विशाल की पहली पसंद थी, नेहा. दोनों कालेज में साथ पढ़ते थे. पढ़ाई के बाद उन्होंने एक ही कंपनी में काम शुरू किया. धीरेधीरे उन का प्रेम परवान चढ़ा और परिवारजनों की सहमति से उन्होंने विवाह कर लिया. नेहा विवाह के बाद भी कामकाजी बने रहना चाहती थी किंतु विशाल व उस के घर वालों को यह स्वीकार न था. आखिर नेहा को उन की बात माननी पड़ी. उस ने घरगृहस्थी को ही कैरियर मान लिया. वह घर की सब से बड़ी बहू थी और उसे इस बात का एहसास था. अपेक्षाओं की कसौटी पर वह खरी उतरी. बदले में उसे भी विशाल के परिवार से भरपूर प्यार व सम्मान मिला. सासससुर व देवरों का उस के प्रति अच्छा व्यवहार था. कुल मिला कर सब अत्यंत प्रसन्न व संतुष्ट थे.
अचानक एक दिन दुर्घटना घटी और विशाल चल बसा. सब देखते रह गए. ससुर सदमा बरदाश्त नहीं कर पाए. वे लकवे के शिकार हो गए. नेहा तो मानसिक संतुलन ही खो बैठी थी. वह स्पंदनहीन पत्थर की तरह बन गई. सास ने हालात को संभालते हुए उसे कुछ दिनों के लिए पीहर भिजवा दिया. नेहा को संभलने में कुछ समय लगा. जब वह संभली तो उसे ससुरालजनों की चिंता हुई. उस ने वापस ससुराल लौटने का निर्णय ले लिया ताकि सासससुर की देखभाल कर सके. उस ने योजना बनाई थी कि वह घर पर ही छोटा सा बुटीक खोल लेगी ताकि आत्मनिर्भर हो सके.
नेहा के देवरों को उस का लौट आना पसंद न था. उन्होंने उसे यह कह कर रोक दिया,ख् ‘जब पति ही नहीं रहा तो वापस इस घर में आने से क्या फायदा.’ यह सुन कर नेहा को धक्का लगा. उस के लिए यह दूसरी दुर्घटना थी. नेहा के सासससुर और देवर चाहते थे कि वह अपने पिता की संपत्ति में से हिस्सा ले और हमेशा के लिए पीहर में ही रहे. नेहा नहीं चाहती थी कि बात इतनी आगे बढ़े. उसे सम?ा नहीं आ रहा था कि वह क्या करे. आखिर उसे सम?ा आया कि विशाल की पत्नी होने के नाते उसे ससुराल से अपने वाजिब अधिकार हासिल करने चाहिए. तब उस ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत ससुराल वालों पर केस दर्ज करवा दिया. वहां ससुराल वालों के तर्क नहीं चले और न्यायालय के आदेश से उन्हें नेहा को उस के हिस्से की संपत्ति व अधिकार देने पड़े.
स्पैशल मैरिज एक्ट की सहूलियत
डाक्टर कमल हिंदू था और उस की पत्नी डाक्टर साहेला मुसलिम थी. वे दोनों साथ पढ़ते थे और उन्होंने विवाह कर लिया. दोनों के परिवारजनों ने इस विवाह का भरपूर विरोध किया. चूंकि उन की शादी काननून पंजीकृत थी, इसलिए वे कुछ भी नहीं कर सके. दोनों ने नौकरी के बजाय चंडीगढ़ में अपना क्लिनिक खोल लिया.
शीघ्र ही उन का क्लिनिक चल निकला. उस का विस्तार करते हुए उन्होंने उसे एक प्रतिष्ठित हौस्पिटल का रूप दे दिया. कुछ दिनों बाद भगवा गैंग वाले आए और हल्ला मचाने लगे पर फिर कोर्ट से और्डर ला कर उन्होंने जता दिया कि धर्म से ज्यादा जरूरी प्यार है. लव जिहाद एक फालतू का शिगूफा है जो बेटों की खातिर उठाया जा रहा है. स्पैशल मैरिज एक्ट में 1956 से ही 2 अलग धर्मों वालों को शादी को विधिवत बताया जा चुका है. हिंदूमुसलिम विवाह का विरोध गुंडेलफंगे कर रहे हैं जिन्हें राजनीतिक रोटियां तोड़नी हैं.
हुआ यह कि दोनों पतिपत्नी कोविड के दिनों में मरीजों की जीजान से सेवा कर रहे थे पर कमल को कोविड हो गया. कमल की मौत हो गई और साहेला को भी स्वस्थ होने में करीब 4 माह का समय लग गया. जब तक वह ठीक हुई, तब तक बहुतकुछ बदल चुका था. कमल के छोटे भाई डाक्टर अनुपम ने 4-5 महीने का समय पा कर अस्पताल पर कब्जा जमा लिया था. भाई और भाभी की अनुपस्थिति में वह उस का मालिक बन बैठा था. अस्पताल के कर्मचारियों को उस ने अपने साथ मिला लिया. उन की सहायता से उस ने साहेला को अस्पताल में प्रवेश तक नहीं करने दिया. बेचारी साहेला ठगी सी रह गई.
वह पुलिस के पास गई पर वहां भी कुछ नहीं हुआ. आखिरकार साहेला ने न्यायालय की शरण ली. वहां अनुपम अस्पताल की मिल्कियत के सुबूत पेश नहीं कर पाया. नतीजतन, दूसरीतीसरी पेशी में ही न्यायालय ने पुलिस और प्रशासन को आदेश दिया कि अनुपम को बेदखल कर, अस्पताल साहेला के सुपुर्द कर दिया जाए.
हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हक
इस तरह साहेला ने अस्पताल की जंग तो जीत ली किंतु पुश्तैनी संपत्ति के मामले में अनुपम और उस के घरवालों के तर्क विचित्र थे. उन का कहना था कि साहेला जन्म से मुसलिम है, इस कारण वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिस्सा नहीं मांग सकती. कोर्ट ने इस दलील को ठुकरा दिया. उस का कहना था कि यह सही है कि साहेला ने मुसलिम परिवार में जन्म लिया किंतु अब वह डाक्टर कमल की विधवा पत्नी है. उन का विवाह कानून के अनुसार ‘विशेष विवाह अधिनियम’ के अंतर्गत पंजीकृत है और वह पूरी तरह से वैध है. दूसरी ओर कमल ने मुसलिम धर्म स्वीकार नहीं किया था और साहेला उस के साथ पत्नीवत रह रही थी. इस तरह किसी भी दृष्टिकोण से उन्हें मुसलिम दंपती नहीं माना जा सकता. जिस संपत्ति में साहेला ने हिस्सा चाहा है वह हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में आती है और उस पर उस के पति का वैध अधिकार बनता है. ऐसी स्थिति में उस की पत्नी को किसी भी कानून द्वारा उस के स्वाभाविक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता.
संपत्ति पर विधवा बहू का अधिकार
भारतीय महिलाओं के साथ अकसर ऐसा होता है. यदि पति की मृत्यु हो गई तो बहू को ससुराल में प्रताड़ना मिलने लगती है, जैसे हादसे की जिम्मेदार वह ही हो. ऐसे में पति के हक की संपत्ति की बात करना बेमानी सी लगने लगती है. परिवारजन संपत्ति में पोते को तो हिस्सा देने को तैयार हो जाते है किंतु विधवा बहू को हिस्सा देने से मुकर जाते हैं. उसे यह कह कर टाल दिया जाता है कि ‘तुम हमारे बेटे के पीछे हो, अब जब बेटा ही नहीं रहा तो तुम्हारे को संपत्ति में कैसा अधिकार.’ या वे यह कह देते हैं -संपत्ति पर हमारे बेटे का हक है, तुम्हारा क्या लेनादेना. जाओ, अपने पिता की संपत्ति की वारिस बनो.
कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे मामलों में विधवा बहू को पति की निजी संपत्ति व पुश्तैनी उत्तराधिकार से बेदखल किए जाने के हर संभव प्रयास किए जाते है. जबकि कानूनी रूप से पति के गुजर जाने के बाद न केवल पति की संपत्ति वरन ससुर की संपत्ति में भी बहू का पूरा अधिकार होता है.
ससुर की संपत्ति के मामले में शर्त यही है कि वह पैतृक संपत्ति होनी चाहिए. यदि वह पैतृक संपत्ति है तो किसी भी हालत में उसे उस पर मिलने वाले अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. यह अलग प्रश्न है कि उस संपत्ति में से विधवा बहू को कितना अधिकार मिल पाएगा. इस का फैसला परिवार के आकारप्रकार पर निर्भर करता है और वह उतना ही मिल पाएगा जितना अधिकार पति के जीवित रहते उस को मिलता.
जहां तक सासससुर द्वारा स्वयं अर्जित की गई संपत्ति की बात है, उस में भी बहू का अधिकार बनता है. मगर उस की एक अनिवार्य शर्त है. वह यह कि साससुसर ने अपने जीवनकाल में संपत्ति की वसीयत किसी अन्य के नाम से नहीं की हो. ऐसी स्थिति में वह संपत्ति स्वत: पुश्तैनी संपत्ति में परिवर्तित हो जाती है. इस के विपरीत यदि वे अपनी निजी संपत्ति को वसीयत के माध्यम से किसी अन्य को दे देते हैं तो वह संपत्ति उस व्यक्ति को अंतरित हो जाती है चाहे वह व्यक्ति उस परिवार का सदस्य हो अथवा नहीं.
कहने का तात्पर्य यह है कि यदि ससुर या सास जिस के भी नाम से संपत्ति है, यदि मृत्यु से पूर्व उस की वसीयत द्वारा वे किसी अन्य को उस का उत्तराधिकारी नामित कर देते हैं तो वह संपत्ति, पुश्तैनी संपत्ति नहीं रह जाती. यदि वे ऐसा नहीं करते तब ही संपत्ति पुस्तैनी संपत्ति की श्रेणी में मानी जाने योग्य होती है. इस तरह पुत्र अथवा उस की अनुपस्थिति में पुत्र की पत्नी या उस के जन्म लिए हुए पुत्र उस अनामित संपत्ति के उत्तराधिकारी माने जाते हैं.
इस तरह ससुर की अनामित संपत्ति में से विधवा बहू को उस का कितने प्रतिशत हिस्सा मिलेगा, यह उस संपत्ति के आकलन और दावेदारी की संख्या पर निर्भर करता है. यदि बहू के बच्चे हैं तो वे भी संपत्ति के दावेदार माने जाएंगे मगर उन के अधिकार के लिए अलग से दावा पेश करना होगा. जन्मदाता व नैसर्गिक अभिभावक होने के नाते उन के अधिकार की संपत्ति के लिए माता दावेदार बनेगी और वह ही उस संपत्ति की संरक्षिका भी होगी. यदि वह पागल, दिवालिया या कानूनन वर्जित श्रेणी में नहीं है तो उस के होते हुए किसी अन्य को संतति और उस के हिस्से की संपत्ति के संरक्षण का अधिकार नहीं दिया जा सकता.
बच्चे का जन्म लेना अनिवार्य
यही स्थिति मृत पति के भविष्य में जन्म लेने वाले यानी कि अजन्मे बच्चे के मामले में भी है. बस, उस में मुख्य शर्त यह ही रहती है कि वह बच्चा वाकई जन्म ले. उस के जन्म लेने तक उस का हिस्सा न्यायालय सुरक्षित रखना चाहेगा. जन्म से पहले बच्चे के हिस्से को नहीं दिलवाने का मुख्य कारण यह ही है कि बच्चे के नाम पर संपत्ति प्राप्त कर, बाद में कहीं उस की मां गर्भ का समापन (टर्मिनेशन) ही न करवा दे. कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चे का जन्म लेना और जीवित रहना अनिवार्य शर्त है.
यह आवश्यक नहीं है कि पति की मृत्यु के बाद पत्नी ससुराल में रहे तब ही उसे संपत्ति में से हिस्सा मिल पाएगा. पति की मृत्यु के बाद वह कहीं भी जा कर रह सकती है. वैसे भी इस बात की पर्याप्त संभावना बनती है कि रोजगार की तलाश में वह अन्यत्र जाने को विवश हो जाए. इस के अतिरिक्त यह भी संभव है कि पति के नहीं रहने पर वह स्वयं के मातापिता के साथ रहने लग जाए. तात्पर्य यही है कि चाहे जो भी स्थिति हो, यदि विधवा बहू ने दूसरा विवाह नहीं किया है तो उसे ससुराल की संपत्ति में से उस का वाजिब हिस्सा अवश्य मिलेगा. यदि जरूरत हो तो इस के लिए उसे हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अंतर्गत न्यायालय में दावा प्रस्तुत करना चाहिए.
इतना ही नहीं, विधवा बहू ससुर की संपत्ति का विभाजन किए जाने का दावा भी पेश कर सकती है, बशर्ते कि वह परिवार अविभाजित हिंदू परिवार अधिनियम के तहत संचालित हो. यदि उस का दिवंगत पति किसी व्यवसाय व संस्थान में प्रोप्रराइटर अथवा पार्टनर की हैसियत से कार्यरत था तो उस में से भी वह अपना हिस्सा प्राप्त कर सकती है. वह चाहे तो पति की मृत्यु के बाद उस व्यवसाय को विभाजित किए जाने या सा?ोदारी को तोड़ कर अलग होने अथवा नई सा?ादारी बनाए जाने की भी मांग कर सकती है. उसे यह कह कर संपत्ति या व्यवसाय में से हिस्सा देने या उस को विभाजित करने से नहीं रोका जा सकता कि उस के पति की मृत्यु हो गई है और उस पर उस की विधवा पत्नी का अधिकार नहीं रह गया है.
वैध वसीयत की मान्यता
यदि पति और ससुर ने वसीयत छोड़ी है और वह पंजीकृत है अथवा जिसे न्यायालय प्रभावी एवं वैध वसीयत मानता है तो, उस के अनुसार, उस (निजी) संपत्ति अथवा व्यवसाय का बंटवारा होगा. मगर यह स्वायत्तता उन्हें केवल उस संपत्ति के मामले में ही होगी जो स्वअर्जित हो. यदि संपत्ति पति या ससुर को उत्तराधिकार में प्राप्त हुई है तो उस में से विधवा पत्नी-बहू को उतना हिस्सा अवश्य मिलेगा जिस पर उस के पति का उस के जीवनकाल में अधिकार होता.
सो, यों हार मानने से काम नहीं चलता. पति के न रहने पर भी स्त्री को सम्मानपूर्वक ससुराल में रहने व जीने का अधिकार है पर उपयुक्त यह है कि ससुराल में सब के साथ सामंजस्य बैठा कर रहा जाए. उन्हें इतना प्रेम व सम्मान जरूर दें जिस के वे हकदार हैं. यदि ऐसा किया तो वे विधवा बहू और बच्चों के बिना रहने की बात सपने में भी नहीं सोचेंगे. वे इन्हें बुढ़ापे का सहारा मानने लगेंगे और उन में उन्हें दिवंगत पुत्र की छवि नजर आने लगेगी. इस तरह यदि बहू ‘बुढ़ापे की लाठी’ बनी तो उसे कभी अधिकार की लड़ाई लड़ने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
अधिकतर देखने में यह आता है कि पति की मृत्यु के बाद बहू स्वयं को ससुराल में बेगानी सम?ाने लगती है. वह बच्चों को ले कर पीहर को आश्रय स्थल बनाने की सोचती है. इस कारण न तो वह ससुराल को आश्रयस्थल बनाती है और न ही उन का आश्रय स्वयं बन पाती है. ऐसी बहुओं को ससुराल में पराएपन से रूबरू होना पड़ता है जिस का दोष वे ससुराल वालों पर थोपती हैं. नतीजतन, वे भी उन्हें उन के अधिकार से वंचित करने की सोचने को विवश हो जाते हैं. आखिर, कोई भी स्वाभिमानी परिवार नहीं चाहता कि घर की बहू स्वामित्व का ?ांडा पीहर में बैठ कर बुलंद करे और उस के माध्यम से उस की संपत्ति उन के हाथों में चली जाए.