23 अगस्त की शाम 6 बजकर 4 मिनट पर चांद पर भारतीय चंद्रयान-3 की सौफ्ट लैंडिंग होने के साथ भारत चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरने वाला दुनिया का पहला देश बन गया. दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक किसी भी देश का चंद्रयान नहीं उतरा है,हालांकि चांद के दूसरे भागों में कई देशों के ‘चंद्रयान’ उतर चुके हैं. चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक उतरने वालों में भारत चौथे नंबर पर है. इससे पहले अमेरिका, सोवियत संघ और चीन के ‘चंद्रयान’ चांद पर पहुंच चुके हैं.

भारत ने इससे पहले 2019 में भी चांद के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचने की कोशिश की थी,मगर कामयाब नहीं हो पाया. भारत का चंद्रयान-2 चांद तक तो पहुंचामगर चांद की सतह पर उतरने में कामयाब नहीं हुआ.अंतिम 15 मिनटों, जिन्हें इसरो के वैज्ञानिक ‘आतंक के 15 मिनट’ कहते हैं,ने भारतीय वैज्ञानिकों की एक बहुत बड़ी कोशिश के परखच्चे उड़ा दिए.चंद्रयान-2 का विक्रम लैंडर चांद की सतह पर सौफ्ट लैंडिंग की कोशिश में लड़खड़ा गया और महज 7.42 किलोमीटर की ऊंचाई पर क्रैश हो गया.

इस विफलता से इसरो के डायरैक्टर एस सोमनाथ फफक कर रो पड़े थे. हालांकि इस विफलता में चंद्रयान-2 का लैंडर ही दुर्घटनाग्रस्त हुआ था. वह और्बिटर सहीसलामत थाजिससे अलग होकर लैंडर सतह पर लैंड करने की कोशिश कर रहा था. चंद्रयान-2 का और्बिटर बिलकुल सहीसलामत बीते 4र वर्षों से न सिर्फ चांद की परिक्रमा कर रहा है, बल्कि लगातार सूचनाएं भी भेज रहा है. इन्हीं सूचनाओं और विश्लेषणों के आधार पर ही इसरो के वैज्ञानिकों ने तकनीकी खामियों को दूर करके चंद्रयान-3 को डिजाइन किया और उसे सफलतापूर्वक चांद की सतह पर लैंड करवाया.

गौरतलब है कि इससे पहले इजराइल, जापान, रूस और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) सहित कई देश चांद के दक्षिणी हिस्से पर उतरने में नाकाम रहे हैं. मंगल ग्रह पर मंगलयान और अब चांद के दक्षिणी ध्रुव पर चंद्रयान-3 की लैंडिंग करके भारत स्पेस साइंस में उल्लेखनीय तरक्की तो दिखा रहा हैमगर इस रफ्तार को अब तेज करने की जरूरत है क्योंकि दुनिया के तमाम देशों की अंतरिक्ष यात्राएं अब सिर्फ अंतरिक्ष के रहस्यों को जानने मात्र की नहीं हैं, बल्कि ये यात्राएं अब अंतरिक्ष में अपने वर्चस्व को कायम करने और वहां से प्राप्त जानकारियों व खनिज के भंडारों पर कब्जा जमाने की हैं.

भारत की हालिया सफलता से चीन और रूस जैसे देशों के कान खड़े हो गए हैं क्योंकि भारत औटोनौमस स्पेसक्राफ्टी की सफल लैंडिंग कराकर, रोवर को चांद पर उतारकर और एल्यूमीनियम जैसे एलिमैंट्स का इस्तेमाल करके सिस्लुनर (पृथ्वी और चांद के बीच की जगह) तकनीक में न सिर्फ आगे बढ़ रहा है, बल्कि चांद की सतह पर मिलने वाले अयस्कों की जानकारियां भी बटोर रहा है.

भारत के चंद्रयान-3 की कामयाबी के बाद चांद पर जल्द से जल्द पहुंचने के लिए विश्व के देशों की लंबी कतारें लग गई हैं. नासा का आर्टेमिस और चीन का चांग-ई6 के अलावा जापान, दक्षिण कोरिया, सऊदी अरब, यूरोप, स्पेस एक्स और ब्लू ओरिजन के मून मिशन कतार में हैं. यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसियां चांद को छूने के लिए बेताब दिख रही हैं. दुनियाभर की स्पेस एजेंसियों की अचानक चांद में दिलचस्पी यों ही नहीं बढ़ी है. इसके पीछे कई अहम कारण हैं. सबसे प्रमुख है मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए चांद को एक बेस के तौर पर इस्तेमाल करना. इसीलिए दुनियाभर की स्पेस एजेंसियां चांद पर पानी, खनिज और औक्सीजन की खोज में जुटी हैं, ताकि चांद पर एक ऐसा बेस बन सके, जिससे मंगल ही नहीं, बल्कि अन्य ग्रहों पर पहुंचना भी आसान हो जाए.

अंतरिक्ष में मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना काफी समय से व्यक्त की जा रही है. 1960 से लेकर अब तक मंगल के लिए अनगिनत मिशन लौंच हो चुके हैं. अमेरिका और रूस इनमें सबसे आगे हैं. तो वहीं भारत, चीन और यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसियां भी इस लिस्ट में शामिल हैं. मंगल ग्रह पर दुनियाभर की अंतरिक्ष एजेंसियों की नजर है, लेकिन धरती से इसकी दूरी अधिक होने की वजह से सिर्फ गिनेचुने मिशन ही सफल हो पाए हैं. सूर्य की परिक्रमा करते ग्रहों और उपग्रहों में एक समय ऐसा आता है जब चांद धरती और मंगल ग्रह के बीच से गुजरता है,ऐसे में अंतरिक्ष एजेंसियां चांद को बेस बनाना चाहती हैं ताकि यहां से आगे वे मंगल के लिए रवाना हो सकें.

चांद पर वर्चस्व के अन्य कारण

मंगल ग्रह पर पहुंचने के लिए चांद को बेस बनाना ही एक वजह नहीं है, बल्कि चांद पर पहुंचने की होड़ के अन्य कारण भी हैं. इनमें पानी की खोज प्रमुख है. वैज्ञानिक मानते हैं कि चांद के दक्षिणी ध्रुव पर पानी और औक्सीजन हो सकता है. अगर पानी है तो वहां खेती भी हो सकती है और जीवन भी बसाया जा सकता है. बर्फ को तोड़ने पर औक्सीजन भी मिल सकती है. यह भी माना जा रहा है कि चांद की सतह पर या उसके कुछ नीचे बहुमूल्य खनिज, जैसे सोना, टाइटेनियम, प्लेटिनम और यूरेनियम भी हो सकते हैं, जो किसी भी देश को मालामाल कर सकते हैं. वैज्ञानिकों की इस सोच पर भारतीय चंद्रयान-3 के रोवर्स ने मुहर भी लगा दी है.

चांद पर पहुंचने की कोशिश में अमेरिका और रूस सबसे आगे हैं. चीन भी इस दौड़ से खुद को पीछे नहीं रखना चाहता और भारत भी इसीलिए दौड़ लगा रहा है क्योंकि वह विश्व की बड़ी शक्ति बन कर उभरना चाहता है.

50 साल बाद फिर अंतरिक्ष में भागमभाग

उल्लेखनीय है कि वर्ष 1966 में पहली बाद रूस ने चांद की सतह पर सौफ्ट लैंडिंग की थी. कहा जाता है कि इस यान में कोई इंसान नहीं, बल्कि एक जानवर गया था. इस अभियान की सफलता के बाद 1968 में रूस ने यूरी गागरिन को पहले अंतरिक्ष यात्री के रूप में स्पेस में भेजा. जो स्पेस के कई चक्कर लगा कर सकुशल वापस लौटे. रूस की इस कामयाबी से अमेरिका परेशान हो उठा और उसने भी मून मिशन शुरू कर दिए.

अमेरिका के स्पेस यान अपोलो-11 के जरिए 1969 में पहली बार चांद की सतह पर इंसान के कदम पड़े. अमेरिकी नागरिक और वैज्ञानिक नील आर्मस्ट्रोंग चांद पर पहुंचने वाले पहले व्यक्ति थे. बज एल्डिरिन उनके साथ गए दूसरे अंतरिक्ष यात्री थे जिन्होंने उनके बाद चांद पर कदम रखा. उल्लेखनीय है कि अमेरिका चांद पर इंसान भेजने वाला इकलौता देश है और उसने 1972 में अपोलो-17 मिशन तक कुल 12 एस्ट्रोनौट्स चांद पर भेजे हैं. अपोलो-17 अमेरिका का आखिरी मून मिशन था. इसके बाद कहा जाता है कि वियतनाम युद्ध में हो रहे जबरदस्त खर्चे के कारण अमेरिका ने अपने खर्चीले मून मिशन पर रोक लगा दी. मगर सोवियत संघ अपने अंतरिक्ष मिशन में लगा रहा और साल 1974 में उसने लूना-24 चांद पर भेजा जो वहां की सतह से 170 ग्राम मिट्टी लेकर धरती पर वापस लौटा. मगर इसके बाद सोवियत संघ की भी दिलचस्पी चांद को लेकर खत्म हो गई.

1990 के दशक की शुरुआत में सोवियत संघ के टूट जाने के बाद अमेरिका अंतरिक्ष का इकलौता सुपर पावर रह गया और उसने अपना फोकस चांद से हटाकर मंगल ग्रह की ओर करना शुरू कर दिया. लेकिन हाल के सालों में दुनिया के देशों की चांद में दिलचस्पी फिर से पैदा हो गई और इस दिलचस्पी की वजह है चीन. एक आर्थिक महाशक्ति के तौर पर उभरने के बाद चीन जिस तरह से दुनिया में अमेरिका के वर्चस्व को चुनौती दे रहा है ठीक वैसी ही उसने चांद पर भी अपनी पताका फहराने का अभियान बड़े जोरशोर से शुरू कर दिया है.

बीते कुछ सालों में जबसे चांद के दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ के होने का पता चला है, चीन सहित अनेक देशों में अंतरिक्ष यात्राओं को लेकर हलचल तेज हो गई है. अगर चांद की सतह पर मौजूद बर्फ को तोड़ने में कामयाबी मिलती है तो उससे औक्सीजन पैदा की जा सकती है और चांद पर जीवन का संभावना भी तलाशी जा सकती है. यही नहीं, इस सूरत में चांद पर अपना स्टेशन बना कर मंगल ग्रह सहित अंतरिक्ष के बाकी ग्रहों की तलाश और वहां जीवन जीने के रास्ते ढूंढे जा सकते हैं. चांद पर मौजूद पानी रौकेट फ्यूल बनाने के काम भी आ सकता है. इसके अलावा चांद पर हीलियम गैस का एक बड़ा भंडार मौजूद है, जिससे क्लीन एनर्जी हासिल की जा सकती है. और अब तो वहां सोना, प्लेटेनियन, टाइटेनियन और यूरेनियन जैसे कीमती खनिजों की मौजूदगी भी मालूम चल गई है. जाहिर है चांद के इस खजाने पर चीन ने अपनी नजरें गड़ा दी हैं.

चीन ने पिछले 10 सालों में अपने 3 कामयाब मिशन चांद पर भेजे हैं. चीन ने 2013 में चांग ई-3, 2019 में चांग ई-4 और 2020 में चांग ई-5 मिशन चांद पर भेजे और न सिर्फ चांद की सतह पर रोबोट की सौफ्ट लैंडिंग कराई, बल्कि चांग ई-5 मिशन ने तो चांद पर चीन का झंडा भी फहराया दिया. दुनिया के देश चांद पर पहुंचने की जल्दी इसी कारण दिखा रहे हैं क्योंकि चीन यहीं रुकने वाला नहीं है. उसकी योजना साल 2027 तक चांग ई-7 मिशन के तहत चांद के दक्षिणी ध्रुव पर मौजूद पानी और बर्फ की जांच करने और 2030 तक चांद पर इंसान भेजने की है. चांद पर इंसान भेजने के चीन के मिशन में रूस भी उसका साथ दे रहा है.

चीन के तेज गति से चल रहे इन अभियानों ने अमेरिका को मानो नींद से जगा दिया है और अमेरिकी अंतरिक्ष संस्था नासा ने अपने मून मिशन आर्टेमिस के जरिए 2026 तक चांद पर फिर से इंसान को भेजने की योजना बना ली है और इस बार तो उसके इस मिशन में महिलाएं भी शामिल होंगी. यह अमेरिकी टीम चांद पर मौजूद बर्फ पर रिसर्च करेगी.

दक्षिण अफ्रीकी-कनाडाई-अमेरिकी दिग्गज व्यापारी और एलन स्पेसएक्स के संस्थापक एलन मस्क की कंपनी स्पेस एक्स जैसे प्राइवेट प्लेयर भी चांद पर जल्द से जल्द पहुंचने की रेस में शामिल हो चुके हैं. इन सबके मुकाबले भारत की रफ्तार अभी काफी कम है.

अमेरिका का आर्टेमिस मिशन

यह अमेरिका बहुप्रतीक्षित मिशन है जो 3 चरणों में पूरा होगा. पहले आर्टेमिस-1 लौंच होगा जो चांद की और्बिट में खुद को स्थापित करेगा. आर्टेमिस टू में अंतरिक्ष यात्री भी भेजे जाएंगे जो चांद की और्बिट का चक्कर लगाएंगे और वापस आ जाएंगे. इसके बाद आर्टेमिस-3 लौंचकिया जाएगा जो चांद की सतह पर उतरेगा और एस्ट्रोनौट्स वहां घूम कर खनिज व पानी की खोज करेंगे.

चीन का चांगई-6

चीन अगले साल इस मिशन को लौंच करेगा जो चांद के दक्षिणी भाग पर उतरकर वहां से नमूने लेकर लौटेगा. 2027 में चांगई-7 मिशन लांच किया जाएगा, जो चांद पर पानी ढूंढेगा और 2030 तक इसी मिशन से चीनी टैकनौट्स को चांद पर उतारने व 2036 तक चीन, रूस और वेनेजुएला के सहयोग से एक रिसर्च सैंटर के निर्माण की भी योजना है. पाकिस्तान भी चीन के साथ शामिल होने में रुचि दिखा रहा है. यह प्रतियोगिता इस आधार पर होगी कि चंद्रमा की सतह पर किसके पास स्थायी उपस्थिति है.

जापान भी है दौड़ में

जनवरी 2024 में जापान अपना चांद मिशन लौंच करेगा. हालांकि यह मिशन भारत के चंद्रयान-3 मिशन के चौथे दिन ही होना था, मगर खराब मौसम के चलते इसे स्थगित करना पड़ा. इसके बाद 2026 में यूरोप तथा साउथ कोरिया और सऊदी अरब भी चांद पर अपने मिशन भेजेंगे.

मून मिशन के सफल होने के बाद भारत ने 2 सितंबर, 2023 को अपना पहला सोलर मिशन आदित्य एल-1 भी लौंच कर दिया है, ताकि दुनिया के बड़े देश इस मुगालते में न रहें कि अंतरिक्ष पर सिर्फ उन्हीं का हक है.

भारत का आदित्य एल-1 जहां सूर्य के अध्ययन के लिए अपनी तरह का पहला मिशन है, वहीं कई दूसरे देश कई सूर्य अभियान भेज चुके हैं. हालांकि, लाखों डिग्री तापमान वाले सूर्य का अध्ययन कर सौरमंडल को जानने के लिए प्रयासों की वैश्विक दौड़ में गिनेचुने देश ही शामिल हुए हैं. अब इसमें भारत का नाम भी दर्ज हो गया है.

नासा ने सबसे पहले भेजे सोलर मिशन

अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने 2018 में पार्कर सोलर प्रोब मिशन भेजा था. यह दिसंबर 2021 में सूर्य के निकट पहुंचा और ऊपरी सतह कोरोना के तत्त्वों और चुम्बकीय क्षेत्र का डाटा दर्ज किया. उम्मीद है कि यह सूर्य की सतह के 73 लाख किलोमीटर निकट तक पहुंचेगा. नासा ने इसे ‘सूर्य को छूने वाला’ मिशन करार दिया है. इस बीच, फरवरी 2020 में नासा ने यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के साथ भी सूर्य की परिक्रमा के लिए मिशन भेजा था.

इससे पहले नासा ने अगस्त 1997 में एडवांस कंपोजिशन एक्सप्लोररअक्टूबर 2006 में सोलर डायनेमिक औब्जर्वेटरी और जून 2013 में इंटरफेस इमेजिंग स्पेक्ट्रोग्राफ मिशन भेजे थे.दिसंबर 1995 में यूरोप और जापान की एजेंसियों के साथ भेजे गए मिशन सोलर एंड हेमिस्फेरिक औब्जर्वेटरी को नासा का अहम मिशन माना जाता है.

जापान एयरोस्पेस आक्सा ने 1981 में सूर्य की लपटों के अध्ययन के लिए पहला सूर्य मिशन हिनोटोरी भेजा था. इस मिशन का मकसद एक्स-रे के जरिए सोलर फ्लेयर्स की स्टडी करना था. 1991 में उसने योहकोह लौंच किया. 1995 में नासा और ईएसए के साथ मिलकर सोहो और 1998 में नासा के साथ ‘ट्रांजिएंट रिजन एंड कोरोनल एक्सप्लोरर’ मिशन लौंच किया.

2006 में जापान ने हिनोडे लौंच किया, जो एक सोलर औब्जर्वेटरी की तरह आज भी सूर्य का चक्कर लगा रहा है. इस मिशन का मकसद सूर्य से पृथ्वी पर होने वाले प्रभाव को समझना है. मगर जापान के इन अभियानों की ज़्यादा चर्चा इसलिए नहीं होती क्योंकि वह अपनी जानकारियां साझा नहीं करता है.

2 साल में 2 और मिशन

यूरोपीय देशों ने भी मिलकर सूर्य के लिए कई मिशन भेजे हैं. यहां की एजेंसी ने 1990 में अल्सेस मिशन के जरिए सूर्य के ध्रुवों के वातावरण के अध्ययन का प्रयास किया है. 2001 में उसने नासा व जाक्सा के साथ प्रोबा-2 अभियान भेजा. इसके जरिए प्रयोग व डाटा संग्रह जैसी गतिविधियां अंजाम दी गईं. यूरोप 2024 में प्रोब-3 और 2025 में स्माइल मिशन सूर्य के अध्ययन के लिए भेजने जा रहा है.

2022 में भेजी सौर वेधशाला

चीन ने अक्टूबर 2022 में सौर वेधशाला (एएसओ-एस) सफलतापूर्वक भेजी है. इसका लक्ष्य सौर चुंबकीय क्षेत्र, सौर लपटों और कोरोना से होने वाले उत्सर्जन का अध्ययन करना है.अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के पूर्व कमांडर व अपोलो मर्डर्स के लेखक क्रिस हेडफील्ड का दावा है कि अब स्पेस में विश्व के देशों की दौड़ सिर्फ अंतरिक्ष के भेदों को जानने के लिए नहीं, बल्कि यह दौड़ अंतरिक्ष पर वर्चस्व और आर्थिक फायदे उठाने की है.

भारतीय चंद्रयान-3 का उद्देश्य

भारतीय चंद्रयान-3 के मुख्यतया3 उद्देश्य थे- चांद के दक्षिणी ध्रुव, जहां पहुंचने में अब तक कोई देश सफल नहीं हुआ है, वहां लैंडर की सौफ्ट लैंडिंग कराना. दूसरा, चांद की सतह, जिसे रेजोलिथ कहते हैं, पर लैंडर को उतार कर वहां रोवर्स को घुमाना और तीसरा, लैंडर और रोवर्स के जरिए चांद की सतह पर शोध करना. इसरो ने अपने ये तीनों उद्देश्य सफलतापूर्वक संपन्न कर लिए हैं.

चांद पर लैंडर और रोवर्स ने 14 दिन तक काम किया और अब इसरो ने उन्हें सोने के लिए भेज दिया है क्योंकि चांद के इस हिस्से में अब रात हो चुकी है. गौरतलब है कि चांद पर 14 दिन अंधेरा और 14 दिन उजाला रहता है. इन 14 दिनों के काम के दौरान लैंडर और रोवर्स ने कई महत्त्वपूर्ण सूचनाएं इसरो को पहुंचाई हैं.

बताते चलें कि वैज्ञानिकों द्वारा लैंडर मौड्यूल में जो पेलोड स्थापित किए गए थे उन में से एक का नाम है- रेडियो एनाटौमी औफ मून बाउंड हाइपरसैंसिटिव आयनोस्फीयर एंड एटमौस्फियर, जिसे इसरो के वैज्ञानिक रम्भा के नाम से बुलाते हैं. रम्भा ने चांद की सतह पर प्लाज्मा घनत्व की जांच कर वहां आयनों और इलैक्ट्रौनों के स्तर व समयसमय पर उनमें होने वाले बदलावों का अध्ययन कर जानकारी इसरो के साथ साझा की है. लैंडर में स्थापित एक अन्य उपकरण चांद की सतह के तापमान को मौनीटर कर रहा है. आईएलएसए यानी इंस्ट्रुमैंट फौर लूनर सिस्मिक एक्टिविटी उपकरण वहां भूकंपीय गतिविधियों को नोट कर रहा है. यह इस बात को भी निर्धारित कर रहा है कि भविष्य में चांद पर मनुष्य की मौजूदगी और निवास संभव है भी या नहीं.

उल्लेखनीय है कि चांद पर भी पृथ्वी की तरह टैक्टोनिक प्लेटों की गति के कारण लगातार भूकंप आते हैं. ऐसे में यदि वहां कोई इंसानी बस्ती बसाने की बात सोची जाती है तो भूकंपीय गतिविधियों का पता लगाना बहुत जरूरी है. बीते 14 दिनों में 26 किलो वजन वाले रोवर्स ने अपने 6 पहियों पर चांद की सतह पर चहलकदमी कर लेजर इंड्यूस्ड ब्रेकडाउन स्पेक्ट्रोस्कोप यानी एलआईबीएस उपकरण, जिसकेउपयोग से किसी स्थान पर तत्त्वों और उनके गुणों की पहचान होती है, चांद की सतह पर मैग्नीशियम, टाइटेनियम, सिलिकोन, लौह अयस्क और बर्फ की उपस्थिति के सुबूत जुटा लिए हैं और उसने ये तमाम जानकारियां भारतीय डीप स्पेस नैटवर्क को भेज दी हैं. चंद्रयान-3 मिशन से इसरो के वैज्ञानिकों को पता चला है कि चांद की सतह पर दिन में तापमान 180 डिग्री सैल्सियस तक पहुंच जाता है, जबकि रात के समय यह तापमान शून्य से भी 120 डिग्री नीचे चला जाता है.

चांद की ओर वैज्ञानिकों का रुझान हमेशा से रहा है. पृथ्वी के बाद अगर किसी उपग्रह को इंसानों के लिए उपयुक्त समझा गया है तो वह चांद ही है. पृथ्वी के सबसे करीब और ठंडे इस उपग्रह पर कई देशों की स्पेस एजेंसियां समयसमय पर अपने यान भेजती रही हैं. भारत भी 3 बार चंद्रयान भेज चुका है. चंद्रयान-1 और चंद्रयान-2 के बाद चंद्रयान-3 दुनिया के लिए इसलिए भी जिज्ञासा का विषय बना क्योंकि चांद के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंच बनाने वाला भारत पहला देश है लेकिन भारत के पहले चंद्रयान की उपलब्धि भी कम नहीं थी.

चंद्रयान-1 ने पहली बार पानी खोजा

15 अगस्त,2003. यहवह तारीख थी जब भारत ने चंद्रयान कार्यक्रम की शुरुआत की थी. नवंबर 2003 को भारत सरकार ने पहली बार भारतीय मून मिशन के लिए इसरो के चंद्रयान-1 को मंजूरी दी. इसके करीब 5 साल बाद,भारत ने 22 अक्टूबर,2008 को श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से चंद्रयान-1 मिशन लौंच किया. उस समय तक केवल 4 अन्य देश अमेरिका, रूस, यूरोप और जापान ही चंद्रमा पर अपने मिशन भेजने में कामयाब हो सके थे. ऐसा करने वाला भारत 5वां देश था.

14 नवंबर,2008 को चंद्रयान-1 चांद के दक्षिणी ध्रुव के पास दुर्घटनाग्रस्त हो गया. लेकिन तब तक उसने चांद की सतह पर पानी के अणुओं की मौजूदगी की पुष्टि कर दी थी. चंद्रयान-1 का डेटा इस्तेमाल करके चांद पर बर्फ की उपस्थिति पक्की हो गई थी.28 अगस्त,2009 को इसरो ने चंद्रयान-1 कार्यक्रम की समाप्ति की घोषणा कर दी और अगले लौंच की तैयारियों में जुट गया.

चंद्रयान-2 को मिली आंशिक सफलता

22 जुलाई, 2019 को 14:43 बजे भारत ने चांद की ओर अपना दूसरा कदम बढ़ाया. सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र (एसडीएससी),श्रीहरिकोटा से जीएसएलवी- मार्क-III एम1 द्वारा चंद्रयान-2लौंच किया गया.20 अगस्त को चंद्रयान-2 अतंरिक्ष यान चांद की कक्षा में प्रवेश कर गया. इस मिशन का पहला मकसद चांद की सतह पर सुरक्षित उतरना और चांद की सतह पर रोबोट रोवर संचालित करना था लेकिन 2 सितंबर को चांद की ध्रुवीय कक्षा में चांद का चक्कर लगाते समय लैंडर ‘विक्रम’ अलग हो गया और सतह से 2.1 किलोमीटर की ऊंचाई पर लैंडर का स्पेस सैंटर से संपर्क टूट गया.

2019 में चंद्रयान-2 चांद की सतह पर सुरक्षित उतरने में विफल रहा था. मगर इसरो की तीसरी कोशिश ने सफलता के झंडे गाड़ दिए. चंद्रयान-3 न सिर्फ चांद के दक्षिणी ध्रुव पर उतरा बल्कि उसने अपने वे सभी काम सफलतापूर्वक अंजाम दिए जो उसके लिए निश्चित किए गए थे.

गौरतलब है कि दक्षिणी ध्रुव का तापमान अधिकतम 100 डिग्री सैल्सियस से ऊपर और न्यूनतम माइनस 200 डिग्री सैल्सियस से अधिक हो जाता है. वहां मौजूद पानी ठोस रूप में यानी बर्फ के रूप में है. चंद्रयान 3 में जो उपकरण लगाए गए हैं उन में से चास्टे चांद की सतह पर तापमान की जांच के लिए है. रंभा चांद की सतह पर सूरज से आने वाले प्लाज्मा कणों के घनत्व, मात्रा और बदलाव की जांच कर रहा है.वहीं, इल्सा लैंडिंग साइट के आसपास भूकंपीय गतिविधियों पर नज़र रखे हुए है. लेजर रेट्रोरिफ्लेक्टर एरे चांद के डायनेमिक्स को समझने का कोशिश कर रहा है.

चंद्रयान-3 के विक्रम लैंडर में लगे कैमरे ने जो तसवीरें भेजी हैंउन में चांद की सेहत पर कहीं बड़े गड्ढे तो कहीं मैदानी एरिया नजर आ रहा है. वहां ज्यादातर जमीन ऊबड़खाबड़ है. बता दें कि 1958 से 2023 तक भारत, अमेरिका, रूस, जापान, यूरोपीय संघ, चीन और इजराइल ने कई तरह के मिशन चांद पर भेजे हैं. लगभग 7 दशकों में 111 मिशन भेजे गए हैं, जिनमें 66 सफल हुए और 41 फेल हुए हैं जबकि 8 को आंशिक सफलता मिली है. अब चंद्रयान-3 की सफलता के बाद भारत जल्द ही चंद्रयान-4 की तैयारी शुरू करेगा.

सैकड़ों वैज्ञानिकों का संयुक्त प्रयास है चंद्रयान-3

चांद पर भारतीय चंद्रयान को उतारने के पीछे कई सालों की कड़ी मेहनत और इसरो के सैकड़ों वैज्ञानिकों का संयुक्त प्रयास शामिल है. इसरो के मुताबिक, चंद्रयान-3 मिशन में 54 महिला इंजीनियरों और वैज्ञानिकों ने हिस्सा लिया. कुछ मुख्य नामों की चर्चा जरूरी है.

एस सोमनाथ, इसरो के चेयरमैन

भारत के महत्त्वाकांक्षी चंद्र मिशन के पीछे इसरो के चेयरमैन एस सोमनाथ की बड़ी भूमिका है.‘गगनयान’ और सूर्य मिशन ‘आदित्य-एल-1’ समेत इसरो के अन्य अंतरिक्ष अभियानों को रफ़्तार देने का श्रेय भी उन्हें जाता है. इसरो के प्रमुख की जिम्मेदारी निभाने से पहले एस सोमनाथ विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर और लिक्विड प्रोपल्शन सिस्टम सैंटर के डायरैक्टर रह चुके हैं. लिक्विड प्रोपल्शन सिस्टम सैंटर मुख्य रूप से इसरो के लिए रौकेट टैक्नोलौजी विकसित करता है.

पी वीरामुथुवेल, चंद्रयान-3 के प्रोजैक्ट डायरैक्टर

इसरो के प्रोजैक्ट निदेशक पी वीरामुथुवेल के पिता रेलवे कर्मचारी थे, मगर पी वीरामुथुवेल का मन शुरू से विज्ञान व तकनीक में रमता था. इसरो के अलगअलग सैंटर और चंद्रयान-3 के साथ समन्वय का पूरा काम उन्होंने ही संभाला था. 2019 में उन्होंने इस मिशन का चार्ज लिया था.

मून मिशन शुरू होने से पहले वीरामुथुवेल इसरो मुख्यालय में स्पेस इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोग्राम औफिस में डिप्टी डायरैक्टर थे. उन्हें बेहतरीन टैक्निकल हुनर के लिए जाना जाता है.वीरामुथुवेल ने चंद्रयान-2 मिशन में भी अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने नासा के साथ तालमेल बिठाने में भी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाई है. वे तमिलनाडु के विल्लुपुरम के रहने वाले हैं और उन्होंने मद्रास आईआईटी से अपनी पढ़ाई पूरी की थी. वीरामुथुवेल लैंडर के एक्सपर्ट हैं और विक्रम लैंडर की डिजाइनिंग में उनकी सक्रिय भूमिका रही है.

कल्पना के, डिप्टी प्रोजैक्ट डायरैक्टर, चंद्रयान-3

कल्पना के ने चंद्रयान-3 टीम का नेतृत्व किया है. उन्होंने कोरोना महामारी के दौरान भी दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे सारी चुनौतियों का सामना करते हुए मिशन के काम को आगे बढ़ाया. भारत के सैटेलाइन प्रोग्राम के पीछे इस प्रतिबद्ध इंजीनियर की बड़ी भूमिका रही है. कल्पना ने चंद्रयान-2 और मंगलयान मिशन में भी मुख्य भूमिका निभाई है.

एम शंकरन यूआर राव, सैटेलाइट सैंटर के डायरैक्टर

एम शंकरन यूआर राव सैटेलाइट सैंटर के प्रमुख हैं और उनकी टीम इसरो के लिए भारत के सभी उपग्रहों को बनाने की जिम्मेदारी निभाती है. चंद्रयान-1,मंगलयान और चंद्रयान-2 सैटेलाइट के निर्माण में शंकरन शामिल रहे. चंद्रयान-3 का तापमान संतुलित रहे, इस बात को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी शंकरन की थी. सैटेलाइट के अधिकतम और न्यूनतम तापमान की टैस्टिंग एक पूरी प्रक्रिया का बेहद अहम हिस्सा होता है. उन्होंने चंद्रमा के सतह का प्रोटोटाइप तैयार करने में मदद की जिस पर लैंडर के टिकाऊपन का परीक्षण किया गया.

एस मोहन कुमार, मिशन डायरैक्टर

एस मोहन कुमार विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक हैं और चंद्रयान-3 मिशन के डायरैक्टर हैं. एस मोहन कुमार एनवीएम-3 मिशन के तहत वन वेव इंडिया 2 सैटेलाइट के सफल व्यावसायिक लौंच में भी डायरैक्टर के तौर पर काम कर चुके हैं.

एस उन्नीकृष्णनन नायर, विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर के डायरैक्टर

एस उन्नीकृष्णन नायर केरल के तिरुअनंतपुरम के थुम्बा विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर के प्रमुख हैं.वे और उनकी टीम इस अहम मिशन के मुख्य संचालन के लिए जिम्मेदार थी.जियोसिंक्रोनस सैटेलाइल लौंच व्हीकल (जीएसएलवी) मार्क-3भी विक्रम साराभाई स्पेस सैंटर ने ही तैयार किया था.

ए. राजाराजन, लौंचऔथराइजेशन बोर्ड के प्रमुख

ए राजाराजन सतीश धवन स्पेस सैंटर,श्रीहरिकोटा के डायरैक्टर और वैज्ञानिक हैं. उन्होंने मानव अंतरिक्ष मिशन प्रोग्राम- ‘गगनयान’ और ‘एसएसएलवी’ के मोटर को लेकर काम किया है. लौंच औथराइजेशन बोर्ड असल में लौंचकरने की हरी झंडी देता है.

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