Hindi Kahaniyan : अमृताजी ने अपनी गाड़ी का दरवाजा खोला ही था कि सामने से सीता ने आवाज दी, ‘‘मेमसाहब, हम आ गए हैं.’’उसे थोड़ी उल झन हुई कि क्या करे क्या न करे, दरअसल, मैडिटेशन क्लास जाने का उस का पहला ही दिन था. पहले वह गुरुजी को घर ही बुला लिया करती थी, लेकिन सुषमा हफ्तों से उसे सम झा रही थी कि क्लास में जाने के क्याक्या फायदे हैं. उस के अनुसार, क्लास में सब लोगों की सोच एक ही तरह की रहती है तो बातें करना आसान हो जाता है. फिर आप को खुद अपनी गलती सुधारने का मौका भी मिल जाता है. एक हलकी प्रतिस्पर्धा रहने पर आप जल्दी सीखते हैं.
सुषमा की बातों में सचाई थी. घर में तो गुरुजी के आने पर ही तैयारी शुरू करती. कुछ समय तो उसी में निकल जाता, कभीकभी कुछ आलस में भी और सब से बड़ी बात यह थी कि घर में वह अपने प्रिंसिपलशिप का चोला उतार गुरुजी को सहजता से गुरु स्वीकार नहीं कर पाती थी. सारी बातें सोचतेसोचते उस ने फैसला किया था कि वह भी क्लास जौइन करेगी. गुरुजी से बात कर के सवेरे के समय में क्लास जाने की बात तय भी हो गई थी. पर वह सीता से कहना भूल गई थी, इसलिए आज जब वह जा रही थी तब, ‘‘ऐसा करो सीता, आज तुम 2 घंटे के बाद आ जाओ, फिर हम तय करेंगे कि कल से हम क्या करेंगे.’’
क्लास पहुंची तो उसे थोड़ी सी मानसिक समस्या हुई. 30-35 साल के अधिकतर लोगों के बीच उस का 65 साल का होना उसे कुछ भारी पड़ने लगा था और सब से भारी पड़ने लगा उस का अपना व्यवहार, उस का अपना आदेश देने वाला व्यक्तित्व. वह करीबन 10 साल एक स्कूल के प्रिंसिपल के पद पर रही और इन 10 सालों में आदेश देना उस के व्यक्तित्व का अंग बन चुका था. ऐसे में परिस्थितियों से सम झौता असंभव नहीं तो कठिन जरूर हो गया था.
ऐसा नहीं कि उस ने पहले काम नहीं किया था. वह शादी के पहले अपने मायके के शहर में स्कूल टीचर थी. उस के पिता ने शादी में यह शर्त भी रखी थी कि लड़की नौकरी करना चाहेगी तो आप उसे मना नहीं कीजिएगा. अमृता दबंग बाप की दबंग बेटी थी. उस का कभी पापा से टकराव भी होता था मां को ले कर. उस का भाई तो मां की तरह का सीधासाधा इंसान था. पर वह पापा द्वारा मां पर की हुई ज्यादतियों पर सीधे लड़ जाती थी. पापा कहा भी करते थे, ‘पता नहीं यह ससुराल में कैसे रहेगी.’
‘मां की तरह तो हरगिज नहीं पापा,’ वह फौरन जवाब देती. पापा भी हंस कर कहते, ‘तुम मेरी पत्नी को बहकाया मत करो,’ फिर बात हंसी में उड़ जाती.
ससुराल में केवल 2 ही व्यक्ति थे, एक पति और एक सास. दोनों ही बहुत सीधेसादे. उसे ससुराल के शहर के एक स्कूल में नौकरी मिल गई. पति केवल सीधेसादे ही नहीं, सहज और दिलचस्प इंसान भी थे. सकारात्मकता उन में कूटकूट कर भरी हुई थी. उन की पुशतैनी कपड़े की दुकान थी. पिताजी के गुजरने के बाद वे ही दुकान के सर्वेसर्वा थे, इसलिए वे सुबह के 9 बजे से रात के 9 बजे तक वहीं उल झे रहते थे. हां, इतवार जरूर खुशनुमा होता था दोनों छुट्टी पर जो रहते थे और उस दिन के खुशनुमा एहसास में हफ्ता अच्छी तरह बीत जाता था. शुरू के दिनों में अमृता को न घूम पाने की कसक जरूर रहती थी पर बाद में उस ने उस का रास्ता भी निकाल लिया था. कभी स्कूल के साथ ट्रिप पर कभी दोस्तों के साथ घूमफिर आती थी. अम्मा के कारण बच्चे भी उस के घूमने में बाधक नहीं बनते थे.
घर चलाना, बच्चे पालना उस का जिम्मा कभी नहीं रहा. ये सारे काम अम्मा ही करती थीं. वह कभीकभी सोचती जरूर थी कि वह अम्मा के उपकारों का बदला कैसे चुकाएगी. फिर यह कह कर खुद को तसल्ली दे लेती थी कि उन का बुढ़ापा आएगा तो वह जीभर सेवा कर देगी. पर उन्होंने इस का भी अवसर नहीं दिया, एक रात सोईं तो सोई रह गईं.
उस समय तक बच्चे बड़े हो चुके थे. उन का साथ अब केवल छुट्टियों में ही मिल पाता था और वह भी कुछ ही साल. उन की पढ़ाई खत्म हुई तो नौकरी और नौकरी को ले कर विदेश गए तो वहीं के हो कर रह गए. दोनों लड़कों ने वहीं शादी कर ली. एक ने तो कम से कम गुजराती चुना, दूसरे ने तो सीधे जरमन लड़की से शादी कर ली. इसलिए बहुओं से उस का रिश्ता पनपा ही नहीं. बस, रस्मीतौर पर फोन पर संपर्क करने के अलावा कोई रिश्ता नहीं था. चूंकि बहुओं से वह कोई रिश्ता नही पनपा पाई, इसलिए बेटों से भी रिश्ता सूखता गया.
इस बीच उस के जीवन में 2 बड़ी घटनाएं घटीं- पति की आकास्मिक मृत्यु और खुद का उसी स्कूल में प्रिंसिपल हो जाना. बच्चे बाप के मरने पर आए, उस को साथ चलने के लिए कहने की औपचारिकता भी निभाई. उस ने भी रिटायरमैंट के बाद कह कर औपचारिकता का जवाब औपचारिकता से दे दिया. बस, उस के बाद मिलने के सूखे वादे ही उस की ममता की झोली में गिरते रहे. वह भी बिना किसी भावुकता के इस की आदी होती चली गई. यानी, उस की जिंदगी का निचोड़ यह था कि उसे कभी रिश्तों में सम झौता करने कि जरूरत ही नहीं पड़ी थी.
रिटायरमैंट के बाद सारा परिदृश्य ही बदल गया. पति के मरने के बाद अभी तक वह स्कूल के ही प्रिंसिपल क्वार्टर में रहती थी, इसलिए वहां से मिलने वाली सारी सुविधाओं की वह आदी हो गई थी. पर फिर से फ्लैट में आ कर रहना, वहां की परेशानियों से रूबरू होना उस को बहुत भारी पड़ने लगा था. क्वार्टर में किसी दाई या चपरासी की मजाल थी कि उस का कहा न सुने. पर यहां दाई, माली, धोबी, सब अपने मन की ही करते और उसे सम झौता करना ही पड़ता था. पर सब से अधिक जो उस पर भारी पड़ता था वह था उस का अपना अकेलापन. व्यस्त जिंदगी के बीच वह अपना कोई शौक पनपा नहीं पाई थी. पढ़ने की तो आदत थी पर उपन्यास या कहानी नहीं. काम की अधिकता या फिर कर्मठ व्यक्तित्व होने के कारण मोबाइल से समय काटने की आदत वह अपने अंदर पनपा ही नहीं पाई थी. परिचितों के दायरे को भी उस ने सीमित ही रखा था. बस, एक दोस्त के नाम पर सुषमा थी. वह शिक्षिका वाले दिनों की एकमात्र सहेली थी, जिस से वह निसंकोच हो कर अपनी समस्या बांटती थी. एक दिन अपने ही घर में कौफी पीतेपीते उस ने पूछा था, ‘सुषमा, आखिर वह समय कैसे काटे?’
‘किसी संस्था से जुड़ जाओ,’ सुषमा के यह कहने के पहले ही वह कई संस्थाओं का दरवाजा खटखटा चुकी थी. पर हर जगह उसे काम से ज्यादा दिखावा या फिर पैसे कि लूटखसोट ही देखने को मिली थी. जिंदगीभर ईमानदारी से काम करने वाली अमृता की ये बातें, गले से नीचे नहीं उतर पाई थीं. सुषमा से की इन्हीं बहसों के बीच मैडिटेशन सीखने का विचार आया था क्योंकि मन तो मन, अब कभीकभी शरीर भी विद्रोह करने लगा था. इसलिए सुषमा का दिया यह प्रस्ताव उसे पसंद आया था और थोड़ी मेहनत कर गुरु भी खोज लिया था पर बाद में क्लास जाना ही तय हुआ था.
इसलिए पहले दिन मैडिटेशन क्लास में उसे सबकुछ विचित्र सा लगा. थोड़ी ऊब, थोड़ी निराशा सी हुई. दूसरे दिन बड़ी अनिच्छा से उस का क्लास जाना हुआ था. लेकिन प्रैक्टिस करने के बाद फूलती सांस को सामान्य बनाने के लिए जब वह कुरसी पर बैठी तो उस ने देखा कि उसी की उम्र का एक आदमी बगल वाली कुरसी पर बैठा उस से कुछ पूछ रहा है.
‘‘आप का पहला दिन है क्या?’’ ‘‘हां,’’ अपनी सांसों पर नियंत्रण रख कर मुश्किल से वह यह कह पाई. ‘‘मैं तो पिछले साल से आ रहा हूं. मैं सेना से रिटायर्ड हुआ हूं, इसलिए मैडिटेशन मेरे लिए शौक नहीं, जरूरत है.’’‘‘मैं रिटायर्ड प्रिंसिपल हूं. मु झे शरीर के लिए कम, मन के लिए मैडिटेशन की ज्यादा जरूरत है.’’
‘‘रिटायरमैंट के बाद न चाहते हुए भी जिंदगी की शाम तो आ ही जाती है. किसी को शरीर पर पहले, किसी को मन पर पहले, पर शाम का धुंधलका अपने जीवन का अंग तो बन ही जाता है.’’
‘‘मैं ने अभी तक तो महसूस नहीं किया था पर अब… थोड़ीथोड़ी दिक्कत होने लगी है. दरअसल, मेरी असली समस्या है अकेलापन,’’ इतना कह कर अमृता अचानक चुप हो गई. उसे लगा कि एक अजनबी से वह अपनी व्यक्तिगत बातें क्यों कर रही है. फिर उस ने बात बदलने के लिए पूछा, ‘‘आप रहते कहां हैं?’’
‘‘इंदिरारानगर में.’’
‘‘मैं भी तो वहीं रहती हूं. आप का मकान नंबर?’’
‘‘44.’’
‘‘वही कहूं आप का चेहरा पहचानापहचाना सा क्यों लग रहा है. दरअसल, मैं भी वहीं रहती हूं गंगा एपार्टमैंट के एक फ्लैट में. अकसर आप को सड़क पर आतेजाते देखा होगा, इसीलिए पहचानापहचाना सा लगा. वैसे इस घर में आए मु झे अभी 6 ही महीने हुए हैं.’’
काफी देर तक इधरउधर, राजनीति आदि पर बातें होती रहीं. अचानक उसे सीता को समय देने की याद आई. वह उठती हुई बोली, ‘‘आप के पास अपनी सवारी है?’’
‘‘नहीं.’’
‘‘आइए, मैं आप को घर छोड़ दूं.’’
उतरते समय अमृता ने उन का नाम पूछा, ‘‘अरे इतनी बातें हो गईं, मैं ने न अपना नाम बताया, न आप से नाम पूछा. मेरा नाम अमृता है.’’
‘‘मैं राजेश, पर आप भी उतरिए एक कप चाय हो जाए.’’
‘‘फिर कभी, अभी मैं ने एक आदमी को बुलाया है.’’
अमृता घर पहुंची तो सीता को इंतजार करते पाया. ताला खोलने के बाद जो काम का सिलसिला शुरू हुआ वह बहुत देर तक चलता रहा और वह सुबह की सारी बातें भूल गई थी. पर शाम को चाय ले कर बैठी तो उसे सारी बातें याद आईं. उसे आश्चर्य हुआ कि 2 घंटे कितने आराम से बीत गए थे. समय काटना ही तो उस के जीवन की सब से बड़ी परेशानी थी और वह परेशानी इतनी आसानी से…?
धीरेधीरे उस की ओर राजेशजी की घनिष्ठता बढ़ती गई. अमृता ने महसूस किया कि उस की और राजेशजी की रुचियां मिलतीजुलती हैं. बगीचे का रखरखाव दोनों की रुचियों का मुख्य केंद्र था. आध्यात्म पर अकसर वे बहस किया करते थे. अमृता को धार्मिक औपचारिकताओं पर विश्वास नहीं के बराबर था. पंडित, मंत्र, उपवास आदि पर उस का विश्वास नहीं था. वहीं राजेश यह मानते थे कि ये सारी चीजें महत्त्वपूर्ण हैं, केवल उन को सम झाने और करने का ढंग गलत है. राजेशजी किताबें बहुत पढ़ते थे. इतिहास उन का प्रिय विषय था. चाहे भाषा का इतिहास हो, संस्कृति का या साहित्य का, वे पढ़ते ही रहते थे.
एक दिन शाम को चाय पीते हुएराजेशजी बताने लगे, ‘‘जानती हैं अमृताजी, 7 बुद्ध हुए हैं और ये अंतिम बुद्ध, जिन्हें हम गौतम बुद्ध कहते हैं, ईसा से 500 वर्ष पूर्व हुए थे. अभी जो खुदाई हो रही है उस में 7 बुद्ध की मूर्तियों वाले स्तूप मिल रहे हैं…’’
अमृता मंत्रमुग्ध चुपचाप सुनती रही. उसे आश्चर्य हुआ कि वह खुद नहीं जानती थी कि ऐसे शुष्क विषय भी उसे इतना सम्मोहित कर सकते हैं. यह विषय का सम्मोहन था या राजेशजी के बोलने के ढंग का. वह थोड़ी उल झ सी गई. फिलहाल उस का रिश्ता इतना करीबी का जरूर हो गया था कि शाम की चाय वे एकदूसरे के यहां पिएं, एकदूसरे के बीमार पढ़ने पर पूरी ईमानदारी से तीमारदारी करें.
उन दोनों की करीबी पर समाज अब चौकन्ना हो चला था. समाज की प्रतिक्रियाएं हवा में उड़तेउड़ते उन तक पहुंचने लगी थीं. अपनी ही बिल्ंिडग के किसी समारोह में लोगों की आंखों में अमृता पढ़ चुकी थी कि समाज इस रिश्ते को किस तरह से लेता है. अमृता के दबंग व्यक्तित्व को देखते हुए अभी आंखों की भाषा जबान पर तो नहीं आ पाई थी पर कामवालियों के माध्यम से सुनसुन कर उस को इस की गंभीरता का एहसास तो हो ही गया था.
एक दिन शाम की चाय पीते राजेशजी कुछ ज्यादा ही चुप थे. जब उन की चुप्पी अखरी, तो अमृता ने पूछ ही लिया, ‘‘कुछ खास बात है क्या?’’
‘‘है भी और नहीं भी. वे सुभाषजी हैं न. कल एक पार्टी में मिले थे. वे एकांत में ले जा कर मु झ से पूछने लगे कि मैं आप से शादी क्यों नहीं कर लेता. अब आप ही बताइए इस बेहूदे प्रश्न का मैं क्या जवाब देता.’’
‘‘कह देते कि, बस, आप के आदेश का इंतजार था,’’ यह कह कर अमृता जोरों से हंस पड़ी. बात हंसी में उड़ गई. पर हफ्ता भी नहीं बीता था, अपनी ही बिल्ंिडग के गृहप्रवेश की एक पार्टी में चुलबुली फैशनपरस्त गरिमा ने उस से पूछ ही लिया था, ‘‘मैडम, सुना है आप शादी करने जा रही हैं, मेरी बधाई स्वीकार कीजिए.’’
‘‘मैं तो आज पहली बार सुन रही हूं. इस पर कभी सोचा नहीं. पर कभी अगर सोचा तो आप से बधाई लेना नहीं भूलूंगी.’’
उचित जवाब दे देने के बाद भी अमृता अपनी खी झ से उबर नहीं पाई. आसपास खड़ी महिलाओं की आंखों में छिपी व्यंग्य की खुशी को नकारना जब उसे कठिन जान पड़ने लगा तो वह पेट की तकलीफ का बहाना बना मेजबान से छुट्टी मांग घर चली आई.
दूसरे दिन शाम की चाय पीते हुए राजेशजी बहुत खुश नजर आ रहे थे. अमृता से नहीं रहा गया, तो वे पूछ ही बैठी, ‘‘आज आप बहुत खुश हैं राजेशजी?’’
‘‘हां, आज मैं बहुत खुश हूं. मु झे एक ऐसी किताब हाथ लगी है कि मु झे लगने लगा है कि अगर मैं चाहूं तो अपना भविष्य अपने अनुकूल बना सकता हूं.’’
‘‘यह तो बहुत अच्छी बात है पर कैसे?’’
‘‘केवल अपनी बात को अपने अचेतन मन तक पहुंचाना है और पहुंचाने के लिए उसे बारबार दोहराना है और खासकर सोने से पहले जब चेतन मन की पकड़ थोड़ी ढीली पड़ जाती है तब जरूर दोहराना है.’’
‘‘किताब का नाम?’’
‘‘पावर औफ अनकौनशियस माइंड.’’
उस की उस दिन की शाम उसी किताब के बारे में सुनते हुए बीती थी. राजेशजी बहुत अच्छे वक्ता थे. उन के बोलने की शैली कुछकुछ कथावाचक जैसी हुआ करती थी जो श्रोता को अपनी गिरफ्त में कैद कर लेती थी. उस दिन उन्होंने सम झाया कि अपने मन को समरस, स्वस्थ, शांत और प्रसन्न रखने की कोशिश कीजिए. आप कोशिश कर के अपने अंदर शांति, प्रसन्नता, अच्छाई और समृद्धि का संकल्परूपी बीज बोना शुरू कीजिए तब देखिए कि चमत्कार क्या होता है, कैसे असंभव संभव हो जाता है, मन की खेती कैसे लहलहा उठती है.’’
उस दिन की शाम तो अच्छी तरह कट गई पर पूरे हफ्ते पिछली घटना उस के अचेतन मन पर छाई रही. अमृता ने बहुत कोशिश की पर वह इसे हटा नहीं पाई थी. जब वह ऐसी मानसिकता के भंवर में उल झी घूम ही रही थी उसी समय सुषमा उस से मिलने चली आई थी. औपचारिकता खत्म होने के बाद कौफी के प्यालों के साथ जब बात शुरू हुई तो बातों को यहां तक आना ही था. सो, बातें यहां चली आईं. सारी बातें सुन कर सुषमा पूछ बैठी, ‘‘जब तुम राजेशजी को इतना पसंद करती हो तो तुम उन से शादी क्यों नहीं कर लेतीं?’’
‘‘शादी क्यों…?’’ अमृता उल झने के तेवर में पूछ बैठी.
‘‘साथ के लिए.’’
‘‘आप को अपना नौकर भी अच्छा लग सकता है पर उस से तो कोई शादी की बात नहीं करता. मेरी सम झ से शादी के लिए शारीरिक आकर्षण बहुत जरूरी है. संतानोंत्पत्ति की इच्छा भी जरूरी है, आर्थिक आवलंबन भी एक मजबूत कड़ी है और तब समाज की भूमिका की जरूरत पड़ती है. पर अब मेरी उम्र में तो कोई शारीरिक आर्कषण बच नहीं गया है. बच्चा अब मैं पैदा कर नहीं सकती, आर्थिक आवलंबन के लिए मेरी पैंशन ही काफी है. फिर शादी क्यों?’’
‘‘अच्छे से समय काटने के लिए सम झ लो.’’
‘‘सुषमा तुम भी मेरी उम्र की हो. तुम सम झ सकती हो कि शादी के शुरुआती दिनों में अगर शरीर का आकर्षण न रहता तो एडजस्टमैंट कितना कठिन होता. इस के अलावा मां बन जाना एक अलग आर्कषण का विषय रहता है. उम्र कम रहती है, तो आप के व्यक्तित्व में बदलाव की गुंजाइश भी रहती है, आप की सोच बदल सकती है, आप का आकार बदल सकता है पर इस उम्र तक आतेआते सबकुछ अपना आकार ले चुका होता है. इस में बदलाव की गुंजाइश बहुत कम हो जाती है.’’
‘‘पर बदलाव की बात कहां आती है, तुम्हें राजेशजी अच्छे लगते हैं.’’
‘‘एक फैज अहमद फैज की गजल है, ‘मु झ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग, और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा. राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा…’ और फिर मैं राजेशजी का एक ही पक्ष जानती हूं वे बातें अच्छी करते हैं. इस के अलावा मैं उन के बारे में कुछ भी नहीं जानती, मसलन उन की रुचियां क्या हैं, रिश्तों की गंभीरता उन की नजर में क्या है आदि मैं नहीं जानती. तब, बस, एक छोटे से रिश्ते के सहारे एक इतने अनावश्यक रिश्ते से मैं अपने को क्यों बांध लूं, क्या यह बेवकूफी नहीं होगी?’’
अमृता सांस लेने के लिए रुकी, फिर कहा, ‘‘राजेशजी की बात छोड़ो, मैं अपनी बात कहती हूं, मेरे बिस्तर का तकिया भी कोई दूसरी जगह रखे तो मैं चिढ़ जाती हूं. वर्षों से मैं अपनी चीजें अपनी जगह रखने की आदी हो गई हूं. ऐसे में दिनरात दूसरे का दखल न पटा तो…?’’
‘‘तो तुम्हारे पास दूसरा रास्ता क्या है?’’
‘‘क्यों, मैं जैसी रहती आई हूं वैसे ही रहूंगी. हम एक अच्छे दोस्त की तरह क्यों नहीं रह सकते. बस, केवल इसलिए न कि राजेशजी मर्द हैं और मैं औरत. पर इस उम्र तक आतेआते हम केवल इंसान ही बचे, न औरत न मर्द. और 2 इंसानों को एकदूसरे की हरदम जरूरत पड़ती है. अगर यह नहीं होता तो जंगल से होता हुआ समाज का यह सफर यहां तक न पहुंचता.’’
‘‘लोग बुरा कहेंगे तो?’’
‘‘अब युग बदल गया है सुषमा. अब नए लड़के लिवइन के रिश्ते बिना शादी के जीने लगे हैं. उन्हें कानूनी संरक्षण भी प्राप्त है. हम तो 60 के ऊपर के लोग हैं. हमारी तो बस इतनी ही मांग है कि समय अच्छी तरह से कट जाए और एक की गर्दिश में दूसरा खड़ा हो जाए. वह भी इसलिए क्योंकि आधुनिक भारत में न तो समाज और न सरकार गर्दिश में खड़ी होती है.’’
‘‘पर लोग तो कहेंगे,’’ सुषमा अब जाने के लिए उठ खड़ी हुई.
‘‘कब तक?’’
‘‘जब तक उन की इच्छा होगी.’’
अभी अमृता सुषमा को छोड़ने के लिए खड़ी ही हुई थी कि उस की नजर सीता पर पड़ी. उस ने इशारे से जानना चाहा कि उस के असमय आने का क्या कारण है, ‘‘कुछ नहीं मेमसाहब, बाद में बताऊंगी.’’
‘‘अरे, ये अपनी ही हैं. बता क्या बात है?’’
‘‘वो नए फ्लैट में जो नया जोड़ा आया है न, उन के यहां आज मारपीट हुई है. साहब का किसी और औरत के साथ और मेमसाहब को किसी और से मोहब्बत है.’’
अमृता ने एक गहरी सांस लेते हुए सुषमा की तरफ देखा जैसे वे कहना चाहती हों, ‘देखा, बातों का विषय. अब मैं नहीं, कोई और हो गया है समाज के फ्रेम में. एक ही तसवीर हमेशा जकड़ी नहीं रहती. तसवीरें बदलती रहती हैं. आज एक, तो कल दूसरी. बस, थोड़े समय का यह खेल होता है. शायद, अमृता यह बात खुद को भी सम झाना चाहती थी.