आज बहुत सुबह पौ फटने के पहले ही नींद खुल गई थी रमण की, फिर नींद क्या आती, वह ही आ गई थी. उस की सांसों की गरमाहट बिलकुल समीप महसूस होने लगी और खुशबू से रमण का तनबदन तरबतर होने लगा. उस का पास आना और हौले से मुसकरा जाना होंठ को तिरछा करते हुए, पलकों को झपकाना उस के मनमहल में सैकड़ों छोटीछोटी घंटियां टुनटुना गया. वह हाथ बढ़ाता और वह हौले से बाल झटक देती, गीले बालों से मोती बिखर गए उस के चेहरे पर.

“अरे, आज इतनी सुबहसुबह तुम ने नहा भी लिया…” कहते हुए रमण ने अपने चेहरे पर पड़ी उस की जुल्फों से झरती मोतियों को हथेलियों में समेटने की कोशिश करने लगा, तो अहसास हुआ कि ये तो उस के ही नयनों से बहते अश्क हैं, जो चेहरा भिगो रहे हैं और वो… वो… वो तो कहीं नहीं हैं.
उस का सपना टूट जाता है और उठ कर बिस्तर पर बैठ जाता है, खिड़की के परदे सरका कर वह बाहर झांकता है, सचमुच अंधेरा है पूरब में. अभी पौ भी नहीं फटी है. सब सच है, बस उस का होना ही नहीं सच है…

‘उठ जाऊं या फिर से सोने की कोशिश करूं, क्या फर्क पड़ता है,’ रमण ने सोचा.

रात जब बिस्तर पर आया तो देर तक रम्या की यादों के साथ ही रहा. उस वक्त उस की कमी दिल में हलचल मचा पलकों को झपकाने तक में बाधक हो रही थी. देर तक उस के होने के एहसास के साथ वह आंखें भींचे पड़ा रहा था. वह उस के पहलू में करवटें बदल रही थी, कभी छन्न से चूड़ियां बजतीं तो कभी उस की पायल की रुनझुन बेचैन करने लगती. कभी रम्या की रेशमी पल्लू उस को छूती सरसराती हुई सिमट जाती.

कभी वह पास आती, कानों में कुछ फुसफुसाती हुई कहती, रमण दम साधे रहता. उसे मालूम था कि आंखें खोलीं या जबान, तो वह फिर गायब हो जाएगी. रम्या के बगल में बस होने के एहसास से वह आनंदित होता, रोमांचित होता रहता. पर उस के होने का एहसास भी नींद नहीं आने देता. समीप और न होने की सचाई भी बिलकुल यही काम करती. नींद न आनी होती है न, वह आती है चाहे बहाना कुछ भी हो.

अगर रम्या की मौजूदगी का भ्रम न हो, रात की नीरवता में घड़ी की सुइयां भी अपनी टिकटिक से मनहूसियत घोलने लगती हैं. बाहर चली हलकी सी हवा भी शोर मचा नींद भंग करने की दोषी हो जाती है. रम्या के होने से उसे घड़ीघड़ी प्यास या टायलेट जाने की भी जरूरत नहीं होती है, वरना ये दोनों क्रियाएं रातभर उस से उठकबैठक करवा दें.

एक सुकून भरा पल होता है, जब वह अपनी दिवंगत पत्नी को यथार्थ में महसूस करता है. जानतेबूझते हुए भी रमण उस स्थिति में जाने को व्यग्र रहता है, जब उस की रम्या उस के पास आ बैठती है. दिल खाली कर लेता है वह उस के संग, जो बातें दिनभर कुलबुलातीं रहती हैं जी में, कोई तो सुनने वाला होना चाहिए. नातेरिश्तेदार या बच्चों से क्या एक ही बात हर दिन दोहराना कि बहुत खालीपन है रम्या के बिना. और बाकी सारी बातें तो बेमानी ही हैं.

शुरू के महीने बहुत विचलन भरे थे रम्या के बिना, मानो शरीर में जान नहीं, भूख नहीं, प्यास नहीं. दिन और रात का अंतर खत्म हो चुका था, अपने होने का बोध समाप्त था. शरीर तो रम्या का फुंका था, घाट पर जान उस के शरीर से निकल गई थी. निष्प्राण, निष्प्रभ वह पड़ा रहता जीनेमरने के बीच कहीं, भावहीन, रसविहीन, संज्ञाशून्य.

दोस्तों, रिश्तेदारों, बच्चों सब के साथ रह कर रमण देख चुका था. जो शून्यता जीवन में आ चुकी थी उस की कोई भरपाई नहीं थी. दूसरी जगह उसे बिना मतलब एक औपचारिक व्यवहार करना होता. न हर वक्त रो कर किसी और का कीमती पल वह नष्ट करना चाहता था, न दूसरे किसी की बातें उसे छूतीं. जिन दोस्तों की संगत में वह घंटों मगन रहता था, अब न भाती, थोड़ी ही देर में जीवन की निस्सारिता से वह ऊब वहां से भागने को तत्पर होने लगता. पहले बेटेबहू, बेटीदामाद व उन के बच्चों के साथ खुद को परिपूर्ण समझता था, अब एक रम्या ने क्या जीवन से हाथ छुड़ाया, उस का भी सभी रिश्तों से मानो मन भर गया. नहीं लुभाती अब उसे पोती के गीत या कविता, मन नहीं होता कि देखे कि नाती अब कैसा दिख रहा है. बच्चों की नौकरी और औफिस की बातें उसे उबाऊ लगतीं, उस का जी बस और बस रम्या में लगा रहता. नहीं ऊबता उस एलबम को हजारवें बार भी पलट कर, जिस में उस की और रम्या की तसवीरें भरी पड़ी थीं. नहीं ऊब होती उसे बारबार वह वीडियो देखने में, जिस में रम्या ने डांस किया था बेटे की शादी के वक्त.

रम्या की रसोई उस की पुरानी महरी ही संभाल रही थी, चैंक उठी थी वह जब रमण ने उसे इडलियां बनाने को कहा था, क्योंकि उस ने तो कभी रमण को इडली खाते देखा ही नहीं था. इडली तो भाभी को ज्यादा पसंद थी. फिर धीरेधीरे उस ने गौर किया कि भइया अब सिर्फ वही खाना चाह रहे हैं, जो भाभी को पसंद था. हर दिन टेबल से 2 प्लेटें उठाते हुए वह चैंक जाती बारबार, जब दोनों ही प्लेट में जूठा लगा देखती.

घर का अकेलापन ज्यादा भाता, दुनिया से पीठ कर ही रहने की इच्छा प्रबल होने लगी. रम्या इतने आननफानन में यों ही चल बसी थी कि रमण का मन अब तक स्वीकार नहीं कर पाया था. ऐसे भी कोई जाता है भला, एक दिन सुबह उठे और अचानक गिर पड़े. अस्पताल पहुंचते ही डाक्टर मृत घोषित कर दे, उस ने तो न सुना था ऐसे किसी का गुजर जाना. अरे, मरने का कुछ तो बहाना होना चाहिए न? न सर्दी, न बुखार मानो बस सो कर उठी और चल बसी. जब तक शरीर बर्फ सा न हो गया, उस ने किसी को छूने न दिया था. अरे, अभी तो जिम्मेदारियों का बोझ उतरा था, अभी दो महीने पहले तक तो अम्मां की सेवा कर रही थी. उस के पहले नाती के जन्म के बाद एक साल तक उसे पाला था.

‘ऐसे कोई जाता है क्या,’ रमण बड़बड़ाता रहता, मानो कहीं न कहीं उस का कोई दोष रहा होगा, जो रम्या इस तरह चल बसी. वह हर वक्त बीते पलों को ध्यान से गुनता कि कभी क्या रम्या ने कुछ बताया तो नहीं था कि उसे कोई तकलीफ है या उस ने कभी नजरअंदाज तो नहीं किया उस की तकलीफों को. जाने क्यों उसे हर वक्त लगता कि कहीं न कहीं वह गुनाहगार है, उस के इस तरह गुजरने के लिए.

इसीलिए रमण कहीं नहीं जाना चाहता, वह रम्या को छोड़ किसी बात पर ध्यान देना नहीं चाहता था. उसे दिक्कत हो जाती ध्यान केंद्रित करने में कहीं और, अतः अपनी जगह पर रहना ही बेहतर है. अब वहां 2-2 प्लेटें लगा सामने रम्या के बैठे रहने की कल्पना तो नहीं कर पाता न. सचमुच उसे सुख मिलता, जब वह अकेले में टेबल पर 2 प्लेटें लगा कर बैठता, रम्या की पसंद की डिश रखता और महसूस करता कि वह सामने मुसकराती हुई बैठी है, वरना महीनों उस के हलक से खाना नहीं उतरा था, फिर इस व्यवस्था में झूठा ही सही, उसे भी सुकून मिलने लगा.

यों ही खयालों में खोएखोए वह बिस्तर पर बैठा रह गया था कि दरवाजे पर लगी घंटी की आवाज से उस की तंद्रा भंग हुई. महरी आई थी. आते ही उस ने सूचना दी, “आज दोपहर तक दोनों बच्चे आ रहे हैं भइया.”

यह सुन कर रमण चैंक उठा, “तुम्हें किस ने बताया?”

अब रमण असहज होने लगा. उफ्फ, उन के आने से रम्या उस से दूर हो जाएगी, कैसे वह ध्यान कर पाएगा. उसे नहीं मिलना था किसी से.

“कांता बाई तुम ने क्या कहा है बच्चों से…?’’ रमण परेशान होने लगा था. कहीं दो प्लेटों वाली बात तो नहीं बता दी इस ने. उफ्फ…
सचमुच दोपहर तक दोनों बच्चे घर पहुंच गए. इस बार दोनों अकेले ही आए थे. आते ही दोनों पापा को घेर कर बैठ गए. एक पल को अकेले नहीं छोड़ रहे थे. रात होतेहोते रमण उकता गया. ये दोनों कितना बोल रहे हैं, रम्या की उपस्थिति महसूस न कर पाने की झल्लाहट उस पर हावी होने लगी.

सुबह नींद खुली तो देखा 9 बज रहे थे, इतनी देर कैसे सोते रह गया ?

रमण विचार कर ही रहा था कि कांता बाई और बेटे की बातचीत कानों में पड़ी. उसे समझते देर न लगी कि कल उसे नींद की दवा दे कर सुलाया गया था और अब किसी मनोचिकित्सक के यहां ले जाने की तैयारी हो रही है.

4 साल हो गए मम्मी को गए… पापा खुद में खोते जा रहे हैं… हमारे साथ रहना नहीं चाहते… कैसे अकेले छोड़ दें… अच्छा हुआ कि आप ने बता दिया…

शब्द कटकट कर पहुंच रहे थे. रमण ने दुखी मन से आंखें बंद कर लीं फिर से, रम्या की उपस्थिति का अनुभव अनिवार्य लग रहा था. क्यों नहीं भान हो रही उस की उपस्थिति? रमण परेशान होने लगा कि उसे सुनाई दी चूड़ियों की छनछन पर कहीं दूर से आंचल की सरसराहट का भी अनुभव हुआ, पर वह भी कहीं दूर से, बिलकुल वहीं से जहां बच्चे कांता बाई से बातें कर रहे थे.
“तो क्या रम्या अपने बच्चों के आसपास है?”

अचानक रम्या की खनकती सी मधुर आवाज उस के कानों तक आई…

उनींदापन अब तक हावी था कि फिर लगा कि कमरे के बाहर सचमुच रम्या ही धीमेधीमे बोल रही है कहीं, अचानक रमण को भान हुआ कि वह कैसा होता जा रहा है? बेटे के द्वारा मनोचिकित्सक के पास ले जाने वाली बात से वह गंभीर हो उठा. क्या सचमुच कुछ मानसिक विकार उत्पन्न होने लगे हैं उस में? इस तरह काल्पनिक दुनिया में जानबूझ कर जीना एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए ठीक नहीं, पर… पर…
अचानक उसे अनुभव हुआ कि वह कितना स्वार्थी हो गया है, बच्चों ने भी तो अपनी मां को खोया है, वे भी तो वैसे ही व्यथित होंगे जैसे वह, पर उन्हें तो दुनियादारी निभानी शेष ही है, नौकरी, घरगृहस्थी सब देखनी है. उस के जैसा अवकाशप्राप्त तो नहीं हैं.

रमण ने आंखें खोल दीं और बच्चों की तरफ बढ़ चला. रम्या की आवाज का आकर्षण भी उसे बाध्य कर रहा था कि कमरे से बाहर झांके.

रसोई के दरवाजे के पास महफिल सजी थी तीनों की और उस की ही चर्चा चल रही थी, सब परेशान थे.

“ओह, ये बेटी बोल रही है, उस की आवाज सचमुच अपनी मां की ही तरह है, दूर से तो ऐसा ही भान हो रहा था,” रमण को लग रहा था कि बिटिया बोलती रहे.

“पापा, आप उठ गए, नींद आई आप को?” बेटे ने उसे देखते ही लपक कर पूछा.

“हां बेटा, शायद महीनों, वर्षों बाद ऐसी नींद आई होगी,” कहतेकहते रमण का ध्यान बेटे की नाक और होंठों की तरफ अटक गया, हूबहू रम्या की ही तरह तीखी नाक और पतले होंठ. शायद माथा भी और ठुड्डी भी, आज वह अलग नजर से बच्चों को घूर रहा था. बिलकुल अपनी मम्मी की ही तरह बेटी ने कलाई को हिलाया कि उस की चूड़ियां बज गईं.

“ओह, वाकई रम्या तो यहीं अपने कोखजायों में मौजूद है, उस की हाड़मांस से निर्मित उस के ही अंश हैं. मैं बेकार आंखे बंद कर दुनिया से छिप रम्या को खोज रहा था,“ रमण को अचानक मानो बोध हुआ. वह नई निगाह से बच्चों को फिर से देखने लगा और हर कोण में कहीं न कहीं रम्या झलकती रही.

“आज देर तक सोता रह गया, पर जब जागो तभी सवेरा,” कहता रमण अपनी दिनचर्या शुरू करने की कोशिश करने लगा.

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