कुछ समय पहले की ही तो बात है जब हमारा देश रियो ओलिंपिक से मात्र 2 पदक ले कर आया तब हमारे देश तथा देश के लोग प्रसन्न हो गए. आकाश में कालेकाले मेघ छाने लगे, कुछ देर के बाद चमचमा कर बिजली भी कौंधने लगी. भयंकर गड़गड़ाहट के साथ बादल गरजने लगे और बिन मौसम बरसात भी होने लगी. इसी को कहते हैं बिन बादल बरसात होना.

बरसात साधारण नहीं थी. यह तो अलौकिक थी. ऊपर से आशीर्वाद बरस रहा था. वह भी रुपयों के रूप में. आशीर्वाद कुछ इस कदर था कि अथाह धन के मालिक, धन्नासेठ तथा बड़ेबड़े धनकुबेर भी उस के आगे नतमस्तक हो गए. यह खेल, कोई खेल नहीं था.

कहीं से रुपए बरस रहे थे तो कहीं से ईनाम, कहीं पुरस्कारों की गड़गड़ाहटी घोषणा हो रही थी और कहीं से सम्मान. रुपए ये नरम फुहारें (हजारों) नहीं थे, ये तो मूसलाधार (लाखों) भी नहीं थे, ये तो भयंकर (करोड़ों) थे. कहीं से तो बीएमडब्लू कार भी बरसी थी जैसे रूसी खिलाडि़यों पर बरसी थी.

जरा सोचिए कि अगर चांदी (सिल्वर मैडल) और तांबा (ब्रौंज मैडल) पर यह हाल है (यानी देश इतना प्रसन्न हो रहा है) तो सोने (गोल्ड मैडल) पर क्या होता, इस का अनुमान खेल टिप्पणीकार के भी बस में न होगा.

हमारे देश की जनता को सोना चाहिए, वह भी पहनने के लिए, क्योंकि सोने की चिडि़या वाले देश में सोना पहनने की आदत अति प्राचीन है. इस से कुछ फर्क नहीं पड़ता कि सोना जीता हुआ हो या खरीदा हुआ, उसे तो आम खाने से मतलब है, पेड़ थोड़े ही गिनने हैं.

पर क्या किया जाए, गरीबी से तंग आ कर प्रेमी अपनी प्रेमिका को रि?ाने के लिए किसी फिल्म की कुछ लाइनें गाता है, ‘मेरा तोहफा तू कर ले कुबूल माफ करना हुई मु?ा से भूल, क्योंकि सोने में छाई महंगाई, मैं चांदी ले आया…’ सोने के हजारोंहजार सपने देखने वाली प्रेमिका का मुंह एकदम से लाल है चांदी देख कर, क्योंकि उस के तो अभी खेलने के दिन हैं.

हर 4 साल बाद लीप ईयर आता है और फरवरी का महीना 29 दिन का हो जाता है यानी 4 वर्ष में एक दिन और बढ़ जाता है. उसी तरह 4 वर्ष बाद ओलिंपिक भी आता है. यह निश्चित तो नहीं, पर भरपूर संभावना रहती है कि एक मैडल जरूर बढ़ जाएगा.

4 वर्ष तक क्रिकेटक्रिकेट करने वाली जनता अब सोनासोना करने लगती है. आप ने अकसर देखा होगा कि बरसात आने पर पीलेपीले मेंढक धरती फाड़ कर बाहर निकल आते हैं और बरसात खत्म होते ही फिर वे शीतनिंद्रा में चले जाते हैं. अब टी-ट्वैंटी करने वाले लोग मैडलमैडल खेलने लगते हैं और भारत के प्रति उम्मीद कुछ ज्यादा होने लगती है और खेल को खेल सम?ाते हैं.

4 वर्ष तक शायद ही किसी को पता होता हो कि भारत जैसे देश में क्रिकेट के अलावा दूसरा खेल भी खेला जाता है. भारत और पाकिस्तान का जब क्रिकेट मैच हो तब आप देख लीजिए पूरे देश का उफान, इस खेल भावना (देशभावना) में ओलिंपिक का तो काफी दूरदूर तक नामोनिशान नहीं होगा.

हमारा राष्ट्रीय खेल हौकी है पर देश में क्रिकेट के प्रति इस कदर दीवानगी है कि आप भ्रमित हो जाएंगे, कहीं आप यह न सोच लें कि भारत का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट है. मेरे अनुसार क्रिकेट को ओलिंपिक में शामिल कर देना चाहिए और भारत का राष्ट्रीय खेल क्रिकेट घोषित कर देना चाहिए अगर आप के मन में थोड़ा भी देशप्रेम हो तो.

यहां जब बच्चा पैदा होता है तो क्रिकेट का बल्ला ले कर ही पैदा होता है और जिंदगीभर चौकेछक्के लगाता रहता है. अगर खेल नहीं खेल रहा है तो टीवी, रेडियो में मैच देख कर, सुन कर अपनी मन की भड़ास निकालता रहता है. यदि भारत जीत गया तो पटाखे फोड़ता है, यदि हारा, तो टीवी.

मेरे देश के मीडिया का हाल अब क्या बताऊं, नैशनल चैनल से ले कर प्राइवेट तक और अखबारों से ले कर रेडियो तक सभी केवल एक ही राग अलापते हैं. आप सोच रहे हैं कि संगीत में ही केवल राग होता है तो आप गलत हैं. मेरे देश में तो क्रिकेट नामक राग भी है जो तानसेन के राग दीपक से भी हजार गुना तेज है. तानसेन ने तो राग दीपक को राग मेघ गा कर राग दीपक के तेज को बु?ा दिया पर इस राग

का अभी तक कोई भी तोड़ पैदा नहीं हुआ है.

मेरे देश में क्रिकेट को छोड़ कर अन्य खेलों के प्रति सौतेला व्यवहार क्यों, शायद इस का जवाब ढूंढ़ने में वर्षों का समय लग जाए पर सच बात यही है कि जो अफीम (क्रिकेट) लोगों की रगों में प्रवेश कर गया है, उसे सही करना नशामुक्ति केंद्र के डाक्टर के भी वश में न होगा.

हमारे देश का युवा जब 18 साल का होता है तब उस के मन में बस एक ही उद्देश्य रहता है या तो इंजीनियर बनेगा या डाक्टर, कुछ के मन में एयर फोर्स या आर्मी. लेकिन खेल शायद ही किसी के दिमाग में आता होगा, क्योंकि वह जानता है कि डाक्टर, इंजीनियर बनने से रोजगार मिलेगा पर वह यह जानता ही नहीं कि खेलेगा तो भी उस को रोजगार मिल सकता है मतलब जागरूकता का अभाव क्योंकि यहां तो बातबात में लोग बोलते हैं कि खेलोगे कूदोगे होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब.

हमें मैडल चाहिए तो अभी से नर्सरी लगानी होगी, निचले पायदान से काम करना होगा, भरपूर रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे, जागरूकता पैदा करनी होगी तथा मीडिया को भी सब खेलों पर बराबर ध्यान देना होगा.

यह आशीर्वाद इस नर्सरी पर नरम फुहारें बन कर भी बरस जाए तो काफी होगा, तब हमें शायद ही सोने की कमी हो, तब हम सोना खरीद कर नहीं, जीत कर पहनेंगे और एक बार फिर हमारा देश सोने की चिडि़या बन जाएगा.

खेल हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण है इस से हमारा स्वास्थ्य भी ठीक रहता है. खेल हमारे मनोरंजन का साधन भी है जोकि जीवन का अभिन्न अंग है.

यदि हम खेल पर ध्यान देंगे तो कोई दुश्मन भी हम से खेल खेलने की नहीं सोच सकता और फिर कोई भी हमारा खेल बिगाड़ नहीं सकता. तब खेल मात्र हमारा मनबहलाव का साधन ही नहीं, बल्कि देशगौरव की बात भी होगी.

और तब शायद ही कोई कह पाए, ‘ओलिंपिक जाओ, सैल्फी लो और वापस आ जाओ.’

इन सब बातों से तो एक ही निष्कर्ष निकलता है, ‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से पाए,’ मतलब साफ है कि जो बोएंगे वही तो काटेंगे.

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