लड़कियों, खासतौर से नाबालिगों, का घर से भागना हमेशा से ही बड़ी परेशानी रही है. लड़कियां आखिर क्यों घर से भागने पर मजबूर हो जाती हैं. इस के पीछे जो वजहें जिम्मेदार मानी जाती रहीं हैं उन में खास हैं गरीबी, अशिक्षा, घरेलू कलह, घर में बुनियादी सहूलियतों का न होना, घर में प्यार की जगह नफरत और अनदेखी किया जाने और रातोंरात हेमा मालिनी व माधुरी दीक्षित बन जाने की उन की अपनी ख्वाहिश. लेकिन अब यह पूरा सच नहीं रहा है, कुछ बदलाव इस में आ रहे हैं.

इंडियन इंस्टिट्यूट औफ मैनेजमैंट यानी आईआईएम इंदौर की एक ताजी रिपोर्ट की मानें तो आजकल घर से भागने वाली अधिकतर लड़कियां बाहरी चकाचौंध की गिरफ्त में आ कर नहीं भाग रही हैं और न ही उन के सिर पर अब फिल्म ऐक्ट्रैस बनने का भूत सवार रहता है. हां, यह जरूर है कि उन के घर से भागने की अहम वजहें घर में होने वाली रोकटोक, झगड़े और दीगर परेशानियां हैं. ज्यादातर लड़कियां अब अपना कैरियर बनाने के लिए भाग जाती हैं क्योंकि घर पर रहते हुए उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय नजर आता है.

इस रिपोर्ट, जिस में 5 साल के आंकड़े शामिल हैं, के मुताबिक गुमशुदगी वाले बच्चों में 13 से 17 साल की लड़कियां ज्यादा होती हैं. आईआईएम इंदौर ने पुलिस के सहयोग से उन इलाकों में जांचपड़ताल यानी रिसर्च की जहां से बच्चे ज्यादा गायब होते हैं. ये वे इलाके हैं जहां शहरी लोग भी रहते हैं और स्लम यानी कि झुग्गियां भी हैं.

हैरानी वाली एक बात यह उजागर हुई कि गुम होने वाले बच्चों में 75 फीसदी लड़कियां होती हैं. रिसर्च के दौरान 75 ऐसे मामलों पर काम किया गया तो यह खुलासा भी हुआ कि कम उम्र की लड़कियां जिन लड़कों के साथ भागीं उन में अधिकतर की उम्र 18 से 23 साल है और वे लड़कियों के जानपहचान वाले पड़ोसी या रिश्तेदार हैं.

आईआईएम की टीम ने जब इन लड़केलड़कियों से बात की तो दिलचस्प बात यह भी सामने आई कि कोई 50 फीसदी लड़कियां वापस घर नहीं लौटना चाहतीं और घर से भागने के अपने फैसले को भी वे गलत नहीं मानतीं. जाहिर है, उन्हें अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है और वे अपनी मौजूदा जिंदगी और हालात से खुश हैं.

स्लम इलाकों की तंग जिंदगी कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. जहां लड़कियों के हिस्से में डांटफटकार और शोषण ही आते हैं. जैसे ही इन लड़कियों को यह एहसास होता है कि भेदभाव करने वाले मांबाप उन्हें बोझ समझते हैं तो वे बगावत करने पर उतारू हो आती हैं. एक बेहतर कल की उम्मीद उन्हें बाहर दिखती है तो ये उम्र में अपने से थोड़े बड़े लड़के का हाथ थाम घुटनभरी जिंदगी से नजात पाने को घर छोड़ जाती हैं.

इन लड़कियों को यह भी समझ आ जाता है कि उन के भाग जाने से कोई पहाड़ मांबाप पर नहीं टूट पड़ना है. हां, इस बात का अफसोस जरूर उन्हें होगा कि मुफ्त की नौकरानी हाथ से छूट गई जो नल से पानी भर कर लाती थी, खाना बनाती थी, झाड़ूबुहारी करती थी, कपड़े भी धोती थी और इस से ज्यादा अहम यह कि गुस्सा उतारने के काम भी आती थी जिसे कभी भी डांटापीटा जा सकता था.

शायद बाहर कुछ अच्छा हो या मिल जाए, यह आस लिए वे गुलामीभरी जिंदगी को ठोकर मार भाग जाती हैं. यह भी वे सोच चुकी होती हैं कि भाग कर भी अगर यही नरक मिला तो उसे भी भुगत लेंगे. लेकिन एक उम्मीद तो है कि शायद तनहाई में देखे गए वे सपने पूरे हो जाएं कि मेरा भी अपना अलग एक वजूद है, सांस लेने को खुली हवा है और प्यार करने वाला जानू साथ है जो मेरे लिए मेरी ही तरह अपना घरद्वार छोड़ने को तैयार है.

जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही. कई बार उन का पाला एक और बड़े नर्क से भी पड़ता है जिस की दुश्वारियों को इन लड़कियों ने फिल्मों और वीडियोज में देखा होता है. फिर भी वे रिस्क उठाती हैं क्योंकि उन्हें फौरी तौर पर घुटनभरी जिंदगी से छुटकारा चाहिए रहता है. आईएमएम इंदौर की रिसर्च बताती है कि आधी लड़कियों के सपने पूरे हो जाते हैं. बची आधियों में जरूरी नहीं कि उन के हिस्से में बदतर जिंदगी ही आती होगी. हां, उन में से कुछ जरूर गलत हाथों में पड़ कर एक ऐसी जिंदगी जीने को मजबूर हो जाती हैं जिस में रोजरोज मरना पड़ता है. ये वे लड़कियां होती हैं जो ट्रैफिकिंग यानी तस्करी का शिकार हो जाती हैं.

इन की चिंता कितनों को है और इन की बाबत क्याकुछ किया जाता है, इस का कोई रिकौर्ड किसी के पास नहीं. अलबत्ता कई खबरें जरूर आएदिन मीडिया की सुर्खियां बनती हैं कि देहव्यापार के दलदल में फंसी इतनी या उतनी लड़कियों को छुड़ाया गया. इस के बाद क्या होता है, यह कोई नहीं जानता. घरवापसी के इन के रास्ते बंद हो चुके होते हैं, लिहाजा, ये यहां से वहां भटकती रहती हैं. चंद लड़कियों को कोई एनजीओ सहारा और रोजगार दे देता है पर तब तक इन लड़कियों के सपने और हालात से लड़ने की हिम्मत दोनों पूरी तरह टूट चुके होते हैं.

और जिन के सपने पूरे हो जाते हैं उन्हें मानो दोनों जहां मिल जाते हैं. जाहिर है, ये लड़कियां प्लान बना कर और सोचसमझ कर घर छोड़ती हैं. उन के सपने भी बहुत छोटे होते हैं कि बस एक घरगृहस्थी हो, साथ रहते प्यार करने वाला और खयाल रखने वाला पार्टनर हो. पैसा तो ये छोटेबड़े काम कर कमा ही लेती हैं. कम पढ़ीलिखी ये लड़कियां अपने भले को ले कर चौकन्नी भी रहती हैं. दुनियादारी तो वे अपने घर और बस्ती में बहुत कम उम्र में सीख चुकी होती हैं.

यह ठीक है कि कुछ भी कर लिया जाए, बच्चों का घर से भागना पूरी तरह खत्म या बंद नहीं हो सकता लेकिन इसे कम किया जा सकता है. इस के लिए जरूरी है कि बच्चों के साथसाथ मांबाप की भी काउंसलिंग हो जिस के तहत उन्हें यह बताया जाए कि लड़कियां कोई बोझ नहीं होतीं बल्कि मौका मिले तो कई मामलों में लड़कों को भी मात दे देती हैं. लेकिन इस के लिए जरूरी है कि उन्हें पढ़ाया जाए, उन के साथ भेदभाव और मारपीट न की जाए, उन में कोई हुनर है तो उसे निखारा जाए और उन्हें भी लड़कों के बराबर सहूलियतें व आजादी दी जाए.

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