Emotional Story : जी हां, आप ने सही पहचाना. वह मेरे पापा ही हैं. त्रिलोकी नाथ चैहान. है न भारीभरकम नाम. बहुत कडक आदमी हैं जनाब. अपने समय के कलंदर.
एक वाक्य बोल कर सब को चुप करवा देते थे. डोंट ट्राई टू बी ओवरस्मार्ट. मैं तो क्या हर आदमी, जो उन से वास्ता रखता था, उन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था. एनसाइक्लोपीडिया तो फिर एक छोटा शब्द है उन के सामने. कोई कहता कि वह अपनेआप में एक बहुत बड़ी संस्था थे.
हर चीज में उन का दखल काबिलेगौर था- संगीत, कविता, धर्म, विज्ञान, इतिहास या राजनीति. आप बात कर के देखते उस समय. उन के सामने बहुत छोटा महसूस करते थे हम. उन का हर वाक्य एक कमांड होता था और हरेक शब्द एक संदेश. कभी अपनी पीठ नहीं लगने दी उन्होंने.
उन का सब से बड़ा प्लस प्वाइंट यह था कि बहुत बेदाग चरित्र के मालिक थे वे. साफसुथरी छवि के मालिक. कभी कोई अनर्गल बात नहीं करते थे. जो बात आज उन्होंने कही, 10 साल बाद भी वही हूबहू हजारों लोगों के नाम मानो तोते की तरह रटे हुए थे.
अब कहां हैं…?
जी हां, जिंदा हैं अभी.
जिंदा भी ऐसे मानो मांस का लोथड़ा हों. दिन में पता नहीं कितनी बार हिंसक हो उठते हैं. घर के एक कमरे में कैद कर के रखना पड़ता है उन्हें. ताला लगा कर.
डिमेंशिया नाम का रोग सुना होगा आप ने. इस में स्मरण शक्ति खत्म हो जाती है. रोजाना की आम गतिविधियां नहीं कर सकता वह आदमी. बातचीत में ठहराव नहीं रहता, कोई फोकस नहीं. बच्चों से भी गयागुजरा हो जाता है. बच्चा तो फिर भी हर रोज एक नई बात सीखता है, मगर पापा जैसा आदमी लगातार भूलता जाता है. आसपास, अपनेआप को. अपने शरीर के अंगों से नियंत्रण घटता जाता है उन का.
कई रूप हैं इस बीमारी के. मैं तो ठीक से बता भी नहीं पाऊंगा. अल्जाइमर रोग है या कुछ और.
मगर जो भी है, आदमी आलूगोभी की तरह हो जाता है. सामने है, मगर उस का वजूद न के बराबर. अपनेआप में गुम हो गया लगता है. खो गया लगता है.
लापता हो जैसे.
हम लोग पापा को कई अस्पतालों में ले गए. शुरूशुरू में पापा का कुछ और ही रूप था. तब शुरुआत थी शायद.
डाक्टर पूछता कि क्या नाम है?
पापा चैकन्ने हो कर जवाब देते, ‘त्रिलोकीनाथ चैहान.’
डाक्टर सहम जाता, ‘अरे, आप हैं सर. बहुत नाम सुना है आप का. आप को कौन नहीं जानता. आप ने तो बहुत बड़ेबड़े काम किए हैं, जो कोई दूसरा नहीं कर सकता.’
पापा मुसकराते, अजीब सी दंभभरी मुसकराहट. चेहरे पर अहंकार भरे भाव आ जाते उन के.
शुरू के सालों में पापा अपनी यह बीमारी मिलने वालों पर जाहिर नहीं होने देते थे. घर में कोई भी आता, उस से मिल कर खुश हो जाते. भले ही पहचानते नहीं थे, मगर आने वाले के पास बैठते. बेशक, कुछ न पूछते, मगर ऐसा भी नहीं कि कोई रुचि न लेते हों. कहते, ‘खाना खाया, कब आए हो?’
दोचार बातों तक ही सिमट कर रह गया था उन का सारा अस्तित्व.
फिर धीरेधीरे वे अपने कमरे में ही रहने लगे.
सब से बुरी बात तब हुई, जब वह आईने में अपनी ही सूरत भूल जाते. खुद को कोई अन्य समझ कर अपने अक्स से बात करने लगते.
फिर आसपास से बेखबर होने लगे. सुबह को शाम समझने लगे. दिन, तारीख तो अब क्या याद रखनी थी उन्होंने. कुछ बातों की जिद पकड़ लेते. कभी अपने घर की बालकनी में हम पापा को बिठाते तो कुछ देर बाद वह अपने कमरे या बाथरूम का ठिकाना भूल जाते.
खाने को ले कर बहुत लोचा होने लगा. उन्हें कभी तो बहुत भूख लगती, तो किसी दिन उन्हें चाय के साथ बिसकुट खिलाना भी मुसीबत हो जाता हम लोगों के लिए.
कभी अपने स्वर्गीय पिताजी को याद करने लगते. कहते, ‘मुझे उन के पास छोड़ आओ.’ मम्मी समझातीं, ‘आप 90 के हैं, तो आप के पिता तो कब के स्र्वग सिधार गए होंगे.’
वे हैरान हो कर पूछते, ‘अच्छा… कब मरे? मुझे बताया क्यों नहीं?’
उन की आंखों में आंसू छलकने लगते.
पापा की स्मरण शक्ति बहुत तेजी से घटती जा रही थी. अब मुझे पहचानते थे या मेरी मम्मी को. मम्मी उन से 10 साल छोटी थीं. सेहत तो उन की भी अच्छी नहीं थी.
बहुत क्षुद्र जीव है यह आदमी. ज्यादा देर तक शासन नहीं चला सकता. दूसरों पर ठीक है. दूसरों को 40-50 बरस काबू कर लेगा, मगर खुद अपने शरीर से नियंत्रण हट जाए तो बहुत मुसीबत आ जाती है. खुद के साथ समीकरण बिगड़ जाए तो साथ वालों की जिंदगी हराम हो जाती है.
आप का कहना अपनी जगह सही है. सब के साथ नहीं होता ऐसा.
इंगलैंड की रानी 90 के आसपास है. खूब कर रही है राज. अजी, क्या पावर है उस के पास. औपचारिक रूप से बस सोने की मुहर ही है. हां, बस इतनी सी पावर हो तो आदमी का दिमाग खराब नहीं होता.
पापा से मनोचिकित्सक उन के आसपास बैठे लोगों के बारे में पूछता, ‘ये कौन हैं?’
पापा तिरस्कार के भाव से कहते, ‘ये मेरा नालायक बेटा है. कुछ नहीं हो सका इस से. नैशनल डिफैंस एकेडेमी से भाग आया. अब अपना बिजनैस चैपट कर के बैठा है.’
मुझ से बहुत उम्मीदें थीं पापा की. खुद तो बहुत बड़े महत्वाकांक्षी थे ही. मुझे ले कर कुछ ज्यादा ही पजेसिव थे. मुझे अपने से भी ऊपर देखना चाहते थे.
जब मैं आर्मी अफसर के प्रशिक्षण केंद्र से भाग आया और इधरउधर हाथपांव मार रहा था, तब पापा मुझे उलाहने देते. बारबार कहते, ‘मैं खाली हाथ आया था दिल्ली. बाप की 5 रुपए महीने की पैंशन थी. खाने वाले 10 थे. अब तुम्हारे लिए चंडीगढ़ में 2 कनाल की कोठी बनवाई है मैं ने. 10 एकड़ का फार्महाउस है. घर में 4 कारें खड़ी हैं. साले, तुम ने क्या किया? मेरा नाम को बट्टा लगा दिया.’
मेरी हर चीज से शिकायत थी पापा को. मैं उन की किसी उम्मीद पर खरा नहीं उतरा.
मैं क्या बनना चाहता था? अरे साहब, जब से होश संभाला है, मुझ से किसी ने पूछा ही नहीं. बस हुक्म दे दिया जाता कि ये कर लो, वो कर लो.
पूरे इलाके में पापा का इतना ज्यादा रौब था, रसूख था. एक से एक बढ़िया स्कूल में मुझे दाखिला मिल जाता. कालेज में आराम से एडमिशन मिल जाता. टीचर मुझ से खौफ खाते कि कहीं मेरे पापा उन के खिलाफ किसी को टैलीफोन न कर दें.
एक वक्त था, शहर ही बहुत बड़ी ताकत का पर्याय थे वह, बहुत बड़ी हस्ती थे पापा. वे इतने ज्यादा पढ़ते नहीं थे. बस दिमाग बहुत बड़ा था. पता नहीं, सबकुछ कैसे समा जाता था. सुबह अखबार पढ़ते थे. याददाश्त बहुत गजब की थी. सामने वाले को तर्क देने लायक नहीं छोड़ते थे.
बहुत सारी महत्वपूर्ण घटनाएं थीं उन के जीवन की. फौज से सीधे अफसर बन कर गए थे. आजादी के तुरंत बाद पुलिस के बड़े अफसर आर्मी से लिए गए. पापा की टौप के लोगों में गिनती होने लगी. काम के माहिर थे और राजनीति से दूर. नेताओं ने खूब फायदा उठाया पापा का. पापा को अच्छे प्रभार मिलते. जहांजहां दंगा या अलगाववादी उपद्रव होते, पापा ने हीरो की तरह काम किया.
मैं क्याक्या बताऊंगा. आप गूगल से पूछ लेना. वह बतातेबताते थकेगा नहीं, मगर आप सुनतेसुनते बोर हो जाएंगे.
हम परिवार वाले बुरी तरह पक गए थे पापा की इस मशहूरी से. उस का हमारी नार्मल लाइफ पर बहुत बुरा असर पड़ा.
मां की जबान चली गई.
जी नहीं, गूंगी नहीं र्हुइं. पापा के सामने बौनी होती गईं. विरोध नहीं कर पाती थीं वे. पापा ने जो कह दिया वह पत्थर की लकीर.
मैं खुद कहांकहां नहीं धकेला गया. मैं था कि हर जगह नाकाम करार दे दिया जाता. क्योंकि मैं वह सब नहीं करना चाहता था.
क्या करना चाहता था?
टजी, सोचने का मौका ही कब मिला मुझे. पापा ही हावी रहे मेरी सोच पर.
रिटायरमैंट भी बहुत लंबी थी पापा की. 80 साल की उम्र तक तो वे बहुत ही सक्रिय रहे. कई तरह के असाइनमैंट मिलते रहे पापा को. विदेशों में भी जाते रहते. हर समय उन का सूटकेस तैयार रहता.
बस एक ही बात बताई जाती हमें कि दिल्ली जा रहे हैं.
हमारी सांस में सांस आती कि कुछ दिन आराम से कटेंगे.
समय बदला, लोग बदले, सरकारें बदलीं, पापा का स्थान दूसरे लोगों ने ले लिया. पापा की उपयोगिता कम होती जा रही थी. अब ईमानदारी की कोई कीमत नहीं रह गई थी. पापा अनवांटेड हो गए. समय सापेक्ष नहीं रहे. बूढ़े भी हो गए.
जब पापा की उम्र 85 से 90 के बीच थी, तब पापा रुतबे से घटते गए. चिड़चिड़े से हो गए थे वे. मैं 60 का हो गया था.
क्या करता हूं?
छोटेमोटे धंधे करता हूं. पापा ने इतना कुछ जमा कर लिया, उसे संभालता हूं.
लोगों ने पापा से मिलना छोड़ दिया. पापा अपने कमरे में अकेले होते गए.
कभीकभार कुछ लिखते. वह दिखाऊंगा आप को. मेरे तो कुछ पल्ले नहीं पड़ा. देश की राजनीति पर कुछ निबंध वगैरह हैं.
जी हां, पापा का लिखा दिखाया था प्रकाशकों को. वे कहते हैं कि बिकेगा नहीं. अगर 20 साल पहले लिखा होता तो शायद कुछ करते.
इनसान की यही लिमिटेशन है. समय पर खरीदा माल समय पर ही बेच देना चाहिए. बाद में कोई कीमत नहीं मिलती.
पापा को अब घर में बांध कर रखना भी अपनेआप में फुलटाइम काम होता जा रहा था. किसी को कुछ नहीं समझते थे वे. किसी का कहना नहीं मानते थे. मम्मी को समझते थे कि घर की नौकरानी है.
मैं अब उन से खुल कर झगडने लगा था. शायद तभी मेरे काबू में आ जाते थे. अब मेरा डर खत्म हो गया था. पापा अब ऐसे बूढ़े शेर थे, जिस के दांत टूट चुके थे और गुर्राना भी वे भूल चुके थे.
अब एक नई मुसीबत का सामना करना पड़ रहा था हमें. पापा बिन बताए मौका पाते ही घर से निकल जाते.
एक बार नहीं, बारबार वे घर से निकल कर भागे. पहले तो यहीं अपने एरिया में ही गुम हो जाते. हम ढूंढ़ लाते या कोई जानपहचान वाला छोड़ जाता.
दाढ़ी बढ़ आई थी उन की. शक्ल बदल गई थी. शहर बदल गया था. दुकानदारों को तो पापा की बीमारी के बारे में पता था, मगर जानपहचान के पुराने लोग कम होते जा रहे थे. कुछ बच्चों के साथ चले गए. कुछ मरमरा गए.
ये ससुरा चंडीगढ़ है न. यहां सारे सैक्टर एकसमान लगते हैं. सैक्टर 35 की मार्केट और सैक्टर 36 की मार्केट में फर्क करना मुश्किल हो जाता है. चैक, मकान, मोड़ सब एकजैसे दिखते हैं.
अब पापा को काबू करना सच में मुश्किल हो गया था. जरा सा मौका मिलता, वह निकल भागते. दीवार फांद लेते.
सारी उम्र दिल्ली जाते रहते थे. अब भी हर वक्त एक ही रट लगाते, ‘मुझे दिल्ली ले चलो. वहां मेरे पिताजी हैं. उन की देखभाल कौन करता होगा.’ यह सब सुन मम्मी रोने लगतीं. पापा पर कोई असर नहीं होता था.
बाकी के सारे रिश्तेदार भूल गए थे उन्हें. सिर्फ मुझे नहीं भूले. हम उन के गले में या बाजू पर नाम, पता या मेरे मोबाइल का नंबर लिखा रिबन बांध देते, मगर वे उसे उखाड़ कर फैंक देते. कमीज के कौलर या बाजू के कफ के अंदर लिखा रहता पेन से. मगर किसी दूसरे को क्या पड़ी है. आजकल आदमी अपनेआप से बेखबर रहने लगा है. किसी दूसरे की तरफ तो देखता तक नहीं. पुलिस…? अरे साहब, उन का अपना पेट नहीं भरता. वह आम नागरिक की मदद क्यों करने लगी भला.
एक दिन वही हुआ, जिस का हमें हर वक्त डर सताता रहता था.
पापा लापता हो गए.
हर वक्त दिल्ली जाने की रट लगाते रहते थे. तो किसी ने दिल्ली की बस में बिठा दिया होगा.
अब दिल्ली तो एक समंदर है. हम लोग यहां अपने शहर अंबाला, पटियाला में ढूंढ़ते रहे. पुलिस स्टेशन, वृद्धाश्रम, बसस्टैंड, रेलवे स्टेशन, सराय सब जगह. 2 आदमी रखे पैसे दे कर. उन्हें हर रोज सब तरफ भेजते. लापता होने के पोस्टर भी लगवाए गए. अखबारों में कई दिन इश्तिहार दिया.
पापा सैक्टर 35 के स्टेट बैंक से अपनी पेंशन लेते थे. वहां पता किया. मम्मी के नाम पेंशन लगवाने की बात हुई, तो वे बोले कि किसी जगह से मृत्यु का प्रमाणपत्र लाओ या कुछ साल इंतजार करो. उस के बाद कचहरी से लापता हो कर मरा हुआ जान कर ऐसा प्रमाणपत्र मिल जाएगा.
साल बीता. कोई खबर नहीं मिली पापा की.
घर का बंदा गुम हो जाए, तो कितना तकलीफदेह हो जाता है रहनासहना.
हर रोज एक आस जगती है. फिर इस उम्र का आदमी घर से चला जाए तो सोच कर देखिए जनाब.
हम चुप हो कर बैठे थे. क्या कर सकते थे हम.
फिर एक दिन बैंक से ही मुझे फोन आया कि आप के पापा जिंदा हैं.
दिल्ली में सरकारी अस्पताल एम्स में भरती हैं.
आखिर दिल्ली जा कर ही दम लिया पापा ने.
वहां पता नहीं कहांकहां भटकते रहे होंगे. बीमार हुए तो किसी ने लावारिस समझ कर एम्स में भरती करवा दिया होगा. अंगरेजी बोलते थे तो किसी ने सोचा कि अच्छे घर के होंगे. अपना नाम तक याद नहीं था पापा को.
कैसे पता चला.
डाक्टर हर रोज उन से बात करते होंगे, तो एक दिन अचानक पापा ने बोला, ‘त्रिलोकीनाथ चैहान, स्टेट बैंक, सैक्टर 35, चंडीगढ़.’
वहां के लोगों ने यहां नंबर मिलाया और बैंक वालों ने मुझे सूचित किया.
मैं पापा को लेने के लिए निकला. मन में गुस्सा भी था और अपराधबोध भी कि हम उन की परवरिश ठीक से नहीं कर रहे हैं.
लावारिस की तरह जनरल वार्ड में पड़े मिले पापा. गंदे से कपड़ों में. बहुत शर्म आई. बहुत देर लगी यह बताने में कि मैं उन का बेटा हूं. बिलकुल पराए से लग रहे थे. आंखों में कोई भाव नहीं. कोई भी ले जाता उन्हें वहां से.
मुझे उन के खर्च की फीस भरने को कहा गया. मैं 2 लाख रुपए नकद ले कर गया था. काउंटर पर बैठे आदमी ने बताया, ‘एक हजार, दो सौ साठ रुपए.’
मेरा यकीन करना साहब.
बहुत पत्थर दिल इनसान हूं मैं, मगर पहली बार फूटफूट कर मेरे आंसू निकले. गला रुंध गया. वाह रे खुदा. ये मैं क्या देख रहा हूं. कितने दिनों से यह आदमी यहां फटेहाल पड़ा है. अब कहीं भागने की हिम्मत भी नहीं रही इस की.
मैं घर ले आया उन्हें. लाश जैसे थे वे. कार की सीट बेल्ट से बांध कर. बारबार लुढ़क जाते.
अब तो सब शांत है.
जिंदा हैं बस. मुझे भी बहुत बार नहीं पहचानते.
पता नहीं, किस बात का इंतजार है उन्हें. तरस आता है. जीवन की नियति यही होती है क्या? तमाम उम्र कितनी भागदौड़ करते हैं हम. चोरी, डाका, फरेब, झगड़े, और अंत में क्या शेष रहता है. एक शून्य, एक गुमशुदगी, एक लामकानी, खोई हुई अस्मिता. अपनेआप में कोई इतना लापता कैसे हो सकता है भला.