सरित प्रवाह, फरवरी (द्वितीय) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘धर्म का अधर्म’ बड़े मनोयोग से पढ़ी. यह सचाई से ओतप्रोत है. धर्म के नाम पर घृणा करना बचपन से सिखा दिया जाता है. भारत में हिंदूमुसलिम दंगों के लिए केवल धर्म जिम्मेदार है. यहां तक कि अमेरिका जैसे विकसित देश में भी धर्म के केंद्र यानी चर्चों का प्रभाव इतना है कि लोग किसी के दोष के लिए उस के धर्म के हर व्यक्ति को बराबर का दोषी मानना शुरू कर देते हैं.

दरअसल, इस की जड़ में वह धर्म प्रचार है जो चर्चों में होता है, उन की वैबसाइटों पर होता है. हर धर्म वाले अपने धर्म को श्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को कमतर आंकते हैं. धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले भी कम जिम्मेदार नहीं हैं.

कैलाश राम, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘शिक्षा का व्यवसायीकरण’ पढ़ी. सरकार ‘शिक्षा का अधिकार सब के लिए’ का नारा देते हुए जोरशोर से सर्व शिक्षा अभियान चला रही है मगर इस की कड़वी सचाई यह है कि 10वीं तक शिक्षा सब के लिए और उस के बाद की शिक्षा सिर्फ अमीरों और धनवानों की औलादों के लिए ही है.

मैडिकल कालेज में प्रवेश चाहिए तो 40 लाख, इंजीनियरिंग में प्रवेश चाहिए तो 5 लाख, एमबीए में प्रवेश चाहिए तो  4-5 लाख रुपए चाहिए. बीएड, आईटीआई, वोकेशनल कोर्स भी बेहद महंगे हो गए हैं. अमीरों के बच्चे लाखों रुपए फीस और डोनेशन भर के डाक्टर, इंजीनियर, वकील और आला अफसर बनेंगे जबकि गरीबों के बच्चे किसी तरह 10वीं तक ही पढ़ कर मारेमारे फिरेंगे और वर्षों नौकरियों का इंतजार करेंगे.

उद्योगपतियों, अरबपतियों के आदेश पर सरकार का मंसूबा यह है कि रोजाना की दुनियादारी चलाने के लिए चपरासी, क्लर्क, पोस्टमैन, बसों के ड्राइवर व कंडक्टर, ट्रैफिक हवलदार, कंपाउंडर, टाइपिस्ट, रेलवे के चौथे दरजे के कर्मचारियों का होना जरूरी है और उन्हें कुछ पढ़ालिखा भी जरूर होना चाहिए. इसलिए गरीबों के लिए 10वीं तक पढ़ाई मुफ्त और जरूरी कर दी.

शिक्षा पूरी तरह से कारोबार बना दी गई है. सरकार यदि सच्चे मन से सही माने में सब के लिए शिक्षा चाहती है तो वह हाई स्कूलों को ग्रांट दे ताकि वे अपने सभी विद्यार्थियों के लिए उच्च शिक्षा का इंतजाम कर सकें. सरकारी स्कूलों का स्तर सुधारा जाए और सरकारी मैडिकल व  इंजीनियरिंग कालेज भी खोले जाएं. डोनेशन खत्म किया जाए. उच्च शिक्षा केवल उच्चवर्ग के लिए न हो बल्कि समाज के हर वर्ग, खासतौर से गरीबों के लिए भी उच्च शिक्षा के पूरे अवसर मुहैया कराए जाएं.

महफूज उर रहमान, मुंबई (महा.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘गडकरी की हिम्मत’ पढ़ी. वैसे तो कुछ यों था कि ‘नितिन गडकरी ने ईडी अधिकारियों, जिन्होंने उन के फिर से भाजपा अध्यक्ष निर्वाचित किए जाने के ठीक एक दिन पूर्व, उन की कंपनी कार्यालयों में छापे डाले थे, को धमकी दी थी, मगर आप ने दो कदम आगे बढ़ कर उन पर अन्य 4 विभागों को धमकाने का आरोप लगा दिया. किसी के भी विरुद्ध अनावश्यक आरोप लगाना उचित नहीं कहा जा सकता.’ हां, गडकरी को उक्त ‘धमकी’ नहीं देनी चाहिए थी.

कहानी ‘अनुत्तरित प्रश्न’ में लेखक ने जो कहना चाहा है वह हमारे तथाकथित सभ्य समाज के ठेकेदारों या फिर घटना के बाद उपजे ‘युवा आंदोलन’ के अनाम सूत्रधारों के गले भी नहीं उतरेगा. क्योंकि संबंधित राष्ट्रव्यापी प्रतिक्रिया ‘दोगली मानसिकता’ ही उजागर करती नजर आ रही है.

यह साफ है कि ऐसी घटनाएं न केवल कल हो रही थीं बल्कि आज भी हो रही हैं. मगर कहानी के पात्र लक्ष्मी द्वारा अपनी मालकिन को आपबीती सुनाना, ऐसा लगता है जैसे समाज के मुंह पर थप्पड़ मार कर पूछा गया हो कि कोई बताए कि ऐसा है और ऐसे गंभीर मसलों को भी क्यों हमारा समाज ‘जायजनाजायज’ के तमगों से नवाज कर कौन सा समाजोत्थान या महिला उत्थान कर रहा है?

ऐसे अनुत्तरित सवालों का यह आशय तनिक भी नहीं है कि जो जनाक्रोश घटना के विरुद्ध उठा, वह गलत था, बल्कि सवाल यह है कि पीड़ा तो लक्ष्मी जैसी दबीकुचली, निर्बल निरीह महिलाओं को भी आजीवन कचोटती है, मगर उन के लिए न्याय की मांग कब और कौन करेगा?

टी सी डी गाडेगावलिया (नई दिल्ली)

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रसोई में महकते रिश्ते

फरवरी द्वितीय में प्रकाशित लेख ‘रिश्तों को चटपटा बनाती रसोई’ बहुत पसंद आया. मैं सरिता को इस बात के लिए धन्यवाद देती हूं कि हर बार वह ऐसे टौपिक लेती है जिन के बारे में कहीं पढ़ने को नहीं मिलता. जहां तक रसोई और रिश्तों की बात है, तो वह कहावत है कि मर्दों के दिल में जाने की राह पेट से हो कर गुजरती है. यदि हम रसोई में ही अपने रिश्तों को सही कर लें तो रिश्तों के खराब होने की नौबत ही न आएगी. फिर यह रिश्ता चाहे पतिपत्नी का हो, सासबहू का हो या कोई दूसरा. एक स्त्री का आधा जीवन रसोई में ही बीत जाता है. अब ऐसे में यदि हम रसोई के अंदर ही रिश्तों को भी अपनी सूझबूझ से संभाल लें तो रसोई के साथसाथ हमारे रिश्ते भी चटपटे हो जाएंगे.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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बिजली का करंट

अंगरेजों ने इस देश से जब कूच किया तो उस समय विद्युत का उत्पादन, वितरण जैसे कार्य निजी संस्थाओं के पास थे. सरकार का उन में कोई अधिकार नहीं था. उस समय की सरकार ने अपने द्वारा बनाए कानून के आधार पर 50 वर्ष के लिए किसी भी व्यक्ति को विद्युत वितरण करने का परवाना दिया हुआ था. उन पर कोई रोक नहीं थी.

भारत सरकार ने 17 सितंबर, 1948 के दिन विद्युत वितरण का कारोबार पूरे देश में अपने हाथ में ले लिया. ऐसा क्यों किया गया, इस का उत्तर आज भी सरकार के पास नहीं है. इन के पास कोई साधन नहीं थे.

26 जनवरी, 1950 के दिन गणतंत्र दिवस मना कर भारत को राज्यों का संघ घोषित कर दिया गया. धन की जरूरत के लिए विद्युत शुल्क लागू कर दिया गया. यह शुल्क राज्य सरकारें वसूल करती हैं. जबकि विद्युत शुल्क लगाने का अधिकार  आज भी किसी भी अनुसूची में नहीं है. राज्य सरकारें व केंद्र सरकार सब को मूर्ख बना रही हैं.

1958 में नया कानून बना कर यह शुल्क वसूलने का काम विद्युत वितरण कंपनियों को दे दिया गया. अनुच्छेद 23 के अंतर्गत कोई भी सरकार किसी से बिना मेहनताना दिए कोई कार्य नहीं करवा सकती. इसलिए इन विद्युत वितरण करने वाली संस्थाओं को राज्य सरकारों ने अपने कोष से एक प्रकार का मेहनताना देना स्वीकार कर लिया. बंबई विद्युत शुल्क अधिनियम 1958 में इस का जिक्र है. इसे हम ने आरटीए अधिनियम 2005 के अंतर्गत हासिल किया है.

उस के बाद जब इस राज्य का नाम महाराष्ट्र रखा गया, तो राज्य सरकार ने अलग से विद्युत बिक्री ‘कर’ उस के अलावा पूरे राज्य में लगा दिया, क्योंकि मुंबई को छोड़ अन्य जगह राज्य की इकाई विद्युत वितरण कर रही थी. उन पर यह शुल्क पहले लागू नहीं था. उधर, सरकार से विद्युत कंपनियों को मेहनताना नहीं मिल रहा.

राज्य सरकार ने विद्युत शुल्क और विद्युत पर बिक्री कर बढ़ा दिया. जबकि उस का कोई हिसाबकिताब उस के पास नहीं है. उलटे, यह काम अब निजी कंपनियों को देने की तैयारी की जा रही है. राज्य सरकार का विद्युत प्रणाली पर अब कोई अधिकार नहीं है. महाजैन को, महापारेषण और महावितरण कंपनियां सरकार से अपना हक मांग रही हैं. निजी कंपनियां इन से कुछ नहीं मांग रहीं, केवल सुचारु  रूप से काम करने की छूट मांग रही हैं जबकि आम उपभोक्ता सही और सस्ती दर पर अपने निवास, व्यापार के लिए विद्युत की मांग कर रहा है.

राज्य सरकार द्वारा स्थापित विद्युत नियामक आयोग यानी मर्क सरकार के दबाव में काम कर रहा है. सरकार अपना फायदा देख रही है. विद्युत कम भाव पर आम जनता को न मिल सके, इस का उपाय ढूंढ़ रही है.

 रक्षपाल अबरोल, मुंबई (महा.)

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एकता की अनेकता

फरवरी (द्वितीय) अंक में टैलीविजन व फिल्म की जानीपहचानी हस्ती एकता कपूर के साथ हुई बातचीत पढ़ी. एक सवाल ‘क्या टीवी सीरियल में औरत की नकारात्मक छवि उस के प्रति सम्मान को कम कर रही है’ के उत्तर में एकता कपूर ने कहा, ‘आप मुझे बताइए कि क्या समाज में वैसी औरतें नहीं हैं? हम तो जो हकीकत है वही दिखाते हैं. घर, बाहर, दफ्तर हर स्तर पर आप को यथार्थ में ऐसा देखने को मिलेगा.’

आज के समय में जब हर तरफ घोटालों और रेप जैसे हादसों को समाप्त करने या रोकने की कोशिश हो रही है, एकताजी का जवाब गले नहीं उतर रहा. यदि समाज में खराब औरत और पुरुष हैं भी, तो क्या हमारा फर्ज यह नहीं बनता कि हम फिल्म या टीवी सीरियल में उस को और उजागर न करें. क्या समाज में सकारात्मक लोग या परिवार हैं ही नहीं? फिर ऐसी क्या अड़चन है जो हमें सीरियल में खलनायिका दिखानी ही होती है? आजकल दिखाए जाने वाले सीरियलों में ‘दीया और बाती’ इस की जीतीजागती मिसाल है.

दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को हुए गैंगरेप हादसे पर काफी चर्चाएं हुईं, नारी की सुरक्षा का प्रश्न उठा और यह भी निष्कर्ष निकाला गया कि यदि देश में हालात सुधारने हैं तो केवल सरकार के ऊपर ही इस का उत्तरदायित्व न छोड़ा जाए बल्कि प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक विभाग भी इस की जिम्मेदारी ले. इस को संभव करने के लिए जरूरी है कि हम अपनी सोच बदलें और केवल अपना ही नहीं समाज और देश का भी ध्यान रखें.

ओ डी सिंह, वडोदरा (गुजरात)

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धर्मांधता

फरवरी (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कहानी ‘उत्तराधिकारिणी’ में जिस तरह से मठाधिकारियों या धर्माधिकारियों के चेहरों पर पड़े परदों को उठा कर उन के चरित्र का परदाफाश किया है, उसे दुस्साहसिक कदम न कह कर अति सराहनीय कदम कहा जाएगा. कहानी पढ़ कर घोर आश्चर्य हुआ कि अपने उपदेशों द्वारा बेशक धर्म के ये अलंबरदार अपने भक्तों को हर नारी में अपनी मां, बहन व बेटी के अक्स दिखाते हों मगर स्वयं वे नारी को न केवल अपनी स्वार्थपूर्ति का साधन समझते हैं बल्कि उसे मात्र ‘भोग्या’ समझ कर इस्तेमाल कर व स्वहितों की पूर्ति हेतु, उसी नारी को वेश्या रूप में दूसरों को परोसने से भी नहीं हिचकते.

यह सच है कि पांचों उंगलियां कभी बराबर नहीं होती हैं, मगर यह भी तो सच है कि तालाब को गंदा करने के लिए एक मछली काफी होती है. ऐसे में जो सवाल मन में उठता है वह यह है कि धर्म के नाम पर अंधविश्वास में डूबे भक्तजनों को कौन समझाए कि जिन धर्मगुरुओं की भक्ति में वे रातदिन लीन रहते हैं, वे मात्र ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ को ही चरितार्थ कर रहे होते हैं. वे स्वयं किस राह जा रहे हैं, उन्हें ‘भेड़चाल’ के समर्थक भला चैक करेंगे भी क्या?

ताराचंद देव रैगर (नई दिल्ली)

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आम बजट और महिलाएं

देश के महिला वर्ग को वित्त मंत्री के आम बजट से घोर निराशा हुई. यह बजट हम महिला वर्ग के लिए किसी भी नजरिए से संतोषजनक नहीं है. बजट में सिर्फ बड़ेबड़े वादों की चमकदमक है वादे पूरे होंगे कि नहीं, इस का कोई भरोसा नहीं है. एक तरफ तो वित्त मंत्री महिलाओं को ‘निर्भया फंड’ और ‘वुमेंस बैंक’ का लालच दे रहे हैं वहीं दूसरी तरफ रसोई गैस, बिजली का बिल, पैट्रोलडीजल और भी महंगा करने का ऐलान कर रहे हैं. बजट पेश होने से पहले, मध्यवर्गीय जनता व महिला वर्ग को काफी उम्मीद थी कि इस बजट से महंगाई से राहत मिलेगी, लेकिन हुआ बिलकुल इस के विपरीत. सरकार के इस आम बजट से हम महिलाओं का होम बजट डगमगाने लगा है.

देश की वित्तीय स्थिति को मजबूत बनाने के लिए, आम जनता पर महंगाई का बोझ क्यों लादा जा रहा है? गरीब को और गरीब व महिलाओं को और कमजोर क्यों किया जा रहा है? बजट में मिडिल क्लास जनता को कोई राहत क्यों नहीं दी गई? डीजल और भी महंगा क्यों किया जा रहा है?

ऐसे कई अनगिनत सवाल हैं हम महिलाओं के मन में, क्या जनता की आर्थिक समस्याओं का कोई उपाय है वित्त मंत्री के पास?

सरिता भूषण, वाराणसी (उ.प्र.) 

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