बजाय देश की समस्याएं सुलझाने और बेरोजगारी, महंगाई, गंदगी, बढ़ते प्रदूषण, सामाजिक भेदभाव, जातीय व धार्मिक संघर्षों से निबटने के भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को या तो मंदिर बनवाने की लगी रहती है या नाम बदलने की. सड़कों, शहरों, कानूनों, कार्यक्रमों के नाम संस्कृतनुमा कर भी संतुष्ट न हो कर नरेंद्र मोदी की सरकार को अब देश का समय व शक्ति देश का नाम बदलने में लगाने की सम   झ आई है.

पंडितों के कहने पर कितने ही लोग घरों, कंपनियों, फर्मों के तो छोडि़ए, अपने नामों में इंग्लिश के अतिरिक्त अक्षर जोड़ते रहते हैं और खुश होते हैं कि अब ऊपरवाले की कृपा रहेगी और सबकुछ सुधर जाएगा. शायद इसीलिए देश का नाम इंडिया व भारत की जगह केवल भारत रखने की मशक्कत करनी शुरू कर दी गई है.

भारत के नाम के ऐसे गुणगान गाए जा रहे हैं मानो ऐसा करने पर अखंड भारत का सपना अपनेआप पूरा होने लगेगा. भारतवर्ष भूखंड का उच्चारण संस्कृत के बहुत ग्रंथों में है और इसीलिए संस्कृत, जो अब तक केवल शिक्षित ब्राह्मणों की भाषा थी, को नामों के जरिए जनता पर थोपने की कोशिश हो रही है और वह भी उस समय जब देश दूसरी अनेकानेक समस्याओं से जू   झ रहा है.

संविधान सभा में इस पर काफी बहस हुई थी और उस समय के कट्टरपंथियों, जो कांग्रेस में ही थे और जिन में ये अधिकांश हिंदू विवाह व विरासत कानून के सख्त खिलाफ थे, ने भारत नाम रखने की खूब वकालत की थी. संविधान में तभी ‘इंडिया दैट इज भारत’ का इस्तेमाल होता रहा है और इंग्लिश में इंडिया. इस से किसी को कोई तकलीफ न होती.

कितने ही देश, देशों के शहर, शहरों के स्थान दोदो नामों से जाने जाते हैं और जब तक उकसाया न जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता.

भारत में नाम का महत्त्व है, यह पुरानी बात है. संस्कृतनिष्ठ नाम केवल उच्च जाति के लोग रख सकते थे. जिन्हें आज दलित या एससी कहा जाता है उन्हें कोई गंदा सा बेमतलब का नाम दे कर उपहास का केंद्र बनाया जाता रहा है. बहुत से वैश्यों के नाम भी गैंडाराम जैसे रखे गए हैं. औरतों के नाम हमेशा उन्हें हीन बताने के लिए रखे जाते रहे हैं.

अब देश में वह महाभारत शुरू कर डाली गई है जिस का अंत क्या हुआ, यह सब जानते हैं. महाभारत ग्रंथ हालांकि कथाओं का संग्रह है पर मुख्य तो उस में कुरुक्षेत्र का युद्ध है जो विधर्मियों, विदेशियों, विजातियों की वजह से नहीं, एक ही परिवार में एक युद्ध की कथा है. इस कहानी को अब संसद में अखबारों, भाषणों में दोहराने की क्या आवश्यकता है?

भारत नाम इंडिया का इसी तरह पर्याय है. इस मामले को तूल देना बेवकूफी व समय की बरबादी है. यह, दरअसल, मुख्य समस्याओं से अपना ध्यान हटाना है और त्रस्त्र जनता का भी.

राज्यपालों का गलत इस्तेमाल केंद्र सरकार या यों कहिए नरेंद्र मोदी के कहने पर भाजपाई राज्यपालों ने देशभर में विपक्षी दलों की सरकारों को तंग करने की मुहिम चला रखी थी. मई में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ व 4 अन्य जजों की सर्वसहमति से हुए 2 निर्णयों ने राज्यपालों को फटकारा है और उन की खुले शब्दों में भर्त्सना की है.

असल में तो यह लताड़ नरेंद्र मोदी को है क्योंकि उन के द्वारा तैनात किए गए दिल्ली के अनिल बैजल से ले कर विनय कुमार सक्सेना तक सभी उपराज्यपाल अरविंद केजरीवाल की सरकार को तंग करने में लगे रहे हैं.

दरअसल, भारतीय जनता पार्टी को 3 बार विधानसभा चुनावों में और अब नगरनिगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बुरी तरह हराया है जबकि हर बार भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ा था. मोदी भाजपा को जिता नहीं सके तो उपराज्यपाल को विघ्न डालने के लिए लगा दिया जैसे विष्णु वामन अवतार बन कर राजा बलि के यहां पहुंचे थे. राज्यपाल वामन अवतार की तरह बेमतलब की मांगें कर रहे थे.

दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में सत्ता पलट में तब के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी की जम कर खिंचाई की है. आशा तो थी कि सुप्रीम कोर्ट शिंदे सरकार को हटा देगी लेकिन चुनावों से एक साल पहले बेकार में उथलपुथल करने की जगह फैसला ऐसा दिया है कि शिंदे सरकार अब सूली पर अटकी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी की कमान शिंदे से छीन कर उद्धव ठाकरे को पकड़ा दी है जो चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे को दे दी थी.

राज्यपालों का गलत इस्तेमाल करना संविधान की हत्या करना है पर भारतीय जनता पार्टी तो शायद विश्वास करती है कि जैसे दुर्वासा ऋषि जब चाहें जो मांग कर सकते थे, वैसे ही भाजपा भी संविधान को तोड़मरोड़ सकती है. इंदिरा गांधी ने भी यह खूब किया था.

कांग्रेस आमतौर पर राज्यपालों की अति पर चुप रहती है क्योंकि 40-50 साल जब पूरा राज कांग्रेसी प्रधानमंत्री के हाथों में था, राज्यपालों को विपक्षी सरकारों को हड़काने का काम दिया जाता रहा है. अब डिग्री का फर्क है और अब राज्यपाल गैरभाजपा सरकारों में बंदूकधारी शिकारी की तरह शेर के शिकार में लगे रहते हैं. किसी भी भाजपा राज्य सरकार का राज्यपाल से कोई मतभेद नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकारों को दायरे में तो बांधा है पर आने वाली विपक्षी सरकारें हर मामले में सुप्रीम कोर्ट ही जाएं, यह रास्ता खुला रखा है. उस ने दिल्ली और महाराष्ट्र के राज्यपालों पर संविधानविरोधी काम करने पर कोई दंड नहीं दिया है. यह भी हो जाता तो फालतू के राज्य सरकार और राज्यपाल के विवाद कम हो जाते.

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