाओं को विनियमित करने के लिए बिहार में बिहार हिंदू धार्मिक ट्रस्ट अधिनियम, 1950 पारित किया गया.

अनुच्छेद 25(1) लोगों को अपने धर्म का पालन, प्रचारप्रसार करने की स्वतंत्रता देता है जो लोक व्यवस्था, नैतिकता तथा स्वास्थ्य के अधीन है. यह राज्य को धार्मिक प्रथाओं से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या धर्मनिरपेक्ष गतिविधियों को विनियमित करने और सामाजिक कल्याण, सुधार के साथ हिंदू धार्मिक संस्थानों को हिंदुओं के सभी वर्गों के लिये खोलने के लिए कानून बनाने की अनुमति देता है.

शिरूर मठ बनाम आयुक्त, हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती, मद्रास मामला, 1954 के संबंध में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि धार्मिक संस्थाओं को अनुच्छेद 26 के तहत स्वतंत्र रूप से अपने मामलों का प्रबंधन करने का अधिकार है जबतक कि वे लोक व्यवस्था, नैतिकता या स्वास्थ्य के विपरीत नहीं होते हैं. राज्य धार्मिक या धर्मार्थ संस्थाओं के प्रशासन को विनियमित कर सकता है. इस मामले से भारत में धार्मिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों की सुरक्षा के क्रम में महत्त्वपूर्ण मिसाल कायम हुई.

रतिलाल पानाचंद गांधी बनाम बौम्बे राज्य मामला, 1954 सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि धार्मिक प्रथाएं भी धार्मिक आस्था या सिद्धांतों की तरह ही धर्म का हिस्सा हैं लेकिन यह संरक्षण केवल धर्म के आवश्यक एवं अभिन्न अंगों तक ही सीमित है.

पन्नालाल बंसीलाल पित्ती बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामला, 1996 सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर प्रबंधन पर वंशानुगत अधिकारों को समाप्त करने वाले कानून को बरकरार रखा. इस तर्क को खारिज कर दिया कि ऐसे कानून सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होने चाहिए.

1959 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना पहला प्रस्ताव पारित किया जिस में मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से मुक्त करने की मांग की गई. काशी विश्वनाथ मंदिर 1959 अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा ने उत्तर प्रदेश सरकार से काशी विश्वनाथ मंदिर का प्रबंधन हिंदुओं को वापस करने का आग्रह किया. 2023 में मध्य प्रदेश सरकार ने मंदिरों पर राज्य की निगरानी में ढील देने के लिए कदम उठाए हैं. हिंदू रिलीजियस एंड चैरिटेबल एंडोमेंट एक्ट, 1991 में भी ऐसे मंदिर प्रशासन बोर्ड की स्थापना का प्रावधान है.

पूरे मसले को देखने के बाद यह साफ हो गया है कि हिंदू मंदिरों की देखरेख और संपत्ति प्रबंधन के अधिकार के लिए हिंदू वक्फ बोर्ड बनाना होगा तभी देश में फैले मंदिरों के अंदर फैली मनमानी को रोका जा सकता है.

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